Nazeer Akbarabadi

नज़ीर अकबराबादी: देसी मिट्टी की ख़ुश्बू

दुनिया में पादशह है सो है वो भी आदमी
और मुफ़्लिस-ओ-गदा है सो है वो भी आदमी
ज़रदार-ए-बे-नवा है सो है वो भी आदमी
ने’मत जो खा रहा है सो है वो भी आदमी
टुकड़े चबा रहा है सो है वो भी आदमी

ये नज़ीर अकबराबादी की नज़्म का एक बंद है। जिस वक़्त दिल्ली की शाइरी उरूज पर थी जब मीर कह रहे थे ~

आगे किसू के क्या करें दस्तेतमअ’ दराज़
ये हाथ सो गया है सिरहाने धरे-धरे

या फिर सौदा , मुसहफ़ी और जुरअत कह रहे थे ~

तन्हा न रोज़े हिज्र है ‘सौदा’ पे ये सितम
परवाना साॅं विसाल की हर शब जला करे

‘मुसहफ़ी’ हम तो ये समझते थे के होगा कोई ज़ख़्म
तेरे दिल में तो बहुत काम रफ़ू का निकला

उलझी सुलझी ज़ुल्फ़ें हैं और कान में टेढ़ा बाला है ‘जुरअत’ हम पहचान गए कुछ दाल में काला काला है,

तक़रीबन उसी वक़्त आगरा में वली मोहम्मद नाम के ये गुमनाम शाइर अवाम के गीत गा रहे थे। कभी ककड़ी खीरा बेचने वाले के लिए नज़्म लिख देते तो कभी लड्डू बेचने वाले के लिए इस से ये हुआ कि लोग इन्हें बाज़ारी शाइर कहने लगे। पूरा नाम शेख़ वली मोहम्मद था लेकिन नज़ीर अकबराबादी के नाम से शोहरत पायी । इनका जन्म दिल्ली में 1735 के आसपास शेख़ मुहम्मद फ़ारूक़ के घर हुआ ।

1757 में यहाॅं का शासक आलमगीर सानी था । इसी वक़्त जनवरी के आख़िर में जब दिल्ली पर अहमद शाह अब्दाली का हमला हुआ । दिल्ली बुरी तरह उजड़ी तो यहाॅं कुछ न बचा ,कई लोग बेघर हो गए और उसकी लूट का आलम यह था कि पंजाबी में एक जुमला मशहूर हो गया था ~

खादा पीत्ता लाहे दा, रहंदा अहमद शाहे दा

यअनी जो खा लिया पी लिया और तन को लग गया वो ही अपना है, बाक़ी तो अहमद शाह लूट कर ले गया। इस हमले का नज़ीर पर भी असर हुआ । नज़ीर अपनी वालिदा के साथ अकबराबाद (आगरा) मुन्तक़िल हो गए और यहीं के एक पुराने मुहल्ले में मुक़ीम हुए । ये वो इलाक़ा था जहाॅं राधा – कृष्ण की मुहब्बत के अफ़साने आम थे तो दूसरी तरफ़ अवाम के लबों पर सूरदास के गीत और मीराबाई के भजन थे । यहाॅं नज़ीर ने एक मकतब से अरबी और फ़ारसी की ता’लीम हासिल की । घर में माली आसूदगी थी नहीं सो यहीं से शे’र कहने की तरफ़ तबीअत माइल हुई और अपना रास्ता ख़ुद बनाया । नज़ीर ने क़सीदा,रूबाई, मसनवी,मुसद्दस,ग़ज़ल ,नज़्म और क़िता हर सिन्फ़-ए-सुख़न में तब’अ- आज़माई की लेकिन जो शोहरत उन्हें नज़्म से मिली वो किसी भी सिन्फ़-ए-सुख़न से न मिली । यही वज्ह है कि उन्हें नज़्म का ‘पिता’ तस्लीम किया जाता है। इनके बाद जो नज़्म के शाइर गुज़रे उनमें मौलाना हाली, अकबर इलाहाबादी, इस्मा’इल मेरठी, इक़बाल, जोश, फ़ैज़, राशिद, मीरा जी, अख़्तर-उल-ईमान, मख़दूम, ज़ाहिद डार और ज़ीशान साहिल वग़ैरह वग़ैरह ।

नज़ीर अवाम के सबसे बड़े शाइर थे लेकिन अवाम के साथ वो ख़वास के भी शाइर थे। अब कुछ शे’र देखें ~

भुला दीं हम ने किताबें कि उस परी-रू के
किताबी चेहरे के आगे किताब है क्या चीज़!

