Waqt ke Paimane

वक़्त के पुराने पैमाने

वक़्त के साथ साथ चीज़ों के पैमाने भी बदलते रहते हैं। इन बदलावों के पीछे ज़रूरत और हालात की तब्दीलीयां कारफ़रमा होती हैं। परिवर्तन समय का विशेष गुण है और इस विशेषता से स्वयं समय भी अलग नहीं रहा है। अतः समय के साथ साथ समय नापने के पैमानों में भी बदलाव आता रहा है। समय को नापने की इंसान को सबसे पहले कब ज़रूरत पड़ी इस बारे में विश्वास से कुछ नहीं कहा जा सकता। फिर भी इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि समय को नापने का सिलसिला प्राचीन युग से जारी है, ये अलग बात है कि पहले ज़माने में आज की तरह समय को नापने का कोई समान वैश्विक पैमाना नहीं था। विभिन्न युगों और क्षेत्रों में इसके लिए विभिन्न पैमाने इस्तेमाल किए जाते रहे हैं।

प्राचीन भारत में एक दिन और एक रात की मुद्दत को (जो आजकल चौबीस घंटों पर आधारित है) साठ बराबर के हिस्सों में बाँटा जाता था जिन्हें घड़ी कहा जाता था। इस तरह आज के एतबार से एक घड़ी चौबीस मिनट की होती थी। एक घड़ी को पुनः साठ हिस्सों में विभाजित किया जाता था जिन्हें पल कहा जाता था जो आज के चौबीस सेकेण्ड के बराबर होता था। घड़ी और पल का यह विभाजन या चक्र इस कल्पना से बहुत भिन्न है जो आजकल हमारे ज़ेहनों में है। हम घड़ी और पल के ताल्लुक़ से उन दोनों से कहीं ज़्यादा अल्प समय तात्पर्य लेते हैं। अब सवाल ये उठता है कि घड़ी और पल को नापा किस तरह जाता था क्योंकि उस ज़माने में आज की तरह समय नापने के लिए मेकानिकी घंटे और घड़ियाँ तो थे नहीं। इसलिए उस ज़माने में घड़ी को नापने के लिए धातु का एक प्याला या कटोरा इस्तेमाल किया जाता था जिसके पेंदे में सुराख़(छेद) बना दिया जाता था। उस प्याले को पानी से भरे एक बर्तन में डाला जाता था जिसके बाद पेंदे में बने हुए सुराख़ से उसमें आहिस्ता-आहिस्ता पानी भरता रहता था, यहाँ तक कि उसमें ऊपर तक पानी भर जाता और वो पानी में डूब जाता। प्याले को पानी में डालने से उसके डूबने तक के मुद्दत को एक घड़ी माना जाता था। धातु से बने उस प्याले की गहराई बारह उंगल की होती थी और उसमें बने हुए सुराख़ का साइज़ इतना रखा जाता था कि वो वांछित समय में ही पूरा भर जाये। उल्लेखनीय बात ये है कि चौबीस मिनट के ठहराव को तो घड़ी कहते ही थे, पानी के उस छेदवाले प्याले को भी घड़ी कहते थे जिसे समय नापने के लिए इस्तेमाल किया जाता था।

दिल्ली के सुलतान फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ (शासनकाल सन् 1351 से 1388 ई.) ने चौदहवीं सदी के अंत में समय नापने के लिए ये पैमाना इख़्तियार किया। बाबर और अन्य मुग़ल बादशाहों ने भी फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ का अनुसरण किया। फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ के दौर में समय के ऐलान के ढंग में महत्वपूर्ण बदलाव ये हुआ कि नक़्क़ारों की जगह घड़ियाल ने ले ली। इस मक़सद से फ़िरोज़ शाह ने फ़िरोज़ आबाद (दिल्ली) में स्थित अपने महल में एक तास घड़ियाल स्थापित किया। (तास: पानी या शराब का प्याला, कूज़ा, कटोरा)। बाबर ने अपनी आत्मकथा “तुज़्क ए बाबरी” में तास घड़ियाल का विस्तार से वर्णन करते हुए लिखा है कि ये पीतल का एक बहुत बड़ा घंटा था जिसकी मोटाई दो उंगल थी। उसको किसी ऊंची जगह लटकाते थे और उसके नीचे पानी से भरी एक छोटी नाँद होती थी जिसे उसने “तास-ए-पुर आब” का नाम दिया और बताया कि किस तरह उसमें एक कटोरा डाल कर उसके भर जाने के बाद घड़ियाल बजाया जाता था। बाबर ने भी वक़्त के ऐलान का यही तरीक़ा जारी रखा लेकिन ये हुक्म भी दिया कि रात और दिन में घड़ियों के बजाने के बाद पहर का चिन्ह भी बजा करे ताकि लोगों को मालूम हो जाए कि कौनसे पहर की घड़ियाँ बजी हैं।

