Meeraji

कहते हैं कि उन्हों ने अपनी प्रेमिका के नाम पर ही अपना नाम मीरा जी रखा

पैदा कहाँ हैं ऐसे परागंदा-तब्अ’ लोग
अफ़सोस तुम को ‘मीर’ से सोहबत नहीं रही

मीर का ये शेर मीरा जी की शख़्सियत पर भी पूरा उतरता है। 3 नवंबर 1949 को जब मुंबई के एक अस्पताल में मीरा जी का इंतक़ाल हुआ तो उनके पास कोई नहीं था । अख़्तर उल ईमान को ख़बर मिली कि मीरा जी नहीं रहे वो अंदर से टूट गए थे । मीरा जी के साथ वक़्त-ए-आख़िर में अगर कोई था तो वो अख़्तर उल ईमान और उनकी बेगम थीं ! मैं जब मीरा जी के बारे में सोचता हूॅं तो मुझे फ़ैज़ के ये मिस्रे ज़ेहन में आते हैं ~

जिन पे अश्क बहाने को कोई न था
अपनी आँख उनके ग़म में बरसती रही !

मीरा जी का असली नाम मोहम्मद सनाउल्लाह ‘सानी’ डार था। लाहौर में विलादत हुई , इनके वालिद का नाम मुंशी महताबउद्दीन था जो रेलवे में मुलाज़मत करते थे और इनकी वालिदा का नाम ज़ैनब बेगम था। इनके वालिद को मुलाज़मत के दौरान कई मुख़्तलिफ़ शह्रों में क़याम करना पड़ता कभी गुजरात के काठियावाड़ ,बलूचिस्तान वग़ैरह वग़ैरह। मीरा जी वालिद के साथ ख़ूब घूमे इसका उनके ज़ेहन पर बहुत गहरा असर पड़ा और छोटी उम्र से ही वो घुमक्कड़ क़िस्म के हो गए थे । यही घुमक्कड़पन, आज़ाद ख़यालात उनकी शाइरी में भी दिखाई देते हैं । मीरा जी पढ़ने में साधारण क़िस्म के इंसान थे ता’लीम भी बहुत थोड़ी पाई थी यानी मैट्रिक भी पास न कर सके थे । स्कूल या सिलेबस की किताबों में उनका जी न लगता लेकिन अदब की किताबें ,रिसाले इन सब को वो डूब कर पढ़ते थे । वे कम उम्री से ही नज़्में कहने लगे थे और इब्तिदाई दौर में साहिरी तख़ल्लुस करते थे। ये 1932 का साल होगा कि उन्होंने एक बंगाली लड़की मीरा सेन को देखा और उसी के हो कर रह गए । मीरा सेन उसी जमाअत में पढ़ती थी जिसमें सनाउल्लाह डार पढ़ते थे, इनका मीरा सेन से ये इकतरफ़ा इश्क़ था । मीरा सेन की सहेलियाॅं उन्हें मीरा जी बुलाया करती थीं सो इसी तर्ज़ पर सनाउल्लाह डार ने अपना नाम मीरा जी रख लिया और लंबे लंबे बाल भी रखा लिए । ये मीरा सेन का पीछा करते थे और सिर्फ़ एक बार उसे रास्ते में रोक कर बस इतना कह सके कि “मुझे आपसे कुछ कहना है।” मीरा सेन कोई जवाब दिए बग़ैर उनको ग़ुस्से से घूरते हुए आगे बढ़ गई थी और उसके बा’द दोनों की मुलाक़ात कभी नहीं हुई ।

सनाउल्लाह डार मीरा सेन के इश्क़ में ऐसे क़ैद हुए कि मैट्रिक भी पास न कर सके, जिससे उनके वालिद नाराज़ हुए तभी मीरा जी ने होम्योपैथिक की डॉक्टरी सीख ली । इसके बावजूद मीरा जी ने ख़ुद को न कभी डॉक्टर कहलवाना पसंद किया ,न ही इसका इस्तेमाल कभी तिजारत के रूप में किया ।

