जंग तो ख़ुद ही एक मसअला है
जो लोग यह मानते हैं कि सबसे बड़ा नशा पैसे का नशा होता है तो उन्हें अपने आप को दुरुस्त कर लेना चाहिए, क्योंकि पैसा सबसे बड़ा नशा नहीं है। सबसे बड़ा नशा ताक़त यानी पावर का है, जिसे हम आम ज़बान में कुर्सी का नशा या फिर हुकूमत का नशा भी कहते हैं।
जैसे-जैसे किसी भी इंसान की ताक़त बढ़ती जाती है उसके सर पर यह नशा तारी होता जाता है और फिर एक जुनून की शक्ल इख़्तियार कर लेता है। अपने आप को सबसे ज़्यादा ताक़तवर मानने और मनवाने के इसी जुनून की आख़िरी कड़ी का नाम जंग होता है।
आलमे-इंसानियत की कोई भी जंग उठाकर देख लीजिए और उसके असबाब तलाशिए तो आख़िर में वाहिद सबब ताक़त का जुनून ही नज़र आएगा और इसमें अगर अना की दीवानगी भी शामिल कर ली जाए तो मुआमला और ख़तरनाक हो जाता है। मगर शायरी एक ऐसा इज़हार है जो शायर को वो सब जुर्अतें करने की ताक़त अता करती है जो आदमी नस्र में नहीं कर पाता। एक शायर ही यह मशविरा दे सकता है-
खींचो न कमानों को न तलवार निकालो
जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो
-अकबर इलाहाबादी
जब जंग सरहदों यानी मुल्कों की होती है तो इसका अंजाम कुछ दिन या महीने नहीं बल्कि दहाईयां और सदियां भुगतती हैं। हर सदी का वरक़ किसी न किसी जंग की लाली से नहाया हुआ है। यह ज़मीन जैसे-जैसे बूढ़ी होती जा रही है, वैसे वैसे इसके बदन पर बेगुनाह लोगों के खून के दाग़ बढ़ते ही जा रहे हैं। सनकी हुक्मरानों की अना और ताक़त का नशा जंग की तबाही के बाद उतरता है।
दूसरी तरफ शायरी हमेशा से जंग के ख़िलाफ़ रही है और अपना काम करती रहती है। शायरी किस दर्द के साथ कितनी ख़ूबसूरती से जंग का यह अलमिया बयान करती है और कैसा काटदार तन्ज़ करती है-
जंग में क़त्ल सिपाही होंगे
सुर्ख़-रू ज़िल्ले-इलाही होंगे
-मुहम्मद अली मौज
जंग में कितने बेगुनाह लोग मारे जाते हैं, इसका हिसाब-किताब सिर्फ काग़ज़ों पर होता है। इंसानी जिस्मों को गिनतियां देकर दफनाया या जला दिया जाता है और ज़मीन के सीने पर एक और ख़ून की लकीर खींच दी जाती है। जबकि शायर इस जुनून का हल कैसी आसानी से निकाल लेता है –
किनारे पाँव से तलवार कर दी
हमें ये जंग ऐसे जीतनी थी
-नोमान शौक़
सदियों से यही होता आया है। मगर पिछली एक सदी में दुनिया भर के मुल्कों ने इस बात पर एकमत होकर कहा कि जंग नहीं होनी चाहिए और दूसरी तरफ यह भी कमाल किया कि सब ने अपने अपने रक्षा बजट को हर साल लगातार बढ़ाते रहने का अजीब काम भी अंजाम दिया। एक तरफ़ वायदा किया कि जंग नहीं होगी दूसरी तरफ़ एटॉमिक हथियारों के अपने-अपने यहां ज़ख़ीरे भी इकट्ठे करते रहे। शायर का इस मुनाफ़िक़त पे तंज़ देखिए –
अजब नहीं कि इसी बात पर लड़ाई हो
मुआहिदा ये हुआ है कि अब लड़ेंगे नहीं
-शहज़ाद अहमद
पहले जंग कबीलों में होती थी, छोटी-छोटी बस्तियों या रिहाइशों में होती थी। फिर जंग रियासतों और उसके बाद मुल्कों में होने लगी। गुज़रते वक़्त के साथ यह हुआ कि जंग सभ्यताओं में होने लगी। यह भी हुआ कि तमाम दुनिया के आधे मुल्क एक तरफ हो गए और आधे दूसरी तरफ हो गए। यानी जंग का यह सिलसिला मुल्कों की सरहदों से भी आगे निकल गया। मगर शायरी यह इम्तियाज़ ही नहीं करती। शायरी किसी को पराया ही नहीं जानती। न सरहद के इधर और न उधर-
अपनों से जंग है तो भले हार जाऊँ मैं
लेकिन मैं अपने साथ सिपाही न लाऊँगा
-अख़्तर शाहजहाँपुरी
कब उस की फ़त्ह की ख़्वाहिश को जीत सकती थी
