महिला-दिवस के अवसर पर रेख़्ता की ख़ास पेशकश
सीरत-ए-फ़रज़ंद हा अज़ उम्महात
जौहर-ए-सिद्क़ो सफ़ा अज़ उम्महात
ये शे’र अल्लामा इक़बाल का है, क्या मा’नी हुये ? “बेटियों की सीरतें माॅंओं की आग़ोश में तैयार होती हैं, इंसानी फ़ितरत में सच्चाई और पाकीज़गी के जो जौहर हैं वो माॅंओं की ही तरबियत से चमकते हैं” | इक़बाल तलक़ीन देते हैं कि उनकी ख़िदमत करें ,उनके ना फ़रमान न बनें हमारा तर्ज़-ए-अमल, हमारी तर्ज़-ए-ज़िन्दगी इतनी ख़ूबसूरत होनी चाहिये कि लोग देखते रहें | आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है वैसे तो उनका कोई एक दिन मुक़र्रर नहीं है |
महिलाऍं आज बहुत से क्षेत्र में तरक़्क़ी कर रही हैं | ख़ासकर आज़ादी के बाद से चाहे वह महिला सशक्तिकरण की बात हो तो आज़ादी के बाद सरकारों ,महिला संगठनों और महिला आयोगों के प्रयासों से महिलाओं के लिए विकास के कई द्वार खुले उनमें शिक्षा का प्रचार जिससे उनके आत्मविश्वास में वृद्धि हुई | आज वे सियासत, समाजसुधार, ता’लीम, सहाफ़त, अदब, उद्योग, विज्ञान, ब्यूरोक्रेसी, सेना, डॉक्टरी आदि विभिन्न क्षेत्रों में पुरुषों के साथ बराबरी पर खड़ी हैं | ये बहुत उत्साह की बात है और इसके लिए सभी को बधाई पर जिनके त्याग से हमें ये सब चीज़ें मिलीं क्या हम उनको याद रखते हैं ? नहीं ! आज से मात्र १७५ साल पहले क्या हम ये तसव्वुर कर सकते थे कि महिलाऍं भी शासन, प्रशासन, सेना, वकालत, डॉक्टरी इन सब में आयेंगी |
१८४८ में माता सावित्रीबाई फुले ने अपने पति महात्मा ज्योतिबा फुले और फातिमा शेख़ की मदद से महिलाओं को ता’लीम देने का सफ़ल प्रयास किया | हमें ये तो याद रहता है अरे ! आठ दिन बाद से नौदुर्गा शुरू हैं, आज हरियाली तीज है, वग़ैरह वग़ैरह | हम बेगम एजाज़ रसूल को भूल जाते हैं, क्यूॅं हमें अरुणा आसिफ़ अली की याद नहीं रहती, क्यूॅं हमें फातिमा शेख़, माता सावित्रीबाई फुले, रमाबाई, झलकारी बाई, ताराबाई शिंदे, बेगम रुक़य्या, मुख़्तारन माई, अबाला बोस, शाह बानो की याद नहीं रहती और जब हमें इनकी याद नहीं रहती तो क्या हम आने वाली नस्लों को बता पायेंगे कि उनकी माँ सिर्फ़ जन्म देने वाली उनकी हयातिय्याती माॅं नहीं होती बल्कि फ़ातिमा शेख़, रमाई, झलकारीबाई, ताराबाई, तमाम माएँ भी हैं | जिनकी पूरी ज़िंदगी त्याग में गुज़र गयी, मेरी तरफ़ से उन सबको प्रणाम | हम एक ऊॅंचे ओहदे पर पहुॅंचकर सोचते हैं कि अरे हम से आगे कौन है अब | मैंने देखा है एक ता’लीम याफ़्ता भीड़ महिलाओं/लड़कियों से कह रही है कि चलो बुलावा आया है माता ने बुलाया है… हम ये क्यूॅं नहीं कहते कि माता ने नहीं बुलाया है यूनिवर्सिटी में पढ़ने चलिए वहाॅं बुलाया है | हम सफ़ल होने के बा’द मआशरे की जानिब पीछे मुड़कर क्यूॅं नहीं देखते कि हमें समाज को भी कुछ देना चाहिये |
