10 साल, 10 शायर
उर्दू के वसीअ दामन में पली-बढ़ी मुख़्लिफ़ असनाफ़-ए-सुख़न में ग़ज़ल के हिस्से में जो मक़बूलियत आई उतनी शोहरत और मक़बूलियत शायरी की किसी सिन्फ़ को न मिल सकी। ग़ज़ल हर दौर में अपने पढ़ने-सुनने वालों से नए रंग-ढंग, नए रूप में मिली। कभी इस पर तसव्वुफ़ का रंग ग़ालिब आया, तो कभी इश्क़-ओ-मुहब्बत के जज़्बात से सरशार नज़र आई। कभी तरक़्क़ी पसंद तहरीक से वाबस्तगी हुई और ग़ज़ल में सियासी और इंक़लाबी रंग-ओ-आहंग पैदा हुआ तो कभी ग़ज़ल अवामी मसाइल का जरीया-ए-इज़हार बन के सामने आई।
बहुत दूर न जा कर अगर हम गुज़िश्ता दस सालों का तजज़िया करें तो हमें हैरत-अंगेज़ मगर बहुत बारीक उतार-चढ़ाव बर्र-ए-सग़ीर की ग़ज़ल में देखने को मिलेंगे। हालाँकि अदब ऐसा मैदान नहीं कि जहाँ दस साल के छोटे से वक़्त में बहुत ज़्यादा तब्दीलियाँ नुमाया हो जाएँ। इसके लिए एक तवील अर्सा दरकार है। मगर फिर भी बा-ज़ाब्ता देखा जाए तो ये कुछ एक नुक़्ते नज़र आते हैं जिन्हें नज़र-अंदाज़ नहीं किया जा सकता। कई नए नाम हमारी नज़र से गुज़रेंगे जिन्होंने बीते दस सालों में उर्दू शायरी में किसी न किसी तौर से इज़ाफ़ा किया है। ये ग़ैर मामूली फ़ेहरिस्त काफ़ी तवील हो सकती थी, लेकिन हमने सिर्फ़ दस नामों का इंतेख़ाब किया है। हमारी फ़ेहरिस्त में अमीर इमाम, सालिम सलीम, तसनीफ़ हैदर, पूजा भाटिया, अभिषेक शुक्ला, विकास शर्मा राज़, मुइद रशीदी, इरशाद ख़ान सिकन्दर, स्वप्निल तिवारी और महेंद्र कुमार सानी शामिल हैं। ये ऐसे नाम हैं जिन्होंने गुज़िश्ता दस सालों में अदबी हल्क़ों में अपनी पहचान अपने मुनफ़रिद कलाम और मुख़्तलिफ़ लब-ओ-लहजे की वजह से बनाई है। इन सब का तअल्लुक़ हिन्दोस्तान से है। यक़ीनन पाकिस्तान और दीगर मुमालिक में भी ग़ज़ल और ग़ज़ल के शोअरा ने नए तौर से आमद-आमद की है, लेकिन यहाँ हम सिर्फ़ कुछ हिन्दोस्तानी शोअरा का ज़िक्र कर रहे हैं।
इन शोअरा के यहाँ आपको कहीं जदीदियत की सुगबुगाहट सुनाई देगी तो कहीं रिवायत का पक्का रंग दिखाई देगा। ज़बान-ओ-बयान में नए तज्रबात दिखाई देंगे तो किसी के यहाँ नए तशबीहात-ओ-इस्तेआरात बरतने की कामयाब कोशिश। किसी के यहाँ वुजूदियत की वुसअत का ऐतराफ़ या इंकार नज़र आएगा तो कहीं वुसअत-ए-कायनात को समेटने की कोशिश दिखाई देगी। कहीं जज़्बात-ओ-एहसासात के तज़ाद तो कहीं नफ़्सियात-ए-इंसानी की कश्मकश। कहीं ऐसे सवालात जिनका कोई एक माक़ूल जवाब नहीं है, तो कहीं ऐसे जवाबात जिनके लिए सवाल दरकार हैं।
मिसाल के तौर पर महेंद्र कुमार सानी के ये अशआर देखें,
जो हो रहा है वो भी कहाँ हो रहा है देख
सब कुछ हुआ रखा है गुमाँ हो रहा है देख
रौशनी के लफ़्ज़ में तहलील हो जाने से क़ब्ल
इक ख़ला पड़ता है जिस में घूमता रहता हूँ मैं
कभी दीवार लगती है मुझे ये सारी वुसअत
कभी देखूँ इसी दीवार में खिड़की खुली है
यहाँ वुजूद और उसकी कशमकश की उलझन और उसी कशमकश में ज़िन्दगी तलाशता हुआ कोई शख़्स आपको नज़र आएगा। सानी को ब-ग़ौर पढ़िए तो मालूम होता है कि ना-उमीदी के भेस में उम्मीद की किरन जगमगा रही है।