मीरा जी ने शाइरी को जब संजीदगी से लेना शुरू’ किया उस वक़्त अदब में तरक़्क़ीपसंद तहरीक़ (प्रगतिशीलों) की तूती बोल रही थी ,ये 1936 के बा’द का दौर था । इनमें फ़ैज़, मजाज़,वामिक़ जौनपुरी, मख़दूम, जज़्बी , सिकंदर अली वज्द ,साहिर,कैफ़ी आज़मी,मजरूह और अली सरदार जा’फ़री जैसे शो’रा शामिल थे । वहीं जदीद धारा में अख़्तर उल ईमान,नून मीम राशिद,अमीक़ हनफ़ी और मीरा जी ने मिलकर मौलाना हाली के दिखाए रास्ते को ख़ैर-बाद कह दिया । नई नज़्म के शाइरों ने अपना सफ़र जारी रखा और निश्चित रूप से ये पुरानी नज़्म से मुख़्तलिफ़ हो गई ,पुरानी नज़्म नस्र के क़रीब थी जबकि नई नज़्म ग़ज़ल के क़रीब ! नई नज़्म के हवाले से किसी शाइर का क़ौल है ~

” ये छोटी छोटी नज़्में रंग बिरंगी तितलियाॅं होती हैं जो हमारी गिरफ़्त में आ जाती हैं तो कभी क़तरा सी निकल जाती हैं “

मीरा जी नई नज़्म के अग्रणी शाइरों में गिने जाते हैं । इन्होंने जिंसी मुआमलात को बेझिझक अपनी नज़्मों में पेश किया है ,इन पर उर्यानी और फ़हाशी का इल्ज़ाम लगाया जाता है। तरक़्क़ीपसंदों ने मीरा जी की पूरी शाइरी को ज़ेहनी ग़लाज़त का ढेर क़रार दिया है जिसमें अली सरदार जा’फ़री जैसे लोग शामिल हैं ! मीरा जी दिन रात समाज की नाहमवारियों से परेशान रहते हैं। मीरा जी के बा’द जिन शाइरों ने नई नज़्म की राह अपनाई उनमें इब्ने इंशा, इफ़्तिख़ार जालिब, बलराज कोमल, ज़ाहिदा ज़ैदी, फ़हमीदा रियाज़, ख़लील-उर्रहमान-आज़मी, मोहम्मद सलीम, वहीद अख़्तर, शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी, ज़िया जालंधरी, साक़ी फ़ारूक़ी, ज़ाहिद डार वग़ैरह ।

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मीरा जी 1937 में अदबी दुनिया लाहौर के नायब मुदीर बने और 1941 तक बने रहे । यहाॅं उन्हें तीस रुपए तनख़्वाह मिलती थी , कभी ज़रूरतमंदों को कुछ रुपए दे देते , थोड़े वालिद और छोटे भाई को भेज दिया करते बचे हुए की शराब पी लेते । मीरा जी अपने अहद के ख़ुद रंग शाइर थे उनके यहाॅं जज़्बात ओ अहसासात की पुख़्तगी मिलती है और तख़य्युल की क़ुव्वत समाहार है ।

मीरा जी की शाइरी की एक मिसाल देखें यहाॅं कितने रंग एक साथ समाए हुए हैं ~

पर्वत को एक नीला भेद बनाया किसने दूरी ने
चाॅंद सितारों से दिल को भरमाया किसने दूरी ने
नई अछूती अनजानी लहरों का सागर न्यारा है
दूर कहीं बस्ती से बन में सूना मंदर प्यारा है
क़दम क़दम पर जीवन में दूरी ने रूप निखारा है
तब तक नाव सुहाए दिल को जब तक दूर किनारा है
दूर ही रह के धुन भी अमर है चाहे जो ढब हो जीवन का
सुख दुख दोनों हवा के झोंके कोई सबब हो जीवन का
फिर भी मूरख बन कर दुनिया पल पल छन छन बेकल है
कोई पुजारी ज्ञानी है और कोई पुजारी पागल है!

