Zauq

कौन जाए ‘ज़ौक़’ पर दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर

हमारे महकमे में एक देहाती कहावत चलन में है। वह यह कि ‘ख़ूबसूरत ज़नानी और अमीर मानस को बैरी बनाने की ज़रूरत नहीं होती’। कहने से मुराद यह है कि इन ख़ूबियों के मालिकों की ज़िंदगी की कामयाबी का इनहिसार उनके डिप्लोमेटिक और पोलिटिकल बैलेंस वाले बर्ताव पर होता है। समझाता हूँ, किसी ख़ूबसूरत मोहतरमा ने अगर किसी को ज़रा सी भी ठेस पहुंचाई (मेरा मक़सद बोलचाल तक महदूद है। मज़ीद तख़य्युल मुझ जैसे लोगों के लिए ममनूअ है ) तो उसके कैरेक्टर को मशहूर करने में देर नहीं लगती और वैसे ही अमीर आदमी को लूटने, वरग़लाने के लिए परायों से ज़ियादा उसके अपने ही तैयार रहते हैं। अगर वह न लुटे और पिटे तो अपने और पराए उसके दुश्मन हो जाते हैं। लेकिन हज़रात किसी शे’र का यह मिसरा ए सानी भी एक मुहावरे के तौर पर ख़ूब मशहूर नहीं है क्या? कि

‘ख़ुदा जब हुस्न देता है नज़ाकत आ ही जाती है’

इतनी लंबी तमहीद बांधने से मेरी मुराद उन्नीस बरस की कमसिनी में ख़ाकानी-ए-हिन्द ख़िताब से नवाज़े जाने वाले ‘हज़रते शेख़ इब्राहीम #ज़ौक़ साहब पर ‘कुछ’ लिखने से है। मुझ जैसा तालिबे इल्म, मलिकुल शूरा ज़ौक़ जैसी अज़ीम मीनारे सुख़न पर ‘कुछ’ लिखने की जुर्रत कर सकता है। उनकी शायरी, कलाम की ख़ुसूसियात, ज़िंदगी के उतार-चढ़ाव आपको इंटरनेट-सर्फ़िंग करने पर स्कॉलर्स के दानिशवराना मिलकियत के टैग्स वाले रिसर्च पेपर्स में मिल ही जाएंगे। मैं सिर्फ़ एक तिफ़्ले अदब की हैसियत से हज़रते ज़ौक़ के तअल्लुक़ से बस अपने एहसासात आपसे शेयर कर रहा हूँ। लेकिन इस कमसिनी में बादशाहे दिल्ली अकबर सानी से खाक़ानीए हिन्द ख़िताब का मिलना ज़ौक़ के उस्ताद के हसद का बाईस बन गया। उन्होंने इस्लाह के नाम पर अपने इस क़ाबिल शागिर्द को बहुत बार ज़लील किया। मैं यहाँ आपको तमहीद में लिखी देसी कहावत याद दिला रहा हूँ। थोड़ा वक़्त और गुज़रा, ज़ौक़ साहब वली अहद मिर्ज़ा अबू ज़फ़र सिराजुद्दीन मुहम्मद के उस्ताद मुक़र्रर हो गए। शुहरत के साथ दौलत भी बढ़ने लगी। शाही वज़ीफ़ा पच्चीस गुना बढ़कर चार से सौ रूपये हो गया। वली अहद, बादशाह ‘बहादुर शाह-सानी’ हो गए। इस नए इक्वेशन से अब आप भी बादशाहे वक़्त के उस्ताद हो गए। बादशाही चाहे लाल-क़िले तक ही महदूद थी मगर थी तो बादशाही। इस नज़दीकी पर आप ने ‘शह का मुसाहिब’ होने का ताना भी बर्दाश्त किया। हज़रात ! तमहीद में लिखी देसी कहावत एक बार फिर आपको याद दिलाना चाहता हूँ, अब आप समझ गए होंगे। दिल्ली अंग्रेज़ों और मराठों के क़ब्ज़े में आ चुकी थी। इस बरबाद होते शहर ‘जो एक शहर था आलम में इन्तेखाब’, के ज़ियादातर फ़नकार बुलावे पर या फिर सिफ़ारिशों के सहारे हैदराबाद रियासत के लिए हिजरत कर रहे थे। तब इस मलिकुश शूरा शैख़ इब्राहीम ज़ौक़ ने दिल्ली की गलियों को छोड़कर जाना गवारा न किया :-

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तमहीद में मुहावरे/कहावत का इस्तेमाल करने से ख़ाकसार की मुराद उर्दू ज़बान और मुहावरों पर ज़बरदस्त पकड़ रखने वाले हज़रते ज़ौक़ के कलाम के ज़िक्र से भी है। क्या ख़ूब रवानी और आसानी से मुहावरों का इस्तेमाल हज़रते ज़ौक़ के यहाँ हुआ है। एक बानगी देखिए:-