इसी कड़ी के दूसरे शायर सालिम सलीम हैं।
अब मिरा सारा हुनर मिट्टी में मिल जाने को है
हाथ उसने रख दिया है दीदा-ए-नमनाक पर
या इक ये शेर कि,
हुदूद-ए-शह्र-ए-तिलिस्मात से नहीं निकला
मैं अपने दायरा-ए-ज़ात से नहीं निकला
अभी तो ख़ुद पे मिरा इख़्तियार बाक़ी है
अभी तो कुछ भी मिरे हाथ से नहीं निकला
शायरी शायद इसी शह्र-ए-तिलिस्मात का नाम है, और सालिम अपने तिलिस्मी अंदरून को लफ़्ज़ों का जामा पहनाने में कामयाब नज़र आते हैं। उनकी शायरी इंसानी वुजूद की परतें खोलने की मश्क़ करती है। इश्क़-ओ-मुहब्बत के जज़्बात सालिम के यहाँ जब लफ़्ज़ों के पैकर में ढलते हैं तो ऐसे मंज़र बनते हैं जिन्हें ढलते सूरज के मंज़र की तरह देर तक निहारा जा सकता है।
यक़ीनन शायरी सिर्फ़ लफ़्ज़ों से खेलने का नाम नहीं बल्कि जज़्बात-ओ-एहसासात की मुसव्विरी का नाम है। मैं उसी मुसव्विरी की बात कर रहा हूँ जो आप ज़्यादातर देहली के क्लासिक शोअरा के यहाँ पाते हैं। या एहाम गोई के काफ़ी कम होने के बाद (सन 1800 ई के बाद) शोअरा के यहाँ नज़र आती है। लफ़्ज़ों में मंज़र भर देने की सलाहियत रखने वाले एक और शायर, अभिषेक शुक्ला का शेर मुलाहिज़ा फरमाएँ,
उस से कहना कि धुआँ देखने वाला होगा
आग पहने हुए जाउंगा मैं पानी की तरफ़
लेकिन ठहरिए, यहाँ महज़ एक मंज़र नहीं है, बल्कि एक सफ़र है जो इन्सानी वुजूद के पैकर में आने के साथ शुरू हो जाता है और निजात की तरफ़ बढ़ता रहता है। और इस सफ़र में होने वाले तमाम हंगामे महज़ वो धूल है जो मुसाफ़र के चलने से उड़ रही है। अभिषेक शुक्ला के यहाँ मा’नवी ऐतबार से नयापन नज़र आता है।
ग़ज़ल की ज़बान-ओ-बयान के तअल्लुक़ से अगर बात करें तो हमारे क्लासिक शोअरा के यहाँ कसरत से इस बात की पैरवी की गई है कि अपनी बात अपनी ज़बान में कहें। अमीर ख़ुसरो से ले के दौर-ए-जदीद तक ये तौर रहा, अब वो मीर हों कि ग़ालिब, दाग़ हों कि मोमिन। इन असातेज़ा से पहले या बाद के शोअरा भी इसी रिवायत के मानने वाले हैं कि जिस ज़बान में ख़त-ओ-किताबत कर रहे हैं या बात कर रहे हैं उसी ज़बान में शायरी भी करें। तरक्की पसंद तहरीक का असर ख़त्म होते-होते ये रिवायत भी दम तोड़ती सी नज़र आने लगी। शोअरा की एक बड़ी तादाद ये समझने लगी कि अच्छी शायरी का मतलब ये है कि वो बहुत सक़ील और मुश्किल ज़बान में हो। अरबी-फ़ारसी के मुश्किल अल्फ़ाज़, अरबी और फ़ारसी की मुश्किल तरतीबें शेर में हों तो वो ज़बान के ऐतबार से अच्छा शेर होगा।
लेकिन गुज़िश्ता दस सालों में हम देखते हैं कि ऐसे बहुत से नाम सामने आए जिन्होंने मीर-ओ-ग़ालिब की उस रिवायत को दोबारा ज़िन्दा किया जिस में शायर अपने मसाइल अपनी ज़बान और अपने लहजे में बयान करता है। कसरत से ऐसी ग़ज़लें कही गईं जो अवामी ज़बानों और मक़ामी बोलियों में हैं। इन ग़ज़लों में वही अल्फ़ाज़ और मुहावरे बरते गए जो हमारे आपके घरों में बोले जाते हैं।
