Jagjit Singh

जगजीत सिंह: एक याद

हिन्दोस्तानी मौसीक़ी एक तवील वक़्त से आसमान की बुलन्दी पर छाई हुई है। इसकी अहम वजह यहाँ के क़दीम रिवायात का बने रहना है। हर एक मिज़ाज के लिए मुख़्तलिफ़ राग हमारी मौसीक़ी में शामिल हैं, चाहे वो राग पहाड़ी, भीम पलासी, माल कोश हो या अहीर भैरव। इन सभी के साथ साथ ग़ज़ल का दौर भी आता है, जिस ने उर्दू शायरी और ग़ज़ल गायकी को एक नया मक़ाम अता किया। आज इसके चाहने वालों की तादाद पहले से ज़ियादा बढ़ती नज़र आ रही है। ये बात पूरे यक़ीन के साथ कही जा सकती है कि उर्दू ग़ज़ल की रौशनी मुस्तक़बिल में हर किसी के दिल तक जा पहुँचेगी। ग़ज़ल गायकों में वैसे तो बहुत बड़े बड़े नाम हुए हैं, लेकिन इसको एक नया आहंग देने में जगजीत सिंह का बेहद अहम योगदान है। ग़ज़ल गायकी में पहली बार गिटार, वायलिन जैसे साज़ों का इस्तिमाल करके एक नया रूप पैदा करना ये सिर्फ़ जगजीत सिंह के बस की ही बात थी। उन्होंने वाक़ई उर्दू शायरी और उर्दू ग़ज़ल को वो मक़ाम दिया है जो उसे मिलना चाहिए था। उनके और उर्दू के चाहने वाले ये बात कभी नहीं भूल सकते।

जगजीत सिंह 8 फ़रवरी 1941 को ‛‛गंगा नगर’’ बीकानेर (राजस्थान) में पैदा हुए। उनके बचपन का नाम जगमोहन था जिस को बाद में बदल कर जगजीत कर दिया गया। उन की वालिदा का नाम ‛‛बच्चन कौर’’ और वालिद का नाम ‛‛सरदार अमर सिंह’’ था। अपने स्कूल से ही उन्होंने गाने गाना शुरू कर दिया था, फिर बाद में डी.ए.वी. कॉलेज जालंधर में पहुँचने पर भी ये सिलसिला जारी रहा।

बम्बई का विक्टोरिया टर्मिनस, ये वही स्टेशन है जहाँ 1965 में जगजीत सिंह ने पठानकोट एक्सप्रेस से नीचे उतर कर क़दम रखा था। जगजीत सिंह दूसरी बार बम्बई आ रहे थे, पहली बार से ज़ियादा हसरतों को साथ ले कर। दूसरी बार बम्बई आने के कारण वो इस शहर से आश्ना हो चुके थे। एल्फिंस्टन रोड स्टेशन के पास कमरा ले कर रहने लगे, लेकिन बम्बई जो जल्दी से किसी को जगह नहीं देता, इम्तिहान लेता है हर शख़्स के सब्र का, जो जीत जाता है बम्बई के दामन में अपनी जगह पा लेता है। जगजीत सिंह को भी दिक़्क़तें पेश आईं किसी कारण से उन्हें कमरे से निकाल दिया गया।

यहाँ वहाँ हाथ-पाँव मारने के बाद उन्हें अग्रीपाड़ा (साउथ बम्बई) के शेर-ए-पंजाब होस्टल में ठिकाना मिला। इलाक़ा गंदगी से लबरेज़ था, साफ़ सफ़ाई का तो सिर्फ़ तसव्वुर ही किया जा सकता है। जगजीत सिंह शाम के वक़्त चर्च गेट का सफ़र करते थे अपने काम के लिए यहाँ उन्हें सुभाष घई जो कि जगजीत के पुराने दोस्त थे, अक्सर मिला करते थे। एशियाटिक जो कि रेस्तरां था वहाँ जा कर चाय पीते, ख़ूब बातें करते पटरियों पर घूमा करते थे। मिस्टर बेरी जो रेस्तरां के मालिक थे जगजीत की गायकी से वाक़िफ़ थे,तो वह उन्हें फ़्री में खिला पिला दिया करते थे। कोशिश करते हुए उन्हें कभी क्लब,महफ़िल में गाने का मौक़ा मिला और वह गाने लगे हम और आप तो अच्छी बल्कि बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि जगजीत सिंह कैसा गाते थे तो इस बात को कैसा और किन लफ़्ज़ों में लिखा जा सकता है।