लेकिन, दूसरी ओर ये भी समस्या है कि देश में लाखों महिलाऍं ग़रीबी और मज़लूमियत का शिकार हैं | ग़रीबी की सर्वाधिक मार झेल रही हैं ,चाहे वो जहेज़ की समस्या हो या दीगर, घरों से बाहर काम करने वाली महिलाऍं पुरुषों के समान और कभी कभी उनसे ज़्यादा कार्य करने के बावजूद भी बराबर मज़दूरी नहीं पातीं | जहेज़ की समस्या से तो हम सब वाकिफ़ हैं | एक वाक़या याद आता है देहातों में चलने वाली रस्म-ए-बखाला का | जब किसी की बेटी की शादी होती है तो उसको जो जहेज़ मिलता है, उसे एक चारपाई पर रख दिया जाता है फिर किसी शख़्स से कहा जाता है कि जाओ गाॅंव की सभी महिलाओं- बच्चियों को बुला लाओ कि हमारी बेटी का जहेज़ देख लें आकर | ज़ाहिर है, उसमें जवान बच्चियाॅं भी आती होंगी हम ये सब क्यों कर रहे हैं चुनाॅंचे कि कल चौपालों में तज़किरे होंगे चौधरी साहब ने अपनी बेटी को बीस लाख का जहेज़ दिया, फलाॅं साहब ने अपनी बेटी को १५ लाख का जहेज़ दिया | जिससे हमारी शान ऊॅंची होगी लोग जानेंगे बड़ा आदमी है | लेकिन इसके बावजूद तुमने ये न सोचा कि तुम्हारी बेटी का जहेज़ देखने उस मज़दूर की बेटी भी आयी थी जिसका बाप बुढ़ापे की उम्र में मज़दूरों वाले अड्डे पर मज़दूरी की तलाश में जाता है और बूढ़ा समझ कर कोई उसे क़ुबूल नहीं करता | वो लोगों से कहता है मुझे दस-बीस पचास रुपए कम दे देना लेकिन अपने साथ ले जाओ पर जब कोई नहीं ले जाता और जूॅं जूॅं धूप चमकती जाती है उसका दिल कह रहा होता है कि आज बच्चों से क्या कहूॅंगा, मैं वा’दा करके आया था कि तुम्हारे लिये कपड़े लाऊॅंगा और जब वो ख़ाली हाथ घर लौट रहा होता है, कोई जानता है उसके क़दम कितने बोझिल होते हैं | उस बेटी के दिल पे क्या गुज़र रही होती है (जिसे कोई इसलिए क़ुबूल नहीं कर रहा क्यूॅंकि वो ग़रीब की बच्चियाॅं हैं जहेज़ नहीं दे सकतीं ) कि काश मेरा बाप भी मुझे पाॅंच हज़ार नहीं तो ५०० रुपए का ही सूट दिलवा देता | कोई पैमाना है आपके पास उसकी पीड़ा को मापने का, उसका दिल कितना रोता होगा, आपने तो दाद वसूल करली लेकिन जो ज़ख़्म उसके कलेजे पे लगे उसका मदावा किसी के पास है | फ़िराक़ गोरखपुरी ने कभी कहा था ~
तारा टूटता सबने देखा…….ये न देखा एक ने भी
किसकी आँख से ऑंसू टपका किसका सहारा छूट गया !
या फिर मंज़र भोपाली ने भी कहा है ~
बाप बोझ ढोता था क्या जहेज़ दे पाता
इसलिए वो शहज़ादी आजतक कुॅंवारी है !
