जब फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को इंग्लिश के पर्चे में 150 में से 165 नंबर मिले
थर्ड ईयर के इम्तिहान के बाद जब तालिब-ए-इल्म अपनी अपनी कापियाँ देख रहे थे तो फ़ैज़ की कॉपी पर 165 नंबर दर्ज थे। कोई हैरान हुए बग़ैर नहीं रह सका क्योंकि इम्तिहान सिर्फ़ 150 नंबरों का था।
थर्ड ईयर के इम्तिहान के बाद जब तालिब-ए-इल्म अपनी अपनी कापियाँ देख रहे थे तो फ़ैज़ की कॉपी पर 165 नंबर दर्ज थे। कोई हैरान हुए बग़ैर नहीं रह सका क्योंकि इम्तिहान सिर्फ़ 150 नंबरों का था।
2023 marks three hundred years of the legendary poet Meer Taqi Meer. A fresh wave of readers is turning to him, paying tribute to his poetic and linguistic legacy. In this festival of Meer’s life and poetry, a question is being asked more often than any other: Where is Meer’s final resting abode?
दिल्ली वक़्त जितना ही पुराना शह्र है। इस शह्र के सब से पुराने आसार तक़रीबन 300 क़ब्ल-ए-मसीह के आस-पास के हैं। ये शह्र हमेशा से तहज़ीब, तरक़्क़ी और फ़ुनून-ए-लतीफ़ा का मर्कज़ रहा है। इसी लिए, जब हम तारीख़ के पन्ने पलटते हैं तो पाते हैं कि इस शह्र ने जितने आली-मर्तबत लोगों को अपनी तरफ़ खींचा, उतने ही हम्लावरों को भी।
अब मुहल्ले का नाम बिल्लीमारों क्यों था? हालाँकि इस बात का कोई सुबूत नहीं मिलता लेकिन इस हवाले से एक बात ये कही जाती है कि एक ज़माने में यहाँ साहँसी या साँसी लोग रहते थे जो कुत्ते-बिल्लियों का गोश्त खाया करते थे। इसलिए इस मुहल्ले को ‘बिल्लीमारों’ का मुहल्ला कहा जाता है।
रूप की रुबाइयाँ एक और ज़ाविए से अहम हैं क्योंकि वो फ़िराक़ साहब की ज़िंदगी के अहम वाक़िए से जुड़ी हुई हैं। फ़िराक़ साहब और जोश साहब में गहरी दोस्ती थी लेकिन एक बार उनमें कुछ ऐसी अनबन हुई कि एक अर्से तक बात नहीं हुई। जब फ़िराक़ साहब दिल्ली से वापस इलाहबाद आए तो उन्होंने एक रुबाई कही थी।
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