शायरी से सम्बंधित ये ज़रूरी बातें सब को जानना चाहिए
अपने शागिर्दों को ये आम हिदायत है मिरी
कि समझ लें तह-ए-दिल से वो बजा-ओ-बेजा
दाग़ देहलवी अर्ज़ कर रहे हैं, कि इस क़ितआ में वो शाइरी के मुतल्लिक़ जो भी अच्छी-बुरी बातें आगे बताने जा रहे हैं, वो उनके शागिर्दों के लिए आम हिदायत (General instruction) है और वो इसे ठीक ढंग से सुन और समझ लें।
शेर-गोई में रहें मद्द-ए-नज़र ये बातें
कि बग़ैर इनके फ़साहत नहीं होती पैदा
वो कहते हैं कि आगे मैं आपको जो भी बताने-समझाने जा रहा हूँ उन तमाम बातों को ग़ौर से सुन लें क्यों कि इन सब बातों को जाने-समझे बग़ैर आप अच्छे शे’र नहीं कह पाएँगे। आपका बयान और ज़बान यूँही सी रहेगी उसमें कोई ख़ूब-सूरती, नया-पन और तख़्लीक़ी सलाहियत पैदा नहीं हो सकेगी।
चुस्त बन्दिश हो न हो सुस्त यही ख़ूबी है
वो फ़साहत से गिरा शे’र में जो हर्फ़ दबा
शे’र कहते हुए ऐसा भी नहीं करना है कि अरूज़ की तमाम बन्दिशों को सख़्ती से मानना है और न ऐसा भी कि मानना ही नहीं है। तख़्लीक़ी सहालियत को मद्दे- नज़र रखते हुए इस अमल को अंजाम देना है।
अरबी फ़ारसी अल्फ़ाज़ जो उर्दू में कहें
हर्फ़-ए-इल्लत का बुरा इन में है गिरना दबना
उर्दू शाइरी में अगर अरबी या फ़ारसी के अल्फ़ाज़ का इस्ते’माल करें तो इस बात की एहतियात बरतते हुए करें कि वहाँ हर्फ़-ए-इल्लत को न गिराएँ वर्ना इसको ऐब माना जाएगा।
हर्फ़-ए-इल्लत या’नी Vowel (स्वर की मात्रा), जैसे-सुनता, कही, बोलो वग़ैरा। यहाँ सुनता का ‘ता’, कही का ‘ही’ और बोलो का ‘लो’ हर्फ़-ए-इल्लत के शब्द हैं। चूँकि ये लफ़्ज़ हिन्दी या उर्दू के हैं लिहाज़ा यहाँ हर्फ़-ए-इल्लत का गिराना जाएज़ है। जैसे ‘सुनता’ का वज़्न 22 भी हो सकता है और 21 भी। इसी तरह से ‘कही’ का वज़्न 12 और 11 और बोलो का वज़्न 22 और 21 भी। ध्यान रखें कि ‘बोलो’ में ‘बो’ भी हर्फ़-ए-इल्लत है लेकिन उसकी इल्लत नहीं गिराई जाएगी क्यों कि किसी भी लफ़्ज़ के सिर्फ़ आख़िरी टुकड़े की इल्लत ही गिराई जा सकती है। पहले, दूसरे, तीसरे या चौथे की नहीं मसलन ‘आमादा’ में सिर्फ़ ‘दा’ लफ़्ज़ की इल्लत गिराई जा सकती है, ‘आ’, ‘मा’ की नहीं।
लेकिन अगर लफ़्ज़ ‘मौसीक़ी’ है जो कि ‘अरबी’ का लफ़्ज़ है, तो यहाँ ‘क़ी’ की इल्लत नहीं गिराई जा सकती।
अलिफ़- ए- वस्ल अगर आए तो कुछ ऐब नहीं
लेकिन अल्फ़ाज़ में उर्दू के ये गिरना है रवा
अलिफ़ वस्ल भी कोई ऐब नहीं और अगर वस्ल के अल्फ़ाज़ उर्दू के हों, तो वहाँ इल्लत का गिराना भी कोई ऐब नहीं।
जैसे: अब ऐसा= अबैसा, वज़्न- 122 और 121
जिस में गुंजलक न हो थोड़ी भी सराहत है वही
वो किनाया है जो तसरीह से भी हो औला
गुंजलक: या’नी गुथा हुआ या उलझा हुआ, या’नी शे’र में ख़याल साफ़-सुथरे ढंग से बयान होना चाहिए, जिसकी वज़ाहत आसानी से हो सके।
किनाया: या’नी शे’र में इशारे से बात करना, जैसे- ‘बर्ग झड़ने लगे हैं नरगिस के’ यहाँ खुला हुआ मआनी ये है कि नरगिस फूल की पत्तियाँ या कलियाँ झड़ने लगी हैं और दूसरा ये कि महबूब की आँखों से आँसू गिर रहे हैं।
