आइये! बनारस का हुस्न ग़ालिब की नज़र से देखते हैं
शायरी में दो चीज़ें जो ध्यान रखने की हैं वो हैं उन्हें पढ़ते हुए इस बात का ख़याल रखना कि शायर का ताल्लुक़ किस तहज़ीब से है। उर्दू या हिन्दुस्तान में होने वाली फ़ारसी शायरी पर ईरानी शायरी का बड़ा गहरा असर था और आज तक है ये तो दोस्त जानते ही हैं, मगर इसमें एक बड़ी चीज़ है मुबालग़ा-आराई। मुबालग़ा यानी ऐसा झूठ जो शायरी में हुस्न समझा जाता है। देखिये तो सब कुछ ही झूठ है, मगर आम ज़िन्दगी और शायरी के झूठ में अंतर ये होता है कि आम ज़िन्दगी में आदमी का झूठ बे-मज़ा, लचर या धोका-धड़ी के सिवा कुछ नहीं होता जबकि शायरी या अदब का झूठ दो चीज़ों के दरमियान एक रब्त पैदा करता है। इस्तिआरा, तश्बीह, तमसील या किनाया कुछ भी कह लीजिये। इन सब को लिखते वक़्त दरअसल शायर या अदीब एक ताल्लुक़ ही तो दरयाफ़्त करता है, यानी जब कोई कहता है कि ‘वो चेहरा चाँद जैसा है’ तो चाँद की सबसे नुमायाँ सिफ़त या ख़ूबी को अपने महबूब में दरयाफ़्त कर रहा होता है, फिर चाँद की चमक ही सब कुछ नहीं, रात में रौशनी के इस गोले से, जो ठंडक और सुकून पैदा होता है, ये जिस तरह समुन्दर में ज्वार पैदा करता है, इन तमाम बातों की शबाहत महबूब के चेहरे में भी होती है। पुरानी शायरी को आप इस्तिआरे की ज़िंदा शायरी कह सकते हैं उसकी वजह ये है कि जब उर्दू पैदा होने के अमल में थी तब नए इस्तिआरे और नए मुहावरे दोनों तेज़ी से पैदा हो रहे थे।
तख़लीक़ की इस दुनिया के बेताज बादशाह ‘ग़ालिब’ ने ऐसे में कलकत्ता का सफ़र किया, क्यों किया! ये आप सब जानते हैं, मगर वो रास्ते में कुछ जगहों पर रुकते भी गए, बांदा, लखनऊ और काशी या बनारस ऐसे ही मक़ामात हैं। जो लोग ग़ालिब के ख़तों को पढ़ चुके हैं, उसकी उर्दू-फ़ारसी शायरी का ठीक से अध्ययन कर चुके हैं, उन्हें ये बताने की ज़रुरत नहीं कि मिटती हुई दिल्ली और उजड़ती हुई दहलवी तहज़ीब से उसका लगाव ज़्यादा नहीं रह गया था। सर सय्यद अहमद ख़ाँ ने जब उनसे ‘आईन-ए-अकबरी’ की तक़्रीज़ लिखवानी चाही तो उन्हों ने कहा कि ऐसे दौर में जब अँगरेज़ क़ौम हवाओं पर चराग़ रौशन कर रही है, आप माज़ी के कुँए में झाँक रहे हैं। मीर मेहदी मजरूह को भी उन्हों कहा कि जिस दिल्ली पर इतना फ़ख्र करते हो, वो तो मिट गयी। उनका मशहूर जुमला है ‘हाए दिल्ली, वाए दिल्ली, भाड़ में जाए दिल्ली’…. इस बात से ये मतलब न निकालिएगा कि ग़ालिब दिल्ली से नफ़रत करते थे, ऐसा नहीं था मगर वो जानते थे कि दिल्ली की तहज़ीब और उसका प्रचार एक मस्नूई और नक़ली सी चीज़ है, दुनिया करवट ले रही है, ऐसे में नई तहज़ीबों का ख़ैर-मक़दम ज़रूरी है।