मीरा जी का मुताला’ बहुत वसीअ’ था । उन्होंने मग़रिब के सैंकड़ों शाइरों का मुताला’ किया और उनसे प्रभावित भी हुए। जिनमें फ़्रान्कोई विलेन, चार्ल्स बोदलियर, मेलारमे विटमैन, डी ऐच लॉरंस, कहानीकार पो और पुश्किन । इधर उन्होंने वैष्णव मत ,भक्ति मत इन सब का असर भी क़ुबूल किया। मीराबाई और विद्यापति को ख़ूब पढ़ा।

कहते हैं कि मीरा जी लाहौर की दयाल सिंह लाइब्रेरी को चाट चुके थे।

मीरा जी के हवाले से डॉक्टर जमील जालिबी ने लिखा है ~ मीरा जी की शाइरी समाज के एक ऐसे ज़ेहन की तर्जुमानी करती है कि मीरा जी से कम नैतिक साहस रखने वाला व्यक्ति उसको प्रस्तुत ही नहीं कर सकता था और मीरा जी की शाइरी में ईमानदारी और सच्चाई का वो तत्व पाया जाता है कि हम उनकी शाइरी का सम्मान करने पर मजबूर हो जाते हैं।

मीरा जी दरवेश क़िस्म के इंसान थे। अपने हुलिया से उन्हें कोई फ़र्क़ न पड़ता वज़्अ’ क़त्अ’ बिल्कुल अजीब मैले कुचैले कपड़े,महीनों तक न नहाना , हर मौसम में जाड़ों का लिबास बरसाती जो बहुत वज़्नी था ( क्योंकि मीरा जी के पास और कोई कपड़े नहीं थे ) लंबी ज़ुल्फ़ें, लंबी मूछें, सारे बाल सफ़ेद ,गंदे नाख़ून, गले में गज़ भर की माला, हाथों की कलाई में रुद्राक्ष की माला, हाथ में लोहे के तीन गोले जिन पर सिगरेट की पन्नी मढ़ी होती, दिन रात नशे में धुत, तवायफ़ों के पास जाना, नशे में धढ़ें मार मार कर रोना,एक हाथ में कॉपी किताब और दूसरे हाथ में अटैची ( जिसमें शराब की बोतल रखी होती थी ) लेकर सड़कों पर घूमना और दारू पीना । इन सब बातों ने मीराजी की शख़्सियत को अफ़साना बना दिया। अब मीरा जी के कुछ शेर देखें ~

नगरी नगरी फिरा मुसाफ़िर घर का रस्ता भूल गया
क्या है तेरा क्या है मेरा अपना पराया भूल गया!

क्या भूला कैसे भूला क्यूँ पूछते हो बस यूँ समझो
कारन दोश नहीं है कोई भूला भाला भूल गया!

मीरा जी ने नज़्म में नए नए तजरबात किए और इस्ति’आरे भी इस्ते’माल किए । उनकी शाइरी इंतिहाई आमफ़हम ज़बान और आसान उस्लूब में है फिर भी उनकी शाइरी को मुश्किल क़रार दिया जाता है। कोई कहता है उनकी शाइरी मुबहम और पेचीदा है ,तो कोई बताता है उनके यहाॅं ईहाम का बहुत ज़्यादा दख़्ल है। उन्हें अजायबघर का क़ैदी भी कहा जाता है , नून मीम राशिद ने तो मीरा जी को अदब का गांधी कहा है ।

अब मीरा जी की नज़्म चल चलाओ से ये मिसरे देखें ~

तूफ़ान को चंचल देख डरी आकाश की गंगा दूध-भरी
और चाँद छुपा तारे सोए तूफ़ान मिटा हर बात गई
दिल भूल गया पहली पूजा मन मंदिर की मूरत टूटी
दिन लाया बातें अनजानी फिर दिन भी नया और रात नई
पीतम भी नई प्रेमी भी नया सुख सेज नई हर बात नई