था इरादा तिरी फ़रियाद करें हाकिम से
वो भी ऐ शोख़ तिरा चाहने वाला निकला

नज़ीर के यहाॅं बाबा ख़ुसरो और कबीर का भी रंग दिखता है। जब वो ये कहते हैं ~

यह तन जो है हर एक के उतारे का झोंपड़ा
इससे है अब भी, सबके सहारे का झोंपड़ा
इससे है बादशाह के नज़ारे का झोंपड़ा
इसमें ही है फ़क़ीर, विचारे का झोंपड़ा
अपना न मोल का न इजारे का झोंपड़ा
‘बाबा’ यह तन है दम के गुज़ारे का झोंपड़ा

नज़ीर दरवेश क़िस्म के इंसान थे। फ़रहतउल्लाह बेग लिखते हैं नज़ीर की वज़’अ – क़त’अ सादा थी। एक पगड़ी,नीचे चोली,उसके नीचे कुर्ता,एक पजामा, जूती,हाथ में छड़ी । उनका रंग गेंहुआ ,क़द मियाना,पेशानी ऊॅंची, आँखें चमकदार,दाढ़ी ख़शख़शी थी। उन्हें कई ज़बानों पर उबूर हासिल था ~

अरबी, फ़ारसी,पंजाबी,उर्दू,ब्रज,अवधी
वग़ैरह वग़ैरह ।

एक बार भरतपुर के किसी नवाब ने अशर्फ़ियों की भरी थैली अपने मुलाज़िम के ज़रिये नज़ीर के पास भेजी और कहा आप हमारे दरबार में चलकर रहें , लेकिन नज़ीर ने दा’वतनामा क़ुबूल नहीं किया । एक वक़्त ऐसा आया जब नज़ीर को फ़िक्र-ए-मआश हुई तो उन्होंने किसी दरबार में जाने के बजाय बच्चों को ता’लीम देने का काम शुरूअ’ किया । वो सैर करने के बहुत शौक़ीन थे कभी मेला देखना ,कबूतर बाज़ी, जानवरों की लड़ाई देखना ,तैराकी,कुश्ती इन सब का ख़ूब लुत्फ़ लेते थे और अपनी नज़्म में पेश भी करते थे ।

एक तरफ़ को थीं सैकड़ों लड़कों की पुकारें
एक तरफ़ को थीं, पीरों जवानों की क़तारें
कुछ हाथियों की क़ीक़ और ऊॅंटों की डकारें
गुल शोर, मज़े भीड़ ठठ, अम्बोह बहारें
जब हमने किया लाके खड़ा रीछ का बच्चा

(‘रीछ का बच्चा‘ से इक़्तिबास )

नज़ीर के यहाॅं तंज़-ओ-मज़ाह भी मिलता है । कुछ लोग इसे अश्लीलता कह देते हैं ,जबकि ऐसा है नहीं जो वर्णन बुढ़ापे का नज़ीर के यहाॅं मिलता है ऐसा कहीं नहीं। जिस दौर में नज़ीर ये सब कह रहे थे उसी दौर में मीर, मुसहफ़ी, जुरअत और इंशा ऐसे भी शे’र कह रहे थे जो यहाॅं लिखना मुनासिब नहीं ।

सब चीज़ का होता है बुरा हाए बुढ़ापा
आशिक़ को तो अल्लाह न दिखलाए बुढ़ापा

अब ऐसी बात पर हॅंसी ही आयेगी। नज़ीर की एक ख़ास बात ये रही कि उन्होंने कभी भी किसी की शागिर्दी इख़्तियार नहीं की,उनकी शाइरी अपने आप में एक इंफ़िरादियत रखती है । नज़ीर ने मीर-ओ-सौदा की बहार-ए-सुख़न भी देखी तो दबिस्तान-ए-लखनऊ और दबिस्तान-ए-दिल्ली की जवानी भी । उन्होंने मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ ,शाह हातिम , सोज़, क़ायम,हसरत,रंगीन,शाह नसीर,मोमिन, ग़ालिब,ज़ौक़, जुरअत,इंशा, मुसहफ़ी और नासिख़ इन सब का ज़माना देखा । इनमें कुछ नज़ीर से क़ब्ल फ़ौत हो गए और शेष उनके बा’द तक ज़िंदा रहे लेकिन नज़ीर ने अपनी इंफ़िरादियत (Uniqueness) को क़ायम रखा न ही वो किसी दबिस्तान से वाबस्ता रहे ।

अब नज़ीर के ये अश’आर देखें ~

तू जो कल आने को कहता है ‘नज़ीर’
तुझ को मालूम है कल क्या होगा!

रहें वो शख़्स जो बज़्म-ए-जहाँ की रौनक़ हैं
हमारी क्या है अगर हम रहे रहे न रहे।

कहते हैं जिसको नज़ीर सुनिए टुक उस का बयाॅं
था वो मुअल्लम ग़रीब बुज़दिल ओ तरसंदा जाॅं।

