उर्दू रस्म-उल-ख़त सीखना क्यों ज़रूरी है
किसी भी ज़बान को पूरी तरह से समझने के लिए, उसके एक-एक लफ़्ज़ के मआनी तक पहुँचने के लिए सबसे पहले ज़रूरी है, कि हमें उस ज़बान की रस्मुल-ख़त यानी लिपि (script) का इल्म होना चाहिए। जब तक हम कोई ज़बान अच्छी तरह से पढ़ और लिख नहीं सकते, हम उस ज़बान से पूरी तरह वाक़िफ़ भी नहीं हो सकते। बग़ैर रस्मुल-ख़त जाने हम वो ज़बान शाएद बोल तो सकते हैं, लेकिन उस ज़बान के लेखक, कवि या शाइर नहीं बन सकते। बनने वाले बन भी जाते हैं लेकिन अक्सर ज़बान बरतने में ग़लतियों का इमकान मौजूद रहता है।
इसे उर्दू की बद-क़िस्मती कहें कि क्या? कि उर्दू ज़बान दुनिया की वाहिद ज़बान होगी जो अपनी रस्मुल- ख़त से ज़ियादा दीगर रस्मुल-ख़त, देवनागरी, पंजाबी, गुजराती, बंगाली, मराठी वग़ैरा में लिखी जाती है। हम इस सच से भी नहीं मुकर सकते कि उर्दू कई ज़बानों का मुरक्कब है, जिसमें फ़ारसी, अरबी, तुर्की समेत और भी ज़बानों का असर है और उन ज़बानों के अल्फ़ाज़ का इस्ते’माल भी आम है। ख़ालिस उर्दू में आप नस्र, नज़्म, शाइरी कुछ भी ढूँढने जाएँगे तो आपको मायूसी होगी।
बह्स तो यूँ भी होती है, कि उर्दू को कोई ख़तरा नहीं। उर्दू हिन्दुतान में सबसे ज़ियादा बोली जाने वाली ज़बान है। उर्दू को तो अपना एक मुल्क मिल गया जिसे पाकिस्तान कहा जाता है। लेकिन हिन्दुस्तान की उर्दू का क्या? उर्दू पाकिस्तान में तो बनी नहीं थी। उर्दू जब पैदा ही हिन्दुतान में हुई हो तब उसके लिए ये कितनी शर्म की बात है कि मैं उर्दू का शाइर / लेखक उर्दू के मुतअल्लिक़ हर तहरीर देवनागरी में लिखने पर मजबूर हूँ। मैं ये नहीं कहता कि देवनागरी में लिखना मेरे लिए शर्म की बात है या देवनागरी से मुझे उतनी मुहब्बत नहीं जितनी नस्ता’लीक़ से है।
नहीं हरगिज़ नहीं !
मुझे जितनी मुहब्बत हिन्दी से है उतनी ही उर्दू से, लेकिन हर हाल में ये हम सबके लिए शर्म की बात है, अगर उर्दू को हम देवनागरी में पढ़ कर फ़ख़्र महसूस करते हैं।
बग़ैर रस्मुल-ख़त के किसी ज़बान का कोई वजूद नहीं होता। और अगर है, तो उसे ला-वजूद होने में एक-दो सदी से ज़ियादा का वक़्त नहीं लगता।
अगर मैं आपसे कहूँ:
‘अंसाब’ लफ़्ज़ ‘नसब’ की जमअ है। और फिर ये भी कि देवनागरी में अंसाब और नसब को लिखने का यही एक तरीक़ा है तिस पर ये भी कह दूँ कि उर्दू में दो अंसाब और दो नसब हैं और दोनों के मआनी मुख़्तलिफ़ हैं। फिर आप क्या कहेंगे?