और किनाया तभी बेहतर माना जाता है जब वो अपनी तफ़्सील से भी अच्छा हो।
ऐब-ओ-ख़ूबी का समझना है इक अम्र-ए-नाज़ुक
पहले कुछ और था अब रंग-ए-ज़बाँ और हुआ
शे’र में क्या ऐब है और क्या ख़ूबी है ये समझना नाज़ुक काम है। ज़बान और शाइरी का रंग हमेशा एक-सा नहीं होता लिहाज़ा कभी वही ऐब और कभी ख़ूब-सूरती में गिना जाता है, तो कभी ऐब में।
इस समझ के आने में सबसे कारगर अमल आपका मुतालआ है।
यही उर्दू है जो पहले से चली आती है
अहल-ए-देहली ने इसे और से अब और किया
इसी उर्दू का पहले कोई रंग था अब इसी उर्दू का कोई और रंग है और इसी उर्दू का कल कोई और रंग भी हो सकता है। अब तक की जो उर्दू है, उसका जो रंग है इसमें दिल्ली के अहल-ए-ज़बान का बहुत बड़ा हाथ है।
मुस्तनद अहल-ए-ज़बाँ ख़ास हैं दिल्ली वाले
इस में ग़ैरों का तसर्रुफ़ नहीं माना जाता
दाग़ आगे फ़रमाते हैं, कि दिल्ली के अहल-ए-ज़बान तस्दीक़-शुदा लोग हैं। वो उर्दू के हवाले से किसी और की नहीं सुनते-मानते।
जौहरी नक़्द-ए-सुख़न के हैं परखने वाले
है वो टकसाल से बाहर जो कसौटी न चढ़ा
कसौटी पर खरे उतरे हुए दिल्ली के अहल-ए-ज़बाँ अच्छी-बुरी शाइरी की ख़ासी पहचान रखते हैं। इसी लिए हम अपने लिए सनद हैं। हम किसी और की सनद नहीं मानते। हम उसे टकसाल (Mint) क्यों मान लें, जो कभी कसौटी पर चढ़ा ही न हो।
बाज़ अल्फ़ाज़ जो दो आए हैं इक मा’ना में
एक को तर्क किया एक को क़ाएम रक्खा
दिल्ली के अहल-ए-ज़बान ने कई मर्तबा ऐसा भी किया है, कि अगर एक ही मा’ना के दो लफ़्ज़ हैं, तो उनमें से एक को हमेशा के लिए तर्क या’नी छोड़ दिया और दूसरे का इस्ते’माल क़ाएम रखा।
तर्क जो लफ़्ज़ किया अब वो नहीं मुस्ता’मल
अगले लोगों की ज़बाँ पर वही देता था मज़ा
दाग़ कह रहे हैं, कि हमने जो लफ़्ज़ तर्क किया, जिसका इस्ते’माल हमने बन्द कर दिया वही लफ़्ज़ पहले के लोगों की ज़बान पर मज़ा भी देता था।
गरचे ता’क़ीद बुरी है मगर अच्छी है कहीं
हो जो बन्दिश में मुनासिब तो नहीं ऐब ज़रा
ता’क़ीद- या’नी इस तरह पर्दे में या इशारों में बात करना कि वो वाज़ेह न हो, समझ में न आए, किसी बात को बहुत ज़ियादा उलझा कर कहना या किसी जुमले में शब्दों का ऐसा उलट-फेर कर देना कि उसका मआनी समझने में मुश्किल पेश आए।
दाग़ फ़रमाते हैं, कि ता’क़ीद कहीं बुरी लगती है लेकिन उसे अगर अच्छी तरह से निभाया जाए तो अच्छी भी लगती है।
शे’र में हश्व-ओ-ज़वाएद भी बुरे होते हैं
ऐसी भरती को समझते नहीं शाइ’र अच्छा
या’नी शे’र में ऐसे अल्फ़ाज़ लिख देना जिनको हटा देने पर भी बात पर कोई फ़र्क़ न पड़ता हो। आसानी से समझें तो भर्ती के लफ़्ज़ शे’र में नहीं होने चाहिए।
जैसे- ‘मेरे नज़्दीक मेरे पास हो तुम’ यहाँ नज़्दीक और पास के मआनी एक ही हैं लिहाज़ा या तो नज़्दीक लफ़्ज़ का इस्ते’माल करें या पास का।
गर किसी शेर में ईता-ए-जली आता है
वो बड़ा ऐब है कहते हैं उसे बे-मअ’ना
