अकबर इलाहाबादी : हिन्दुस्तानी तहज़ीब के समर्थक

अकबर इलाहबादी को अब इस से फ़र्क़ नहीं पड़ता कि वो इलाहबादी हैं या प्रयागराजी। बात उनकी शायरी की होनी चाहिए और शायरी भी कैसी जो सरासर हिंदुस्तानी है। ये बहस बहुत पुरानी है की साहित्य का मक़सद समाज की भलाई है या साहित्यकार अपने दिल की बात करता है, चाहे उसका कोई अज़ीम मक़सद न भी हो। इस लिहाज़ से देखा जाए तो अकबर की पूरी शायरी एक इंतिहाई संजीदा मक़सद के लिए है, गो की जो पैराया उन्होंने इख़्तियार किया है वो हंसी मज़ाक़ का है, जिसकी आड़ में वो समाज को एक आईना दिखाने की कोशिश करते हैं। ये कोशिश और भी इस लिए महत्वपूर्ण है कि वो एक तरफ़ तो अंग्रेजों की मुलाज़िमत करते हं और शायरी में उनकी तहज़ीब का मज़ाक़ भी उड़ाते हैं। अकबर की शायरी इस लिए अपने ज़माने से बहुत आगे है कि उन्होंने उस सोच और ज़ेहनियत को सुधारने की कोशिश की जो उस वक्त हिंदुस्तानियों में फैल चुकी थी कि अंग्रेज़ बहादुर की हर चीज़ अच्छी है चाहे वो उसकी ज़बान हो, उसका पहनावा हो, या उसकी ता’लीम हो। देखिए कैसे वो इसका रोना रोते हैं:

हर्फ़ पढ़ना पड़ा है टाइप का
पानी पीना पड़ा है पाइप का

या एक बार उनके हाथ में एक अंग्रेज़ी जूता देखकर किसी ने तंज़ किया, तो वो क्या जवाब देते हैं

अंग्रेज़ के जूते का बुरा हाल करेंगे
पापोश बना कर उसे पामाल करेंगे

(पापोश: वो कपड़ा जिस से जूते साफ़ किए जाते हैं)

और ये वो आदमी कह रहा है जो इलाहबाद हाई कोर्ट में जज है और अंग्रेज़ी हुकूमत का नौकर भी है। बा’ज़ लोग अकबर पर ये कह कर तनक़ीद करते हैं कि वो दक़ियानूसी हैं, पुराने ज़माने में जी रहे हैं और हवा किस रुख़ बह रही है उन्हें इसका अंदाज़ा नहीं है। ये उनको समझने का बहुत सतही अन्दाज़ है। अकबर को ये मा’लूम था की वो अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ जंग नहीं छेड़ सकते हैं सो उन्होंने अपनी शायरी का सहारा लिया और हिंदुस्तानियों को ये बताने की कोशिश की कि उनकी अपनी तहज़ीब बहुत बुलंद है। उनकी अपनी ज़बान बहुत शानदार है। और उनका अपना रहन-सहन अंग्रेजों से बहुत अच्छा है। देखिए वो किस तरह डारविन की theory of evolution का मज़ाक़ उड़ाते हैं:

या इलाही ये कैसे बंदर हैं
इर्तिक़ा पर भी आदमी न हुए

या अंग्रेज़ी तर्ज़-ए-ता’लीम पर उनका ये तंज़ देखिए:

तिफ़्ल में बू आए क्या माँ बाप के अतवार की
दूध तो डब्बे का है ता’लीम है सरकार की

(तिफ़्ल: बच्चा)
अतवार: चाल चलन)

अंग्रेजों ने हिंदुस्तानियों को ग़ुलाम तो बनाया ही था लेकिन वो उनको ये बावर कराने की कोशिश भी करते थे कि ये सब वो उनकी भलाई के लिए कर रहे हैं। सियासी रंग में देखिए इस दोग़लेपन को वो किस तरह उजागर करते हैं। सर सय्यद की आड़ लेकर वो अंग्रेज़ी तर्ज़-ए-ता’लीम और आने वाले वक़्तों में उसके मुज़िर असरात पर कैसी फबती कसते हैं:

इब्तिदा की जनाब सय्यद ने
जिनके कॉलेज का इतना नाम हुआ
इंतिहा यूनिवर्सिटी पे हुई
क़ौम का काम अब तमाम हुआ

या फिर ये शेर भी देखिए:

यूँ क़त्ल से बच्चों के वो बदनाम न होता
अफ़सोस कि फ़िरऔन को कॉलेज की न सूझी

अंग्रेज़ी तहज़ीब से मरऊबियत पर वो अपने बेटे को किस तरह सुनाते हैं:

इशरती घर की मोहब्बत का मज़ा भूल गए
खा के लंदन की हवा अहद-ए-वफ़ा भूल गए

या फिर इस चकाचौंध वाली तहज़ीब पर ये तंज़:-

हुए इस कदर मोहज़्ज़ब कभी घर का मुँह न देखा
कटी उम्र होटेलों में मरे अस्पताल जा कर

अकबर की शायरी अगर इस पस-मंज़र में न पढ़ी जाए तो वो बड़ी दक़ियानूसी और रजअ-पसंदाना लगती है लेकिन अकबर एक सच्चे वतन-परस्त हिंदुस्तानी हैं, जिनकी रगों में वतन से प्यार कूट-कूट कर बह रहा है। वो अपने हम-वतनों को आने वाले हालात से आगाह कर रहे हैं। उनकी दूर-दर्शी नज़र अंग्रेजों की मक्कारियों को ब-खूबी पहचानती है। वो जिस्मानी तौर पर तो उनसे नहीं लड़ पा रहे हैं लेकिन तंज़ के ज़रिए वो इस ख़तरे से सारे हिंदुस्तानियों को आगाह कर रहे हैं। और ये बेदारी वो अवाम में लाना चाह रहे हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि लीडर हज़रात तो सिर्फ़ अपनी जेब भरने के चक्कर में हैं । अकबर का ये शे’र आज भी उतना ही रेलेवँट है:

क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ
रंज लीडर को बहुत हैं मगर आराम के साथ

अकबर की शायरी मक़सदी ज़रूर है लेकिन ज़बान-ओ-बयान की ख़ूबियों से भी भरपूर है। उन्हें लेसान-उल-अस्र का ख़िताब मिला था, जिसका मतलब होता है वो आदमी जो अपने ज़माने में ज़बान का माहिर हो। लेकिन उनकी शायरी का सबसे रौशन पहलू ये है कि वो गुल-ओ-बुलबुल और काकुल-ओ-रुख़्सार की शायरी से आगे बढ़ कर हमें एक मक़सदियत से अवगत कराती है और हिंदुस्तान से और अपनी तहज़ीब से मोहब्बत करना सिखाती है।