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इस ग़ज़ल में क़वाफ़ी के ज़रिए उर्दू ज़बान की अस्ल चाशनी का इस्तेमाल सारे सुख़नवरों के लिए खुला चैलेंज रखा है उस्ताद ज़ौक़ ने। नबेड़, उधेड़, लथेड़, सुकेड़ और खखेड़ देखिए और देखिए उनका इस्तेमाल। आ हा आ हा हा। (वैसे यह आ हा आ हा उनके शागिर्दे अर्जुमंद लास्ट मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र का है लेकिन ज़बान की चाशनी आएगी तो उस्ताद से ही)।

हज़रात! बात दरअस्ल यह है कि पिछले महीने अक्टूबर के वस्त में, अंजुमन तरक्क़ी-ए-उर्दू (हिन्द) दिल्ली शाख़ के सेक्रेटरी डॉ इदरीस साहब का हुक्म हुआ कि ख़ाकसार को उर्दू के मक़बूल शाइर उस्ताद ज़ौक के यौमे वफ़ात के मौक़े पर 19 नवम्बर को अंजुमन के बैनर तले होने वाले तरही मुशाइरे में ज़ौक़ की ज़मीन में अपना कलाम बतौर शाइर पढ़ना है। इम्तिहान की बहुत सख़्त घड़ी आन पड़ी। अभी तो बतौर शाइर ज़मीने सुख़न पर पाँव जम ही पाए हैं मेरे। अब तक थोड़ा बहुत टूटा फूटा कलाम ही हो पाया है जिस पर आपकी मुहब्बतों के ज़रिये थोड़ी बहुत पूछ होने लगी है। लेकिन तरही कलाम और वह भी उस्तादे ज़ौक़ की ज़मीन में तो ऐ ख़ुदा बहुत दूर की बात ठहरी और उस पर ज़ुल्म कि मिसरे तरह जिन पर ग़ज़ल कहनी है, देखिये :-

‘नहीं है चाके जिगर क़ाबिले रफ़ू मेरा’

और

‘दामने बर्क़ अगर दामने क़ातिल होता’

ख़ैर पुलिस ने चैलेंज ले ही लिया और जब पुलिस किसी काम का बीड़ा उठा लेती है तो फिर सारी ज़मीनों को ख़तरा-ए-नुक़्स-ए-अम्न तो हो ही जाता है। यह तो चलो मज़ाक़ हो गया। दरअस्ल इस मुशाइरे में मदऊ कश्फ़ साहिबा भी हैं तो मिसरों में तकरार न हो इसलिए मिसरे अलग अलग बाँट लिए गए। आपसी तकरारे ज़ौजियत में मुश्किल ज़मीन के मिसरे कश्फ़ साहिबा के हिस्से में आते हैं। मैं तो वहाँ भी आसान और छोटी बहर की पतली गली पकड़ कर थाने निकल लेता हूँ। ज़ाहिर है मैंने क़दरन आसान मिसरा छांट लिया। ‘दामने बर्क़ अगर दामने क़ातिल होता’। मगर भाई साहब यह दामन दिखने में ही आसान लगा था। पसीना कई बार सर से पाँव जिस्म के वस्ती हिस्सों पर ठहर कर पहुंचा। बमुश्किल तमाम ग़ज़ल तमामशुद हुई।

लेकिन इस बहाने उस्तादे ज़ौक़ को ख़ूब खंगाल खंगाल कर पढ़ा। बहुत सी यादें जो बिसर गई थीं , याद आ गईं। यह भी याद आ गया कि हज़रते ज़ौक़ का मज़ार कहीं नबी करीम में वाक़े है । ख़्वाहिश जाग उट्ठी कि ख़ाकानी-ए-हिन्द, मलिकुश शूरा की मज़ार पर हाज़िरी लगाई जाए।

छोटे भाई मोहम्मद अनस फ़ैज़ी को ज़िम्मा सौंपा गया कि वह मज़ारे ज़ौक़ को लोकेट कर के रखें। किसी दिन ज़ियारत को चलेंगे। यह ‘किसी वाला दिन’ आज नहीं, कल चलेंगे, वाले ढंग से बढ़ता रहा और टलता रहा । मतलब कभी मैं नहीं तो कभी तुम नहीं। फिर यह किसी वाला दिन 11 नवम्बर को फ़िक्स्ड हो गया। ओह! ओह! इस दिन तो कश्फ़ साहिबा का यौमे विलादत था। स्पेशल छुट्टी मिली थी। लेकिन शौक़े दीदारे मज़ारे ज़ौक़ की वजह से जाने की इजाज़त मिल ही गई।