पहर भी वक़्त नापने का एक अहम पैमाना था। घड़ी और पल समय की छोटी छोटी इकाइयां थीं जो खगोल विद्या और ज्योतिष शास्त्र में तो बहुत उपयोगी थीं लेकिन जनसाधारण की रोज़मर्रा ज़िंदगी में इतनी उपयोगी नहीं थीं। उन्हें वक़्त के ज़्यादा बड़े पैमानों की ज़रूरत थी। इस मक़सद के लिए दिन और रात के चौबीस घंटों को आठ हिस्सों में विभाजित किया गया और हर हिस्से को पहर का नाम दिया गया। एक पहर आठ घड़ी यानी कम-ओ-बेश तीन घंटों पर आधारित होता था। इस तरह चार पहर दिन के और चार पहर रात के होते थे। घड़ी का दौरानिया हमेशा एक सा यानी चौबीस मिनट का होता था जबकि पहर का अन्तराल किसी स्थान के महल-ओ-वक़ूअ और वहाँ के मौसम के हिसाब से कम-ओ-बेश होता रहता था। इस सूरत में घड़ी और पहर में किस तरह अनुकूलता पैदा की जाती थी, उसके बारे में मालूमात के अभाव की वजह से विश्वास से कुछ नहीं कहा जा सकता। हर पहर के समाप्ति पर वक़्त के ऐलान के लिए नक़्क़ारे पर चोट पड़ती थी या नौबत बजाई जाती थी। सूर्योदय से मध्यान्ह तक दिन के दोपहर शुमार किए जाते थे इसलिए मध्यान्ह को दोपहर कहा जाता था।

दिन और रात के आठ-पहर इस तरह गिने जाते थे;

दिन के समय 6 बजे से 9 बजे तक सुबह
9 बजे से 12 बजे तक दिन का पहला पहर
दिन के समय 12 बजे से 3 बजे तक दोपहर
3 बजे से 6 बजे तक तीसरा पहर
रात के समय 6 बजे से 9 बजे तक शाम
9 बजे से 12 बजे तक रात का पहला पहर
12 बजे से 3 बजे तक आधी रात
3 बजे से 6 बजे तक पिछला पहर

सत्रहवीं शताब्दी में अंग्रेज़ों और वलनदीज़ियों ने भी हिन्दोस्तान में अपनी व्यापारिक चौकीयों में जिन्हें फ़ैक्ट्री कहा जाता था, वक़्त नापने के लिए पानी की घड़ियों का इस्तेमाल जारी रखा। उन्नीसवीं सदी के उतरार्ध में जब बर्तानवी हुकूमत का उपमहाद्वीप हिंद पर आधिपत्य स्थापित हो गया तो उन्होंने पानी की घड़ी की बजाय मेकानिकी घड़ियों के इस्तेमाल को क्रमशः विकसित किया। इसलिए उस वक़्त भी हर इलाक़े का अपना एक स्थानीय समय होता था और पूरे मुल्क में समय की समान व्यवस्था जारी नहीं थी। पूरे मुल्क में समय की समान व्यवस्था सन् 1905 में जारी किया गया और इसके लिए ग्रीन विच मीन टाइम को बुनियाद बनाया गया यानी ग्रीन विच मीन टाइम में साढे़ पाँच घंटे का इज़ाफ़ा करके हिन्दुस्तानी मानक समय तै किया गया जो आज भी पूरे हिन्दोस्तान में समान रूप से अपनाया जाता है।

समय की पुरानी व्यवस्था के तहत उर्दू में कई मुहावरे इस्तेमाल किए जाते थे जैसे, निस्वानी मुहावरा “आठ पहर सूली है” यानी हर वक़्त यातना या मौत और ज़िंदगी की कश्मकश है। इसी तरह “आठ पहर चौंसठ घड़ी” जिसका मतलब है हर समय, हर दम। पहर से सम्बंधित कुछ और मुहावरे इस तरह हैं;

आठ पहर मियान से बाहर रहना: हर वक़्त ग़ुस्से में भरा होना, लड़ने मरने पर मुस्तइद रहना , हर वक़्त लड़ाई पर आमादा रहना। (अमीर उल लुग़ात, १)

आठ आठ पहर जामे से बाहर रहना

आठ पहर काँव काँव

आठों पहर काल का डंका सर पर बजता है।

ऊपर पहर के संदर्भ में “आठ पहर चौंसठ घड़ी” का ज़िक्र आचुका है। इसके अलावा घड़ी पर कुछ कहावतें और मुहावरे इस तरह हैं;

अढ़ाई घड़ी की मौत आए।

ऐसी घड़ी की पड़ी कि फिर न उठी।

एक एक घड़ी एक एक बरस से ज़्यादा होना या (भारी)पहाड़ होना।

एक छवन्नी के आँचल में नून। घड़ी घड़ी रूठे मनावे कौन।

एक घड़ी की बेहयाई (एक की ना) सारे दिन का उधार।

पल पखवाड़ा, घड़ी महीना, चौगढ़े का साल। जिसको लाला कल कहें उसका क्या अहवाल।

लेकिन वक़्त के मौजूदा निज़ाम में ‘पहर’ का तसव्वुर न होने से ये मुहावरे अब चलन से बाहर हो कर महज़ किताबों या शब्दकोश की शोभा बन कर रह गए हैं।

इसलिए मुहावरों में न सही, शे’र-ओ-शायरी में पहर, घड़ी और पल का ज़िक्र आज भी प्रचलित है और आधुनिक युग के शायर भी प्राचीन शायरों की तरह ‘पहर’ को अब भी समय की अभिव्यक्ति के लिए इस्तेमाल करते हैं जिसके कुछ नमूने नीचे देखे जा सकते हैं;

अब क्या करें न सब्र है दिल को न जी में ताब
कल इस गली में आठ पहर ग़श पड़े रहे
मीर तक़ी मीर

ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे
तेरा मिलना भी जुदाई की घड़ी हो जैसे

अहमद फ़राज़

ग़ाफ़िल तुझे घड़ियाल ये देता है मुनादी
गिर्दों ने घड़ी उम्र की एक और घटा दी

नामालूम

तुमने निगाह फेर के देखा बस एक पल
उस एक पल में कितने ही मौसम चले गए

अमजद इस्लाम अमजद