तसनीफ़ हैदर ऐसे ही एक शायर का नाम है। तसनीफ़ के यहाँ ज़बान बहुत आसान और सलीस है। तसनीफ़ की शायरी का मुताला कीजे तो एहसास होता है कि उन्होंने अपने कुछ ऐसे ऊबड़-खाबड़ तज्रिबे शेर की शक्ल में ढाल दिए हैं कि जिनके मुताल्लिक़ आम तौर पर ये समझा जाता है कि इन तज्रिबात को शेर नहीं बनाया जा सकता, या उसकी ज़रूरत नहीं है। उनके कुछ अशआर देखिए,
हवस का हाल था कि उसको कर्फ़्यू में भी
नज़र जो आई तो इक लेडी कॉन्सटेबल ही
या एक ये शेर देखें कि,
दिल को हज़ार चीख़ने चिल्लाने दीजिए
जो आपका नहीं है उसे जाने दिजिए
अभिषेक, तसनीफ़ और उनके हम-असरों की शायरी अवामी मसाइल पर कहीं इशारों में तो कहीं खुल कर बात करती हुई नज़र आती है।
तरक़्क़ी पसंद तहरीक से क़ब्ल उर्दू ग़ज़ल पर या तो इश्क़िया मज़ामीन का ग़लबा था या फिर मुतसव्वुफ़ाना कलाम की धूम थी। गाहे ब गाहे ही सियासी रंग कहीं नज़र आता था। फिर तरक़्क़ी पसंद तहरीक ने ग़ज़ल को एक नया लिबास पहनाया। अब ग़ज़ल में सियासी-ओ-समाजी मुआमलात कसरत से बयान किए जाने लगे। मआशरे की ख़स्ता-हाली और ग़रीबों-मज़दूरों की हक़-तलफ़ी पर आवाज़ बुलन्द होने लगी। ग़ज़ल अब एक ख़ास क़िस्म के रम्ज़ में साँस ले रही थी।
और फिर एक वक़्त वो भी आया कि ग़ज़ल अपने पुराने रंग-रूप की तरफ़ वापस आने लगी। इश्तराकी फ़िक्र का असर शायरी में कुछ कम होने लगा।
यानी ग़ज़ल की शायरी में एक इंक़लाब सा बरपा हुआ और ये सैलाब एक वक़्त बाद ग़ुज़र भी गया। लेकिन अभी भी बहुत से ऐसे मसाइल थे जो ग़ज़ल की पहुँच से दूर थे। और वो मसाइल थे आदिवासियों के मसाइल, दलितों और पसमांदा क़ौमों के मसाइल, लड़कियों और औरतों के मसअले। फ़ेमिनिज़्म, नीहलिज़्म और एग्ज़िसटेन्शियलिज़्म जैसे और बहुत से मौज़ूआत और इनके इर्द-गिर्द घूमते इनसानी मसाइल। ये तमाम कमियाँ ग़ज़ल ने गुज़िश्ता दस-पंद्रह सालों में पूरी की हैं। हालाँकि क्लासिक उर्दू ग़ज़ल में ये तमाम मौज़ूआत कहीं-कहीं नुमाया हो जाते हैं लेकिन बाक़ायदगी के साथ ये पिछले दस-पंद्रह सालों में ही हुआ है।
और इस तग़य्युर-ओ-तबद्दुल ने स्वप्निल तिवारी जैसे शोअरा से सामना कराया। मुम्बई में मुक़ीम स्वाप्निल बड़े शहर में बोली जाने वाली आम ज़बान में शेर कहते हैं और ख़ास मसाइल की तरफ़ इशारा करते हैं।
दिन भर मैं इनकी निगरीनी करता हूँ
शब भर मेरे सपने जागा करते हैं
और मुहब्बत उनके यहाँ कुछ इस तरह होती है,
वो लौट आई है ऑफ़िस से हिज्र ख़त्म हुआ
हमारे गाल पे इक किस से हिज्र ख़त्म हुआ
गुज़िश्ता दस सालों में शेर कहने वालों में ख़वातीन की एक बड़ी तादाद शामिल हुई, जिन में एक तरफ़ बहुत कम उम्र की नौ-जवान लड़किया शामिल हैं तो दूसरी तरफ़ नौकरी-पेशा या घर पर काम करने वाली औरतें भी शामिल हैं। पूजा भाटिया का तअल्लुक़ भी मुम्बई से है और उर्दू के शेरी हल्क़ों में बहुत कम वक़्त में पूजा ने ख़ुद को साबित किया। बहुत फ़सीह-ओ-बलीग़ शेर कहती हैं। देखिए,
किस हुनर के मुज़ाहिरे में हो
तुम तो ख़ुद से मुक़ाबले में हो