मैं वो फ़रीक़ हूँ जिसको कि हार जाना था
-फ़ातिमा हसन
कैसा अलमिया है कि एक तरफ हर मुल्क में इंसानी हुक़ूक़ यानी मानव अधिकार बनाए गए हैं। जिनका पालन करना हर हाल में जरूरी है। यानी इंसानी वक़ार, उसकी अज़मत की पासदारी के लिए हर मुल्क राज़ी और कोशां है, मगर एक ही लम्हे में ये इंसानी हुक़ूक़ पामाल कर दिए जाते हैं और इंसानो- हैवान को एक ही सफ़ में लाकर खड़ा कर दिया जाता है। इसी पामाली के ख़िलाफ़ साहिर कहते हैं –
फ़ौज हक़ को कुचल नहीं सकती
फ़ौज चाहे किसी यज़ीद की हो
लाश उठती है फिर अलम बनकर
लाश चाहे किसी शहीद की हो
गुज़रे जमाने में यह माना जाता था कि जंग सिर्फ़ अना का मुआमला है, ताक़त का जुनून है और हर नस्ल इस बात से खुश होती है कि उसके राजा, उसके बादशाह ने अपनी अना के लिए अपने लोगों की अना के लिए जंग की मगर शायर इस झूठी अना को नकारता है। तभी तो फ़राज़ ने अपनी नज़्म ‘दोस्ती का हाथ’ में कहा-
तुम्हें भी ज़ोम महाभारता लड़ी तुमने
हमें भी फ़क्र कि हम कर्बला के आदी हैं
इसी नज़्म के इख़्तिताम में फ़राज़ झूठी अना पर चोट करते हुए कहते हैं –
अगर तुम्हारी अना ही का है सवाल तो फिर
चलो मैं हाथ बढ़ाता हूं दोस्ती के लिये
गुज़रे पचास बरसों में हथियार बनाने और बेचने का काम भी एक जुनून बन गया है और हथियारों को आम चीज़ों की तरह ज़रूरत की चीज़ बनाने का जो जुर्म इन हथियारों के ताजिरों ने किया है उसकी सजा क्या और कितनी ख़ौफ़नाक हो, यह सोचने से ताल्लुक़ रखता है। अब जंग अना के लिए नहीं बल्कि इन हथियारों के ताजिरों के लिए होती है।
किसी भी शायर ने जंग को सही नहीं ठहराया। शायर तो सबसे आख़िरी पायदान पर खड़े हुए इंसान की तरफ़दारी करता है। पिछली एक सदी में शायरी ने कभी भी सरमायादारों, बादशाहों, नवाबों या हुक्मरानों की बड़ाई करके, उन्हें फर्शी सलाम करके और उनके सामने अपने फैले हुए हाथों में इनआमो-इकराम और वज़ीफ़े लेकर उनके हाथों को चूमने का काम नहीं किया। शायर तो अपने आप से ही जंग करता रहता है –
है इंतिज़ार मुझे जंग ख़त्म होने का
लहू की क़ैद से बाहर कोई बुलाता है
-आशुफ़्ता चंगेज़ी
मिरे बदन पे ज़मानों की ज़ंग है लेकिन
मैं कैसे देखूँ शिकस्ता है आइना मेरा
-असअद बदायुनी
साहिर लुधियानवी ने जंग के ख़िलाफ़ और अम्नो-सुकून के लिए, इंसान दोस्ती के लिए कई नज़्में कहीं, मगर जंग को लाज़मी भी बताया लेकिन किस जंग को, उनकी नज़्म ‘मगर जंग के ख़िलाफ़’ की शुरुआत देखिए –
हम अम्न चाहते हैं मगर ज़ुल्म के ख़िलाफ़
गर जंग लाज़मी है तो फिर जंग ही सही
दूसरी नज़्म में साहिर ख़ुदा से पूछते हैं –
ख़ुदाए-बरतर तिरी ज़मीं पर ज़मीं की ख़ातिर ये जंग क्यों है
हर एक फ़त्हो-ज़फ़र के दामन पे ख़ूने-इंसां का रंग क्यों है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने अपनी नज़्म ‘फ़लस्तीनी बच्चे के लिए लोरी’ में जंग के बाद के मंज़र को किस कर्ब से बुना है कि देखने से ताल्लुक़ रखता है। उन्हीं की नज़्म ‘सरे-वादिए-सीना’ के आख़िरी चार मिस्रे देखिए –
अब रस्मे-सितम हिकमते-ख़ासाने-ज़मीं है
ताईदे-सितम मसलहते-मुफ़्तिए-दीं है
अब सदियों के इक़रारो-इताअत को बदलने
लाज़िम है कि इन्कार का फ़रमां कोई उतरे
यह जंग क्या है और इसकी हक़ीक़त क्या है इसे साहिर ने अपने एक शेर में समझा दिया है –
जंग तो ख़ुद ही एक मसअला है
जंग क्या मसअलों का हल देगी
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