हॅंसती पलकों के नीचे ग़म भी पलते हैं जो हर किसी को दिखाई नहीं देते | चुनाॅंचे गुज़ारिश है कि ग़रीब की बच्चियों की ग़ुरबत का मज़ाक़ न बनाऍं | हमारे तो ये हाल हैं कि अगर हम किसी महिला की मदद करना चाहते हैं और उसे ५०० का नोट दे देते हैं या आटे का थैला देते हैं या अन्य दीगर सहायता करते हैं तो हज़ारों लोगों को दिखाते फिरते हैं | टीवी पर दिखाते हैं, इश्तिहार निकलवाते हैं, नेकी करते हैं दरिया में डालने की जगह फ़ेसबुक पे डालते हैं ताकि लोग जाने हम बड़े दानवीर हैं | अस्ल में हम इतने जाहिल हो गए हैं कि हमें अब उनकी इज़्ज़त-ए-नफ़्स तक का ख़याल नहीं है इस नुमाइश के दौर में अपने आप को प्रोमोट करने के लिए |
महिलाओं को घर में शारीरिक, नफ़्सियाती तौर पर विभिन्न रूपों में घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ रहा है | नतीजन महिलाओं का वजूद न केवल परिवार में बल्कि परिवार के बाहर मआशरे भी कमज़ोर हुआ है ,इसके पीछे कई वुजूहात हो सकती हैं | समाज में हलाला जैसी प्रथाऍं, चार विवाह बाक़ी और भी हैं | हलाला के बारे में तो मैंने बीते दिनों इंडिया टुडे की रिपोर्ट में पढ़ा कि क़ाज़ियों ने इसे एक धंधा बना लिया है | लोगों से पैसे लेकर किसी एजेंट के तहत ये सब करते हैं | उनकी समस्याऍं बहुत जटिल हैं लेकिन क्या किया जाए कौन किसकी सुनता है |
ताराबाई शिंदे के शब्दों में कहा जाए तो ~
“वे स्त्रियाॅं कौन हैं जिन्हें तुम ऐसे नाम देते हो ,गलियाॅं देते हो?तुम किसकी कोख से पैदा हुए थे? किसने नौ महीने तक अपने पेट में तुम्हारा दुर्वह बोझ उठाया था? वह कौन सा संत था जिसने तुम्हें उसकी आंखों का तारा बनाया था, …. तब तुम कैसा महसूस करोगे जब कोई तुम्हारी माॅं के बारे में कहेगा, उस बुढ़ऊ की माॅं,जानते हो,नरक का दरवाज़ा है | अथवा तुम्हारी बहन, अमुक व्यक्ति की बहन वह तो वास्तव में धोखे की पिटारी है’… क्या तुम चुपचाप बैठे बैठे वह गंदे शब्द सुन लोगे?… जब तुम थोड़ी सी पढ़ाई कर लेते हो और तरक़्क़ी पाकर किसी नए ऊंचे महत्वपूर्ण पद पर पहुँ च जाते हो तब फिर तुम्हें अपनी पहली पत्नी के लिए शर्म आने लगती है | तुम्हारे ऊपर धन दौलत का असर होने लगता है और तुम मन ही मन सोचते हो पत्नी है तो क्या फ़र्क पड़ता है ? क्या हम उन्हें हर महीने कुछ रूपल्ली देकर नौकर की तरह खाना पकाने या घर की देखभाल करने के लिए तुम उसे पैसा देते हो…. अगर तुम्हारे घोड़ों में से कोई एक घोड़ा मर जाए तो उसकी जगह दूसरा लाने में तुम्हें कोई देर नहीं लगेगी, और दूसरी पत्नी लाने में तो कोई ख़ास मेहनत नहीं करनी पड़ती | समस्या तो यह है कि यमराज को भी तो इतनी फ़ुर्सत नहीं मिलती कि वह जल्दी जल्दी पत्नियों को ले जाऍं, नहीं तो तुम एक दिन में कई पत्नियाॅं बदल लेते”
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था कि “स्त्री के दुःख इतने गंभीर होते हैं कि उसके शब्द उसका दशमांश भी नहीं बता सकते”
वो जिनके दम से है दुनिया में रौनक़
मु’अय्यन उनका कोई दिन नहीं है !
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