नज़ीर ने हिंदुस्तानी ज़बान में शाइरी की जिसकी जड़ें मुल्क में दूर तक पैवस्त थीं । नज़ीर ने इंसान की रोज़मर्रा ज़िन्दगी के हंगामे ख़ूब देखे थे और इन्हीं हंगामों से मुता’ल्लिक़ चीज़ों को अपनी शाइरी का मौज़ूअ’ बनाया। उन्होंने गिलहरी का बच्चा, बुलबुलों की लड़ाई, गर्मी, बरसात की बहारें, तरबूज़, संतरा, तिल के लड्डू, शह्र आगरा, मेंहदी, बचपन, जवानी, बुढ़ापा, मुफ़लिसी, मौत का धड़का और जब त्योहारों में शरीक हुए तो होली, दीवाली, ईद, शब बरात, राखी, जन्माष्टमी जैसी नज़्में तसनीफ़ कीं । नज़ीर के अंदर की भक्ति भावना जागी तो हज़रत-ए-ईसा से लेकर हज़रत मुहम्मद (s.a.w), हज़रत अली, शेख़ सलीम चिश्ती, कृष्ण कन्हैया, महादेव और बाबा गुरुनानक के दीवाने हो गए ।

नज़ीर ने एक भरपूर ज़िंदगी गुज़ारी और जीवन की विशालता को भी देखा । उन्होंने अपनी शाइरी में इस्ति’आरे भी ख़ूब इस्ते’माल किए । इंसान की ज़िंदगी के मुख़्तलिफ पहलू जो हंसनामा , बंजारानामा ,आदमीनामा जैसी नज़्मों में दिखाई देते हैं । अब नज़ीर का एक शे’र देखें ~

मैं हूँ पतंग-ए-काग़ज़ी डोर है उस के हाथ में
चाहा इधर घटा दिया चाहा उधर बढ़ा दिया

अब नज़ीर के यहाॅं इंसान के चेतन (Concious) के साथ होने वाले संघर्षों की तफ़सील देखिए ~

टुक हिर्सो-हवस को छोड़ मियाॅं, मत देस विदेश फिरे मारा
क़ज़्ज़ाक़ अजल का लूटे है, दिन रात बजाकर नक़्क़ारा
क्या बधिया, भैंसा, बैल, शुतर क्या गोने पल्ला सर भारा
क्या गेहूॅं, चावल, मोंठ, मटर, क्या आग, धुॅंआ और अंगारा
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा।

नज़ीर की शाइरी को कुछ नक़्क़ादों ने अच्छी निगाह से नहीं देखा कोई उनमें ऐब निकाल रहा है ,कोई कह रहा है उनमें ये तरकीब नहीं है जो फ़लाॅं के यहाॅं है। नवाब शेफ़्ता ने उन्हें नीच और घटिया क़िस्म का शाइर कहा है । नज़ीर को नियाज़ फ़तेहपुरी ने चुटकुला बाज़ शाइर बताया है जबकि शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने उन्हें दोयम दर्जे का शाइर, उनका दिमाग़ छोटा है ,बड़ी शाइरी नज़ीर के बस से बाहर है और नज़ीर के सोचने का दायरा मेहदूद है कहा है । नज़ीर के बारे में एक ढॅंग की राय कलीमुद्दीन अहमद ने दी उन्होंने कहा नज़ीर उर्दू शाइरी की बेनज़ीर तनक़ीद हैं । मरहूम शमीम हनफ़ी नज़ीर के बारे में लिखते हैं ” नज़ीर न कभी अज़मत के चक्कर में पड़े न ही उन्होंने कभी इस क़िस्म का दा’वा किया कि उनकी तर्ज़-ए-सुखन आने वालों की ज़बान ठहरेगी” । मजनूॅं गोरखपुरी ने नज़ीर की नज़्मों को मु’आशरती अहदनामा बताया।

नज़ीर जिस सम्मान के मुस्तहक़ थे वो उन्हें जीते जी तो कभी न मिला हैरत की बात है कि मरने के बाद भी न मिला लेकिन हबीब तनवीर नाम के एक आदमी हुए उन्होंने बीसवीं शताब्दी में नज़ीर को फिर से ज़िंदा कर दिया। हबीब साहब ने 1954 में ‘आगरा बाज़ार’ नाम का ड्रामा तसनीफ़ किया इसमें नज़ीर के मुता’ल्लिक़ कुछ बातें और उनकी 23 नज़्में शामिल हैं । ये ड्रामा जामिया मिल्लिया विश्वविद्यालय में खेला गया था।

कभी कभी किसी का ये मिस्रा ज़ह्न में आता है “मैं इस पर सोचने बैठूॅं तो हैरानी नहीं जाती” वाक़ई हैरानी नहीं जाती कि नज़ीर जैसा ख़ुदरंग अवामी शाइर न तो उनसे पहले हुआ और न ही उनके बा’द । नज़ीर ने 95 साल की तवील उम्र पाई और सारी ज़िंदगी मोहब्बत करते करते आगरा में गुज़ार दी और आगरे का होने पर फ़ख़्र करते रहे।

आशिक़ कहो , असीर कहो , आगरे का है
मुल्ला कहो ,दबीर कहो , आगरे का है
मुफ़लिस कहो ,फ़क़ीर कहो ,आगरे का है
शाइर कहो ,नज़ीर कहो , आगरे का है।