‘ईता-ए-जली’ क़ाफ़िए का एक ऐब होता है। ‘जली’ या’नी स्पष्ट जो साफ़-साफ़ दिख जाए. इसी ऐब के मुताबिक़ ही ‘चलती, पलती, मलती’ जैसे क़वाफ़ी के साथ ‘करती, मरती, डरती’ जैसे क़वाफ़ी नहीं आ सकते।
वज्ह यह है कि ‘चल, पल, मल’ और ‘कर, मर, डर’ अपने आप में मुकम्मल अल्फ़ाज़ हैं जिनमें ‘ती’ जोड़कर उन्हें ‘चलती, पलती, मलती- करती, मरती, डरती’ बनाया गया है।
हम अगर इन तमाम अल्फ़ाज़ में से ‘ती’ हटा दें तो ‘चल का कर’ के साथ, ‘पल का मर’ के साथ और ‘मल का डर’ के साथ कोई तुक नहीं बनता क्यों कि यहाँ हर्फ़-ए-रवी कोई है ही नहीं-
आइए एक मिसाल से समझते हैं-
अपनी मर्ज़ी से चलती रहती है
ज़िन्दगी कुछ भी करती रहती है
यहाँ ईता-ए-जली का ऐब वाज़ेह है। और दाग़ भी अपने शे’र के हवाले से इस ऐब से बचने का मशविरा दे रहे हैं।
इस्तिआ’रा जो मज़े का हो मज़े की तश्बीह
इस में इक लुत्फ़ है इस कहने का फिर क्या कहना
शे’र में अच्छे-अच्छे रूपक गढ़ना,अच्छी-अच्छी उपमाएँ पिरोने से शे’र के हुस्न में इज़ाफ़ा होता है। उसे पढ़ कर लुत्फ़ आता है।
इस्तिलाह अच्छी मसल अच्छी हो बन्दिश अच्छी
रोज़-मर्रा भी रहे साफ़ फ़साहत से भरा
अरूज़ के तमाम क़ाएदे मानते हुए भी शे’र की ज़बान इतनी और इस तरह से साफ़ होनी चाहिए जैसे रोज़-मर्रा में हम बात करते हुए ज़बान बरतते हैं।
‘नहीं खेल अय दाग़ यारों से कह दो’
आम ज़बान में भी या नस्र की शक्ल में भी ये बात ऐसी ही लिखी जाएगी।
न कि
‘कि यारों से कह दो नहीं खेल ऐ दाग़’
है इज़ाफ़त भी ज़रूरी मगर ऐसी तो न हो
एक मिसरे में जो हो चार जगह बल्कि सिवा
दाग़ शे’र के एक मिसरे में इज़ाफ़त का इस्ते’माल तीन बार से ज़ियादा करने को अच्छा नहीं कह रहे इस ऐब को ‘तवालि-ए-इज़ाफ़त’ के नाम से जाना जाता है।
जैसे: ‘तारीकी-ए-शब-ए-हिज्र-ए-यार’, यहाँ इज़ाफ़त तीन मर्तबा लगाई गई है इससे ज़ियादा इज़ाफ़त लगाना ‘तवालि-ए-इज़ाफ़त’ का ऐब कहलाता है।
अत्फ़ का भी है यही हाल यही सूरत है
वो भी आए मतवातिर तो निहायत है बुरा
अत्फ़ या’नी दो या दो से ज़ियादा इस्मों को ‘ओ’ के इस्ते’माल से जोड़ना।
जैसे: दिल-ओ-जान, । दाग़ इज़ाफ़त की तरह अत्फ़ का इस्ते’माल भी तीन बार से ज़ियादा करने को अच्छा नहीं कह रहे हैं।
लफ़्फ़-ओ-नश्र आए मुरत्तब वो बहुत अच्छा है
और हो ग़ैर-मुरत्तब तो नहीं कुछ बेजा
शे’र में लफ़्ज़ की तरतीब नस्र की मानिन्द हो, यानी ऊपर जो तालाज़िमे दर्ज हों उसी हिसाब से दूसरे मिसरे में भी हो तो बहुत ही अच्छा है अगर नहीं भी है, तो भी बहुत बुरा नहीं है।
शेर में आए जो ईहाम किसी मौक़े पर
कैफ़ियत उस में भी है वो भी निहायत अच्छा
ईहाम- या’नी वह’म पैदा करना या’नी इसे हम एक क़िस्म का अर्थ-अलंकार कह सकते हैं जहाँ एक लफ़्ज़ ऐसा होता है जिसके दो मआनी होते हैं और वहाँ उसका नज़्दीकी मआनी न निकाल कर दूर का मआनी निकाला जाता है।
दाग़ कहते हैं अगर आप शे’र में ऐसा कर पाते हैं, तो ये निहायत ख़ूब- सूरत अमल है।
जो न मर्ग़ूब-ए-तबीअत हो बुरी है वो रदीफ़
शे’र बे-लुत्फ़ है गर क़ाफ़िया हो बे-ढँगा