मुबालग़ा-आराई और दिल्ली के ताल्लुक़ से इस लम्बी-चौड़ी तम्हीद का एक मतलब ये है कि आप को ‘चराग़-ए-दैर’ के कुछ शेर सुनाने हैं। मैं अपने पढ़ने वाले को इतना भी ना-अहल नहीं समझता कि वो ये न जानता हो कि ‘चराग़-ए-दैर’ ग़ालिब की बनारस पर लिखी हुई मसनवी है। इस मसनवी में एक सौ आठ शेर हैं और ये फ़ारसी से सिर्फ़ उर्दू ही नहीं बल्कि संस्कृत, हिंदी,अंग्रेज़ी और बहुत सी दूसरी ज़बानों में तर्जुमा भी हो चुकी है। ख़ैर अब ग़ालिब के ये शेर इस मसनवी से बनारस की तारीफ़ में सुनिए और मेरी बात को इससे जोड़ कर देखिये:
ब-ख़ातिर दाराम ईनक दिल ज़मीने
बहार आईं सवाद ए दिल नशीने
(फूलों की इस सरज़मीन पर मेरा दिल आया है, क्या अच्छी आबादी है जहाँ बहार का चलन है)
कि मी आयद ब दावा गाह ए लाफ़श
जहानाबाद अज़ बहर ए तवाफ़श
(ये वो फ़ख्र करने वाली जगह है, जिसके चक्कर काटने ख़ुद दिल्ली भी आती है)
बनारस रा मगर दीदस्त दर ख़्वाब
कि मी गरदद ज़ नहरश दर दहन आब
(शायद दिल्ली ने बनारस को ख़्वाब में देखा है, तभी तो उसके मुंह में नहर का पानी भर आया है)
ये जिस नहर की बात यहाँ हो रही है, उसके लिए मालिक राम ने ‘गुफ़्तार-ए-ग़ालिब’ नामी किताब में ‘चराग़-ए-दैर’ नामी मज़मून में लिखा है कि ‘यहाँ नहर से मुराद सआदत अली ख़ाँ की नहर है, जो पुरानी दिल्ली चांदनी चौक के बीचों बीच फ़तहपुरी से लाल क़िले तक बहती थी, ये इस सदी (बीसवीं सदी) के आग़ाज़ तक मौजूद थी, जब 1911 में शाह जॉर्ज पंजुम की ताजपोशी का जश्न दिल्ली में होने वाला था तो उससे कुछ पहले 1910 में इसे बंद करने का फ़ैसला हुआ ताकि ये शहर में आज़ादाना आमद-ओ-रफ़्त और नक़्ल-ओ-हरकत के रास्ते में हाइल न हो।’ दिल्ली का बनारस के चक्कर काटना या तवाफ़ करना, उसके मुंह में बनारस को देख कर पानी आ जाना, बनारस की तारीफ़ भी हो रही है, दिल्ली की तंग-दामानी का बयान भी हो रहा है और साथ में शायरी का वो कमाल भी पहलू-ब-पहलू सफ़र कर रहा है, जो ग़ालिब की ख़ासियत है, अगर आप को लगता है कि बात बस इतनी है तो, नहीं, ग़ालिब ने दिल्ली से ही नहीं बनारस का मुक़ाबला चीन से भी कर डाला है, और चीन के हुस्न को भी उसके आगे हेच और बेकार ही क़रार दिया है। शेर सुनिए:
बनारस रा कसे गुफ़्ता कि चीन अस्त
हनूज़ अज़ गंग ए चीनश बर जबीन अस्त
यानी किसी ने बनारस को ख़ूबसरती में चीन के बराबर ठहरा दिया था, तबसे गंगा की मौज इसके माथे की चीन (शिकन) बनी हुई है। इसे कहते हैं रियाअत से काम लेना, ग़ालिब ने बनारस के बारे में जो बातें लिखी हैं, ज़ाहिर सी बात है कि अपने मुख़्तसर से क़याम में ही लिखी हैं, इसमें लोगों की सुनी-सुनाई भी ज़्यादा है। आँखों देखी तो वही है जिसमें वो बनारस के हसीन लड़कों बालों का ज़िक्र करते हैं, बाज़ार में उनकी