मीरा जी की शाइरी का कैनवस बहुत विस्तृत है। उनकी नज़्में हल्की सी फ़ारसी रंगत,बाबा ख़ुसरो की हिंदवी कविता,मोहम्मद क़ुली क़ुतुबशाह, वली ,नज़ीर, कबीर, सूर,संत तुकाराम ,चंडीदास इन सब के रंग में रची हुई हैं।

वज़ीर आग़ा कहते हैं ,मीरा जी की शाइरी में हिंदुस्तानियत मिलती है। अब यहाॅं कुछ अश’आर देखिए और समझिए किस दौर की झलक है ~

बैरन रीत बड़ी दुनिया की आँख से जो भी टपका मोती
पलकों ही से उठाना होगा पलकों ही से पिरोना होगा!

प्यारों से मिल जाएँ प्यारे अनहोनी कब होनी होगी
काँटे फूल बनेंगे कैसे कब सुख सेज बिछौना होगा!

क्यूँ जीते-जी हिम्मत हारें क्यूँ फ़रियादें क्यूँ ये पुकारें
होते होते हो जाएगा आख़िर जो भी होना होगा!

मीरा जी 1941 में लाहौर रेडियो स्टेशन पर मुलाज़मत करने लगे और एक साल बा’द उनका तबादला दिल्ली रेडियो स्टेशन पर हो गया । यहाॅं इन्हें डेढ़ सौ रुपए महीना मिलते थे और ये तीन साल यानी 1945 तक रहे । शाहिद अहमद देहलवी मीरा जी से मुताल्लिक़ लिखते हैं ~

“शुरू शुरू में जब उनकी शराब नहीं बढ़ी थी वो रुपये पैसे से भी बा’ज़ दोस्तों की मदद करते थे। तनख़्वाह में से कुछ पस-अंदाज़ करके अपने वालिद और छोटे भाई को भी कुछ भेजा करते थे, और ये छोटे भाई वही साहब थे जिन्होंने मीराजी की तमाम नज़्में चंद पैसों में बेच डाली थीं। हुआ ये कि उन्होंने सारे घर की रद्दी किसी फेरी वाले के हाथ में दो-तीन आने सेर के हिसाब से बेची और उसमें मीराजी की वो दो ज़ख़ीम कापियां भी तौल दीं जिनमें उनकी नज़्में लिखी हुई थीं। मीराजी ने लाहौर के तमाम रद्दी बेचने वाले छान डाले मगर वो मजमूए न मिलने थे न मिले। इसका उन्हें बेहद रंज पहुंचा, इतना कि उन्होंने अपना घर और अपने अज़ीज़ों को हमेशा हमेशा के लिए छोड़ दिया। जिस घर में उनके हुनर की ये तौक़ीर हो वो वहाँ कैसे रह सकते थे और जिनके हाथों उनके हासिल-ए-उम्र का ये हश्र हो भला वो उनसे मिलना कैसे गवारा कर सकते थे? घर तो घर उन्होंने लाहौर ऐसा छोड़ा कि फिर कभी उधर का रुख़ नहीं किया”

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ये 1945 का साल था कि मीरा जी तलाश-ए-मआश के सिलसिले में मुंबई जा पहुॅंचे । कई महीनों तक उन्हें कोई काम न मिला घूमते रहे बिन बुलाए से चले जाते और वक्त गुज़ारते । कहीं से पता चला अख़्तर उल ईमान पूना में रहते हैं तो वहाॅं चले गए उन्होंने ख़ूब इज़्ज़त ओ एहतराम से रखा लेकिन कोई काम न दिला सके और आख़िर में मीरा जी 1947 में वापस मुंबई आ गए। कुछ वक़्त बा’द अख़्तर उल ईमान ने रिसाला ‘ख़्याल’ निकाला इसका संपादक मीरा जी को बनाया और सौ रुपए महीना देने लगे । लेकिन मीरा जी की शराबनोशी नहीं छूट रही थी ,दिन रात पीते रहते और उनकी सेहत गिरती जाती ।