एक अंसाब (انساب) और एक नसब (نسب) ऐसा है। और ऐसे में अंसाब का मतलब: ‘नसब-नामे या ‘वंशावलियाँ’ है और नसब का मतलब: ‘नसब-नामा’ या ‘वंशावलि’ है।
दूसरा अंसाब (انصاب) और दूसरा नसब (نصب) ऐसा है। और ऐसे में अंसाब का मतलब- ‘मुसीबतें’, ‘बहुत सारे दुःख’ है, और नसब का मतलब- ‘मुसीबत’ या ‘दुःख’ है।
पहला अंसाब (انساب) अलिफ़- अ (ا) नून- न (ن), सीन- स (س), अलिफ़- अ (ا) और बे- ब (ب) की तरतीब से मिल कर बना है।
पहला नसब (نسب) नून- न (ن), सीन- स (س) और बे- ब (ب) की तरतीब से बना है।
दूसरा अंसाब (انصاب) अलिफ़- अ (ا), सुआद- स (ص), अलिफ़- अ (ا) और बे- ब (ب) की तरतीब से बना है।
दूसरा नसब (نصب) नून- न (ن), सुआद- स (ص) और बे- ब (ب) की तरतीब से बना है।
अक़रब भी दो तरह के होते हैं।
अक़रब (اقرب) और अक़रब (عقرب)
देवनागरी में तो दोनों में कोई फ़र्क़ है न किसी तरकीब के ज़रीए इनमें कोई फ़र्क़ पैदा किया जा सकता है। तब बग़ैर उर्दू की रस्मुल-ख़त को सीखे आप इसकी शिनाख़्त कैसे कर पाएँगे कि जो अक़रब अलिफ़- अ (ا) से शुरूअ हुआ है उसके मआनी ‘क़रीब- तर’, ‘नज़्दीक-तर’ या ‘समीपतम’ के हैं और दूसरा अक़रब जो ऐन- अ (ع) से शुरूअ हुआ है, उसके मआनी बिच्छू या वृश्चिक राशि के हैं।
अज़्फ़र भी अगर दो हों फिर?
अज़्फ़र (ازفر) और अज़्फ़र (اظفر)
पहला अज़्फ़र (ازفر)- अलिफ़- अ (ا) ज़े- ज़ (ز), फ़े- फ़ (ف) और रे- र (ر) की तरतीब से बना है और इसका मतलब- ‘तेज़ ख़ुश्बू वाला’ होता है।
दूसरा अज़्फ़र (اظفر)- अलिफ़- अ (ا), ज़ोए- ज़ (ظ), फ़े- फ़ (ف) और रे- र (ر) की तरतीब से बना है और इसका मतलब- ‘बड़े- बड़े नाख़ूनों वाला’ होता है।
अगर एक अज़्म (عزم) का मतलब ‘पक्का इरादा’ या ‘दृढ़ निश्चय’ / ‘ख़्वाहिश’ या ‘इच्छा’ होता है, जो ऐन- अ (ع), ज़े- ज़ (ز) और मीम- म (م) की तरतीब से बनता है। और दूसरे अज़्म (عظم) का मतलब ‘बुज़ुर्गी’ या ‘महानता’ / ‘हड्डी’ या ‘अस्थि’ होता है, जो ऐन- अ (ع), ज़ोए- ज़ (ز) और मीम- म (م) की तरतीब से बनता है।
अस्ल भी दो होते हों?
एक अस्ल (اصل ) जिसका मतलब- ‘मूल’ (origin) होता है, जो अलिफ़- अ (ا), सुआद- स (ص) और लाम- ल (ل) की तरतीब से बनता है।
और दूसरा अस्ल (اثل) जिसका मतलब ‘झाउ का पेड़’ (Tamarix Dioica) होता है, जो अलिफ़- अ (ا), से- स (ث) और लाम- ल (ل) की तरतीब से बनता है।
अगर मैं लुग़त के इसी सफ़्हे पर ठहरा रहूँ और आपसे कहूँ कि ‘असीर’ पाँच तरह से लिखा जाता है और हर एक असीर के मआनी मुख़्तलिफ़ होते हैं।
अगर असीर (اثیر) है, तो इसका मतलब ‘गर्द या धूल’ होता है।
अगर असीर (اسیر) है, तो इसका मतलब ‘क़ैदी या बन्दी’ होता है।
अगर असीर (عسیر) है, तो इसका मतलब ‘अरक’ (Extract) होता है।
अगर असीर (عصیر) है, तो इसका मतलब भी ‘क़ैदी या बन्दी’ होता है।
और
अगर असीर (عسیر) है, तो इसका मतलब ‘मुश्किल या कठिन’ होता है।
(शुरूआती चारों असीर इस्म यानी संज्ञा यानी Noun हैं और आख़िरी यानी पाँचवाँ असीर विशेषण यानी Adjective है।)
फिर?
और अगर मैं ये कहूँ कि मैं अभी लुग़त के सिर्फ़ तीसवें सफ़्हे पर हूँ और अभी तक़रीबन 720 सफ़्हे बाक़ी हैं और हज़ारों ऐसे अल्फ़ाज़ बाक़ी हैं जिनको देवनागरी में एक ही तरह से लिखा जा सकता है। लेकिन उर्दू में उनका इमला मुख़्तलिफ़ है। तब मैं यक़ीन के साथ कह सकता हूँ, कि आप उर्दू की रस्मुल- ख़त सीखने की कोशिश ज़रूर करेंगे।
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