शे’र का रदीफ़ और क़ाफ़िया ख़ुश-गवार नहीं है और पढ़ने-सुनने में अच्छा नहीं लग रहा है, तो ऐसे में शे’र का लुत्फ़ जाता रहेगा।
एक मिसरे में हो तुम दूसरे मिसरे में हो तू
ये शुतुर-गुर्बा हुआ मैंने इसे तर्क किया
शुतुर-गुर्बा या’नी ऊँट बिल्ली की जोड़ी। शाइरी में ये एक ऐब की मानिन्द पढ़ाया जाता है। इस ऐब की एहतियात इतनी-सी है कि अगर ‘सब्जेक्ट’ ‘मैं’ से मुख़ातिब है, तो वो आगे अपने लिए ‘मेरा’, ‘मुझे’, ‘मेरे’ वग़ैरा ही इस्ते’माल कर सकता है न कि ‘हमारा’, ‘हमें’, ‘हमारे’ और ‘ऑब्जेक्ट’ अगर ‘तू’ से मुख़ातिब है, तो उसके लिए शे’र में आगे ‘तेरा’, ‘तुझे’ जैसे अल्फ़ाज़ इस्ते’माल होंगे न कि ‘तुम्हारा’, ‘तुम्हें’ वग़ैरा।
चन्द बहरें मुतआ’रिफ़ हैं फ़क़त उर्दू में ‘
फ़ारसी में अरबी में हैं मगर इन से सिवा
अरूज़ में बह’र-ए-वाफ़िर के इलावा भी चन्द बहरें ऐसी शामिल हैं, जो अरबी और फ़ारसी ज़बान के लिहाज़ से तो मुनासिब हैं लेकिन उर्दू ज़बान के लिए नहीं।
शे’र में होती है शाइ’र को ज़रूरत इस की
गर अरूज़ उसने पढ़ा वो है सुख़न-वर दाना
शाइरी करने के लिए अरूज़ (छन्द शास्त्र) का इल्म होना बे-हद ज़रूरी है और जिसे इसका अच्छा इल्म है वही अच्छा शाइर कहलाता है।
मुख़्तसर ये है कि होती है तबीअत उस्ताद
देन अल्लाह की है जिस को ये ने’मत हो अता
और अरूज़ का इल्म इस लिए भी होना चाहिए कि इससे आपकी तबीयत में उस्तादी पैदा होती है।
बे-असर का नहीं होता कभी मक़्बूल कलाम
और तासीर वो शय है जिसे देता है ख़ुदा
दाग़ कहते हैं अगर आप मेरी बातों पर ग़ौर नहीं कर रहे हैं, तो जान लीजिए कि ऐसे बे-असर लोग शे’र नहीं कह पाते। कह भी लें, तो उन शे’रों की अवाम के दरमियाँ कोई क़ीमत नहीं रहती। दाग़ दोबारा समझाते हुए कहते हैं:
शाइरी का फ़न शे’र कहने की सलाहियत ऊपर वाला अता करता है लेकिन उसकी रियाज़त उसकी बेहतरी का शग़्ल आपके अपने ज़िम्मे होता है।
गरचे दुनिया में हुए और हैं लाखों शाइ’र
कस्ब-ए-फ़न से नहीं होती है ये ख़ूबी पैदा
दाग़ कहते हैं:
मैं मानता हूँ, कि दुनिया में लाखों शाइर हैं लेकिन एक बात ज़ेहन में बैठा लीजिए कि ख़ुद को शाइर मान लेने से आप शाइर नहीं हो जाते।
सय्यद-‘अहसन’ जो मिरे दोस्त भी शागिर्द भी हैं
जिन को अल्लाह ने दी फ़िक्र-ए-रसा तब-ए-रसा
शे’र के हुस्न-ओ-क़बाएह जो उन्हों ने पूछे
उन की दरख़्वास्त से इक क़ितआ ये बरजस्ता कहा
पन्द -नामा जो कहा ‘दाग़’ ने बे-कार नहीं
काम का क़ितआ है ये वक़्त पे काम आएगा
दाग़ कह रहे हैं, कि मेरे अज़ीज़ दोस्त और शागिर्द सय्यद अहसन मारहरवी को अल्लाह ने बड़ा होनहार बनाया है जब उन्होंने मुझसे शे’र के हुस्न और क़बाएह के मुताल्लिक़ कुछ सवाल अर्ज़ किए, तो मैंने उन्हीं के कहने पर बरजस्ता (फ़ौरन, तुरन्त के तुरन्त) ये क़ितआ कह डाला।
दाग़ कहते हैं ‘पन्द नामा’ उन्वान पर लिखा ये क़ितआ अहल-ए-सुख़न के काम का है। हमेशा काम आने वाला है।
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