चमक और उनकी चाल-ढाल, तौर-तरीक़े, इश्वा-ओ -अदा की तारीफ़ करते नहीं थकते हैं। ग़ालिब इतने अरसे वहां नहीं रहे थे, कि मौसमों के बारे में ऐसा दावा कर सकते कि दुनिया भर की सख़्त सर्दी और गर्मी में बहार अपना सामान लपेट कर काशी आ जाती है, इसी तरह उन्होंने बनारस के तीर्थ स्थलों का कितना दौरा किया इस बारे में पता नहीं, मगर वो बनारस की धार्मिक अहमियत को न सिर्फ़ समझते हैं बल्कि उस पर बड़े ख़ूबसूरत अशआर भी लिखते हैं, वो शेर सुनाने से पहले एक बात अर्ज़ करना चाहता हूँ। पता नहीं मालिक राम ने ये कैसे लिखा कि ग़ालिब ने काशी या बनारस की मज़हबी अहमियत या आवागवन या बनारस पर मरने पर मोक्ष मिलने की बातें शायद किसी से सुन-सुना कर लिखी हैं, मुझे हैरत इसलिए हुई क्यूंकि मालिक राम ग़ालिब पर तहक़ीक़ का बड़ा काम कर चुके हैं, बल्कि उन्होंने तो ‘गुफ़्तार-ए-ग़ालिब में उन सनातन रस्मों के बारे में लिखा है जो ग़ालिब के कलाम में मिलती हैं, मिसाल के तौर पर ये शेर:
लिखा करे कोई अहकाम ए ताला ए मौलूद
किसे ख़बर है कि वां जुम्बिश ए क़लम क्या है
इसमें जनम पत्री लिखने का जो ज़िक्र है, उसके बारे में ख़ुद मालिक राम ने एक जगह तफ़सील से लिखा भी है, और ग़ालिब इतना बे-ख़बर शख़्स नहीं था कि हिन्दुस्तान में रहते हुए, हिन्दू तहज़ीब और रस्मों से वाक़िफ़ ही न हो। ख़ुद हिन्दुओं के हुस्न की जो तारीफ़ ‘चराग़-ए-दैर में मिलती है, हम ज़ौक़ के यहाँ भी उसकी एक झलक देख चुके हैं और थोड़ा सा क्लासिकल उर्दू शेरी सरमाया खंगालने पर पता चल जाता है कि हिन्दुओं के हुस्न की तारीफ़ उर्दू की शेरी रिवायत का एक हिस्सा बन कर उभरी थी, वही हिन्दू, जिनको बाबर ने अपनी डायरी में बदसूरत और कम-क़ामत कहा था, उनका हुस्न उर्दू शायरों ने दरयाफ़्त ही नहीं किया बल्कि बड़ी ख़ूबी से बयान भी किया क्यूंकि वो ख़ुद भी उसी हुस्न की एक कड़ी ही तो थे, ज़ौक़ के जिस मशहूर शेर की तरफ़ मैंने इशारा किया वो ये है
ख़त बढ़ा, ज़ुल्फ़ें बढ़ीं, काकुल बढ़े, गेसू बढ़े
हुस्न की सरकार में जितने बढ़े, हिन्दू बढ़े
बहरहाल, अपनी बात ग़ालिब के इस एक शेर पर ख़त्म करूँगा, जिसे तमाम हिन्दुस्तानियों के लिए एक फ़ख़्र के तौर पर पढ़ना चाहिए, और बनारस के हुस्न को ग़ालिब की नज़र से देखते हुए इस अज़ीम विरसे को अपनी अगली नस्लों तक पहुँचाना चाहिए, ग़ालिब बनारस के बारे में कहते हैं
इबादत-ख़ाना-ए-नाक़ूसियानस्त
हमाना काबा ए हिन्दूस्तानस्त
यानी बनारस हम शंख-नवाज़ों का मंदिर है, हम हिन्दुस्तानियों का का’बा है।
शुक्रिया, तर्जुमे के कुछ हिस्से ज़ोए अंसारी और सरदार जाफ़री के यहाँ से लिए गए हैं।
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