सुब्ह के वक़्त तुर्कमान गेट से अनस साहब को उठाया गया और तलाशे मज़ारे ज़ौक़ में क़ुतब-रोड, नबी करीम थाने के नज़दीक पहुंच गए। यहाँ तक अनस साहब मुतमईन थे कि बस पाँच मिनट में मज़ार तक पहुंच जाएंगे। उनको पुरानी दिल्ली वाले होने के फ़ख़्र के साथ गूगलीय ज्ञान पर भी यक़ीने कामिल था। गूगल मैप्स ने पहली गली तक बहुत यक़ीन के साथ हमको बताया कि हमारी मंज़िले मक़सूद बस पांच मिनट पर है मगर, तेल वाली गली में जीपीएस कम से कम दस बार नाकामयाब हुआ। हम तेल वाली गली में तकिया मीर कल्लू के चक्रव्यूह में यूं ही गोलगोल चक्कर काटते रहे। फिर किसी भले आदमी ने बताया ‘हाँ हाँ! किसी सायर वायर की मजार है तो सही’। गूगल से किनाराकशी कर उस ख़िज़्रे वक़्त के बताए मुताबिक़ मज़ारे ज़ौक़ पहुंचे। हम दोनों ही पंद्रह-बीस मिनट की इस खोज में परेशान हो गए थे। तालाबंद मज़ार के सामने जमा गंदे पानी और गंदगी को दरकिनार कर, ताला खुलवाने के लिए केयर-टेकर की तलाश में सामने एक दूकान पर पहुंचे। तभी तीस पैंतीस बरस के एक जवान शख़्स ने बताया कि मज़ार की चाबी चौकीदार के पास है और वह सुबह सफ़ाई करके दूसरी इमारत को जा चुका है। सफ़ाई के ज़िक्र पर हम दोनों ने मज़ार पर फिर नज़रे-सानी की। सरकारी सफ़ाई पूरे तौर पर नुमाया थी। उसी जवान शख़्स को मज़ार के गेट पर जड़ी संगी-प्लेट पर उर्दू हिंदी और अंग्रेज़ी में #यादगारे_ज़ौक़ लिखे होने पर भी मज़ार में दफ़्न आदमी का नाम नहीं मालूम था। इक़बाल, ग़ालिब वगैरह कई नाम उस भले बन्दे के होंठों पर आकर रुक गए। फिर अनस ने उसको बताया कि यह ज़ौक़ साहब की मज़ार है जो उस वक़्त के मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के उस्ताद थे। आह!

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दिल्ली की गलियों को न छोड़कर जाने वाले इस अज़ीम शायर की दायमी आरामगाह का पता अब चिन्योट बस्ती, मुल्तानी ढाण्डा, पहाड़गंज, नई दिल्ली है जो कि बंटवारे के बाद ग़ैर-तक़सीम पंजाब के चिन्योट और मुल्तान ज़िलों से आकर बसे हिन्दुस्तानियों से आबाद है। आह! आदमी हिजरत करके भी अपने वतन को याद रखता है। वतन से बिछुड़ने की इस ख़लिश को आप इन बस्तियों के इलावा दिल्ली में बसे अन्य इलाक़ों जैसे गुजरांवाला, डेरावाल नगर, झंग अपार्टमेंट्स वग़ैरह के नामों में भी महसूस कर सकते हैं। मेरे साथ शायद अनस ने भी महसूस किया कि अपनी ज़िन्दगी को शाइरी की पूरी आबो ताब से जीने वाला उस्ताद शाइर कितने सुकून से बिना किसी तकल्लुफ़ के सो रहा है कि आस पास के लोगों को उसके बारे में कुछ मालूम ही नहीं । वरना नामचीन शाइरों को उनके नामों की अकेडमियों के कारकुनान साल में कम से कम दो बार आकर तकलीफ़ तो देते ही हैं । वाह उस्ताद वाह !

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हज़रात! मेरा मंशा कभी भी किसी अदबी शख़्सियत पर तनक़ीद करने का नहीं रहा है और न ही मेरी हैसियत है कि मैं ऐसा कर सकूं! मैं कहना चाहता हूँ कि उर्दू अदब के कुछ नक़्क़ाद हज़रात ने उनकी शायरी पर सवालिया निशान लगाए हैं। लेकिन मुझे यह बात यहाँ लिखना ज़रूरी लगती है कि तमाम चश्मक के बावजूद ग़ालिब को भी क़सीदा निगारी के हवाले से ज़ौक़ को ‘पूरा शाइर’ तस्लीम करना पड़ा था।

हम दोनों ने उस मुक़फ़्फ़िल अहाते से मुतअल्लिक़ दोनों फ़राइज़, अव्वल: फ़ातिहा पढ़ना और दूसरा: मुख़्तलिफ़ ज़ावियों से फ़ोटो लेना अंजाम दिए और भारी दिल से वापस हो लिए। हज़रते शैख़ इब्राहीम ज़ौक़ के इस शे’र जो कि दिल्ली वालों से एक शिकायत है, के साथ ख़ुदा हाफ़िज़ !

तुम भूल कर भी याद नहीं करते हो कभी
हम तो तुम्हारी याद में सब कुछ भुला चुके