जिमी नरूला जो एच.एम.वी में काम करते थे, बैठकों में भी शामिल होते थे। उन्होंने ऑडिशन का इंतज़ाम करवाया। अब तक जगजीत सिंह को बम्बई रहते हुए छह माह गुज़र चुके थे।

एच. एम. वी के लिए रिकॉर्ड की गई एक ग़ज़ल, जिस ने जगजीत सिंह के मक़ाम को कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया। उसी ग़ज़ल से कुछ अशआर

अपना ग़म भूल गए तेरी जफ़ा भूल गए
हम तो हर बात मोहब्बत के सिवा भूल गए

शुक्र समझो या इसे अपनी शिकायत समझो
तुम ने वो दर्द दिया है के दवा भूल गए

फ़ारूक़ क़ैसर

जगजीत सिंह ने उर्दू के कई बड़े शायरों की ग़ज़लों को आवाज़ दी है, जिन में ‛‛मिर्ज़ा ग़ालिब’’ ‛‛बशीर बद्र’’ ‛‛फ़ैज़ अनवर’’ ‛‛अमीर मीनाई’’ ‛‛कैफ़ी आज़मी’’ ‛‛निदा फ़ाज़ली’’ ‛‛कँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर’’ शामिल हैं।

आए हैं समझाने लोग
हैं कितने दीवाने लोग

दैर-ओ-हरम में चैन जो मिलता
क्यूँ जाते मयख़ाने लोग

अब जब मुझ को होश नहीं है
आए हैं समझाने लोग

कँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर

मिर्ज़ा ग़ालिब की एक ग़ज़ल देखें जिसे जगजीत सिंह ने आवाज़ दी थी।

बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे

मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तिरे पीछे
तू देख कि क्या रंग है तेरा मिरे आगे

ईमाँ मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र
काबा मिरे पीछे है कलीसा मिरे आगे

गो हाथ में जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है
रहने दो अभी साग़र-ओ-मीना मिरे आगे

निदा फ़ाज़ली की एक ग़ज़ल देखें जिस को आवाज़ जगजीत सिंह ने दी थी

होश वालों को ख़बर क्या बे-ख़ुदी क्या चीज़ है
इश्क़ कीजे फिर समझिए ज़िन्दगी क्या चीज़ है

उन से नज़रें क्या मिलीं रौशन फ़ज़ाएँ हो गई
आज जाना प्यार की जादूगरी क्या चीज़ है

बिखरी ज़ुल्फ़ों ने सिखाई मौसमों को शाइरी
झुकती आँखों ने बताया मय-कशी क्या चीज़ है

हम लबों से कह न पाए उन से हाल-ए-दिल कभी
और वो समझे नहीं ये ख़ामोशी क्या चीज़ है

जगजीत सिंह की मादरी ज़बान पंजाबी है। वो पंजाबी और उर्दू दोनों ज़बानों में बात किया करते थे। उन्होंने उर्दू के साथ साथ इस ज़बान में भी अपनी काफ़ी ग़ज़लें गाई हैं जो कि बेहद मक़बूल हुईं एक ग़ज़ल देखें

मैनु तेरा शबाब लै बैठा
रंग गोरा गुलाब लै बैठा

किन्नी पित्ती ते किन्नी बाक़ी ऐ
मैनु ऐहो हिसाब लै बैठा

चंगा हुन्दा सवाल ना करदा
मैनु तेरा जवाब लै बैठा

तर्जुमा

मुझ को तेरा शबाब ले बैठा
रंग गोरा गुलाब ले बैठा

कितनी पी और कितनी बाक़ी है
मुझ को ये हिसाब ले बैठा

अच्छा होता सवाल न करता
मुझ को तेरा जवाब ले बैठा

जगजीत सिंह पग बँधते थे, उन के केश और दाढ़ी थी, ग़ज़ल की रिलीज़ के वक़्त जब जगजीत सिंह की तस्वीर माँगी तो उन्होंने इस बात का पक्का फ़ैसला किया कि वह केश और दाढ़ी कटवाएँगे और इस फ़ैसले पर वो आख़िरी वक़्त तक रहे।

भारत सरकार की तरफ़ से जगजीत सिंह को साल 2003 में ‛‛पद्म भूषण’’ अवार्ड से नवाज़ा गया था।

साल 2011 में जगजीत सिंह को यू के में परफॉर्म करना था, लेकिन कोई बीमारी हो जाने की वजह से उन्हें मुंबई वापस आना पड़ा। मुम्बई के लीलावती अस्पताल में भर्ती कराया गया। हालत बिगड़ती चली गई जिस के चलते 10 अक्टूबर 2011 को उन का इंतिक़ाल हो गया।