और पढ़िए कि,
वो किसका है इस से क्या लेना देना
बाज़ दफ़ा काफ़ी है उसका होना भी
अब जिस शायर का ज़िक्र आ रहा उसकी शायरी में एक ख़ास क़िस्म का उस्तादाना रंग है। ग़ज़ल कहते हैं लेकिन कहीं-कहीं मरसिए का सा माहौल उनकी ग़ज़ल में बन जाता है। मीर अनीस की सी फ़साहत-ओ-बलाग़त कहीं नज़र आएगी तो कहीं मिर्ज़ा दबीर की सी मज़मून आफ़रीनी। देखिए,
शह्र में सारे चराग़ों की ज़िया ख़ामोश है
तीरगी हर सम्त फैला कर हवा ख़ामोश है
कैसा सन्नाटा था जिस में लफ़्ज़-ए-कुन कहने के बाद
गुम्बद-ए-अफ़लाक पर अब तक ख़ुदा ख़ामोश है
अमीर इमाम के यहाँ कहीं-कहीं बड़ी आसानी और चाबुक-दस्ती से एहसासत को बांधा जाता है, दिखिए…
धूप में कौन किसे याद किया करता है
पर तिरे शह्र में बरसात तो होती होगी
इसी कड़ी में एक नाम विकास शर्मा राज़ का भी है, विकास साहब की ग़ज़ल सह्ल-ए-मुमतना की बेहतरीन मिसाल है। बग़ैर किसी अरबी-फ़ारसी तरतीब के, हिन्दी या आम बोल-चाल की उर्दू ज़बान में शेर कहते हैं। आसानी में जो मुश्किल पेश आती है वो विकास के यहाँ नदारद है। उनका बेशतर कलाम पढ़ के यक़ीन होता है कि ये बात इतनी आसानी से कही जा सकती थी। मिसाल के तौर पर देखिए,
फ़क़त ज़ंजीर बदली जा रही थी
मैं समझा था रिहाई हो रही है
ज़मीन बेच के ख़ुश हो रहे हो तुम जिस को
वो सारे गाँव को बाज़ार करने वाला है
जुदाई का हमें इमकान तो था
मगर अब दिन मुकर्रर हो गया है
एक और सह्ल-ए-मुमतना का ही शायर जो हिन्दी और उर्दू हल्क़ों में बराबर मक़बूलियत रखता है। इरशाद ख़ान सिकन्दर के यहाँ अवाम की शायरी होती है, ऐसी शायरी जिसे हर उम्र का पढ़ने वाला किसी न किसी ज़ाविए से पसन्द करता है। कहीं ग़म-ए-रोज़गार ग़म-ए-इश्क़ पर ग़ालिब आता है तो कहीं इश्क़ का मसअला तमाम मसाइल का हल हो जाता है।
छाँव अफ़सोस दाइमी न रही
धूप का क्या रही रही न रही
आसरी छिन गया है जीने का
आस थी जो रही सही न रही
फ़ेहरिस्त इख़्तेताम की जानिब बढ़ रही है, और इस फ़ेहरिस्त का आख़िरी नाम मुईद रशीदी है। मुईद का कलाम तजस्सुस के दश्त में किसी हिरन की मानिंद फिरता है। कभी रुमूज़-ए-कायनात की गुत्थियाँ सुलझाने की कोशिश तो कभी उसी में फंस के निकलने की छटपटाहट नज़र आती है।
ये मोजिज़ा है कि मैं रात काट देता हूँ
न जाने कैसे तिलिस्मात काट देता हूँ
वो चाहते हैं कि हर बात मान ली जाए
और एक मैं हूँ कि हर बात काट देता हूँ
तिरा ख़याल ही अब मेरा इस्म-ए-आज़म है
इसी से सारे ख़यालात काट देता हूँ
हालांकि ये मुश्किल तरीन काम है कि किसी शायर का तआरुफ़ महज़ उसकी एक-आध ग़ज़ल या कुछ-एक अशआर से हो जाए। या उसकी शायरी के बारे में कोई पुख़्ता राए बना ली जाए लेकिन मैंने इन तमाम शोअरा का मुख़्तसर तआरुफ़ कराने की कोशिश की है। आप इन सब को रेख़ता की वेब-साइट पर उर्दू, देवनागरी और रोमन स्क्रिप्ट में पढ़ सकते हैं। इन शोअरा की किताबें भी रेख़ता बुक्स पर दस्तयाब हैं।
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