35 की उम्र में बाल सफ़ेद ज़ईफ लगने लगे थे । हालत ज़्यादा बिगड़ी तो अख़्तर उल ईमान अपने यहाॅं ले गए और सरकारी अस्पताल में भर्ती कर दिया। समझने लगे कि वक़्त ए आख़िर है तो माॅं से मिलने की ख़्वाहिश हुई लेकिन असमर्थ थे सो माॅं को याद करते हुए समंदर का बुलावा जैसी नज़्म तसनीफ़ हुई ।

ये सरगोशियाँ कह रही हैं अब आओ कि बरसों से तुम को बुलाते बुलाते मिरे
दिल पे गहरी थकन छा रही है
कभी एक पल को कभी एक अर्सा सदाएँ सुनी हैं मगर ये अनोखी निदा आ रही है
बुलाते बुलाते तो कोई न अब तक थका है न आइंदा शायद थकेगा
मिरे प्यारे बच्चे मुझे तुम से कितनी मोहब्बत है देखो अगर
यूँ किया तो
बुरा मुझ से बढ़ कर न कोई भी होगा ख़ुदाया ख़ुदाया
कभी एक सिसकी कभी इक तबस्सुम कभी सिर्फ़ तेवरी
मगर ये सदाएँ तो आती रही हैं…….

(समंदर का बुलावा से इक़्तिबास )

मीरा जी को दस्त की शिकायत रहने लगी थी , परहेज़ तो बिल्कुल नहीं करते थे । जिस अस्पताल में भर्ती थे वहीं पड़ोस के मरीज़ों से दाल चावल माॅंग कर खा लेते थे और एक बार मीरा जी ने एक नर्स की कलाई में काट लिया इसलिए क्योंकि उसने इन्हें अंडा खाने को नहीं दिया था।

अजीब से हरकतें करने लगे थे । आख़िरी कुछ दिनों में हालत ये कि चारपाई से पाख़ाने तक नहीं जा सकते थे। इसी अस्पताल में 3 नवंबर के दिन इंतक़ाल कर गए । अख़्तर उल ईमान को जब पता लगा कि मीरा जी नहीं रहे तो उन्होंने अख़बार के संपादकों से संपर्क किया लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद किसी अख़बार ने उनकी मौत पर एक पंक्ति प्रकाशित नहीं की । जनाज़े में मात्र पाॅंच लोग शामिल थे ~ अख़्तर उल ईमान,मधु सूदन, महेंद्रनाथ, नजम नक़वी, आनंद भूषण ।

मीरा जी का जीवन बहुत मुश्किलात में गुज़रा उन्होंने एक दुःख भरी लेकिन दूसरों से अलग ज़िंदगी गुज़ारी । मीरा जी को अपनी मुख़्तसर ज़िंदगी में मौलाना सलाहउद्दीन अहमद, शाहिद अहमद देहलवी, मंटो, यूसुफ़ ज़फ़र, अल्ताफ़ गौहर, मुख़्तार सिद्दीक़ी, राजा मेंहदी अली ख़ान, कृष्ण चंदर, महमूद निज़ामी इन सब का साथ मिला ।

मीरा जी की तसानीफ़ मीरा जी के गीत,मीरा जी की नज़्में,गीत ही गीत,पाबंद नज़्में,तीन रंग, मशरिक ओ मग़रिब के नग़्मे ,इस नज़्म में और निगार ख़ाना हैं ।

नई नज़्म के हवाले से मीरा जी कहते हैं ~

“नया शाइर अब एक ऐसे चौक में खड़ा है जिसके दाऍं बाऍं आगे पीछे कई रास्ते निकलते हैं “

मीर मिले थे मीरा जी से बातों में हम जान गए
फ़ैज़ का चश्मा जारी है हिफ़्ज उनका भी दीवान करें !