Baat-Se-Baat-Chale

बात से बात चले, बकुल देव के साथ एक गुफ़्तगू!

नईम सरमद की बकुल देव के साथ एक अदबी गुफ़्तगू

नईम सरमद : आप एक इल्मी अदबी ख़ानवादे से ताल्लुक़ रखते हैं अपने और अपने अदबी सफ़र के बारे में मुफ़स्सल बताएं।

बकुल देव : सबसे पहले तो इस ख़ूबसूरत सिरीज़ को शुरूअ करने के लिये रेख़्ता फ़ाउंडेशन और आपका शुक्रिया।

इस सिलसिले के चलते अपने हमअस्रों को और क़रीब से जानने-समझने के मवाक़े तो मयस्सर आएंगे ही, साथ ही साथ गुफ़्तगू के दौरान उर्दू अदब और अदीबों के तख़्लीकी तर्ज़ो तरीक़ के नये पहलू भी सामने निकल कर आएंगे.. ऐसा मेरा मानना है।

दौराने गुफ़्तगू मेरी कोशिश रहेगी कि मैं पूरी संजीदगी और इमानदारी से आपके सवालों का जवाब दूं।

नईम भाई राजस्थान में एक इलाक़ा है जिसे शेखावाटी के नाम से जाना जाता है.. सीकर,चुरू और झुंझुनूं तीनों ज़िले मिल कर शेखावाटी कहलाते हैं।

मेरी पैदाइश, परवरिश और शुरूआती तालीम शेखावाटी में ही हुई है।

अदब का सिलसिला हमारे ख़ानवादे में मुझसे चार पीढ़ी और तक़रीबन सवा सौ बरस पीछे तक जाता है।

दादा के दादा बढ़ईगिरी के साथ साथ अदब और मौसीकी में दख़्ल रखते थे और अपने वक़्त में रावणहत्था (सारंगी के जैसा एक साज़) बजाने वाले गिने चुने लोगों में से थे।

परदादा राजस्थानी और हिंदी ज़बान के कवि थे, कोई सत्तर बरस पहले उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता का राजस्थानी ज़बान में शे’री तर्जुमा किया था।

दादाजी अफ़्सानानिगार थे, दादी राजस्थानी और हिंदी ज़बान में कविताएं कहती थी।

पापा हिंदी ज़बान के कवि हैं लेकिन दीगर अस्नाफ़ में भी उनका अच्छा ख़ासा दख़्ल है.. उनकी हिंदी शाइरी और नस्र के सात मज्मुए अब तक शाए’अ हो चुके हैं।

मम्मी लंबे वक़्त तक कॉलेज में संस्कृत की प्रोफ़ेसर रही हैं और हिंदी/राजस्थानी ज़बान में लिखती हैं.. मम्मी की कविताओं के भी तीन मज्मुए अभी तक शाए’अ हुए हैं.. और उनका राजस्थानी ज़बान में किया हुआ महाकवि कालिदास रचित “अभिज्ञान शाकुंतलम” का शे’री तर्जुमा काफ़ी मक़बूल हुआ है।

ग़रज़ यह कि..

पांचवी पुश्त है शब्बीर की मद्दाही में” !

इस अदबी माहौल के चलते हुआ ये कि काफ़ी छोटी उम्र में ही किताबों से शनासाई हो गई.. और धीरे धीरे ज़ेह्न की तासीर भी वैसी ही बनती गई।

गर्मी की छुट्टियों में हर बरस हमारे लिये शरतचंद्र, बंकिमचंद्र, बिमल मित्र, प्रेमचंद, बाबू देवकीनंदन खत्री, आचार्य चतुरसेन, अमृतलाल नागर जैसे अदीबों की किताबें आती और उन्हीं को पढ़ते पढ़ते हमारी छुट्टियां तमाम होती।

ये सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक तक हम कॉलेज की पढ़ाई के लिये मुख़्तलिफ़ शह्रों में नहीं चले गये।

घर में साइंस सब्जैक्ट से इंटरमीडिएट करने वाला पहला फ़र्द मैं था.. बारहवीं के बाद मैं RAJUVAS (Rajasthan University of Veterinary & Animal Sciences) में दाख़िले के लिये सीकर (जो मेरा आबाई वतन है) से बीकानेर चला गया।

बहुत कम लोगों को इल्म है कि मेरी पेशेवराना ता’लीम Veterinary & Animal Sciences में हुई है।

बीकानेर जाने तक तबीयत फ़लसफ़े और मिस्टिसिज़्म की ओर माइल हो चुकी थी। वहां गुज़ारे छ: बरसों में मैनें जे। कृष्णमूर्ति, स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस,आचार्य रजनीश और परमहंस योगानंद के साथ साथ रशियन अदीबों जिनमें टॉलस्टॉय, गोर्की, चेखव, दोस्तोवस्की और तुर्गेनेव शामिल हैं, का बहुत संजीदगी से मुतालआ किया।

इस वक़्त मुझे तक ग़ज़लें पढ़ने और सुनने का शौक़ ज़रूर था लेकिन उर्दू अदब या शाइरी से तख़्लीकी तौर पर मेरा कोई वास्ता नहीं था।

कभी कभार कुछ हिंदी कविताएं या गीत लिखा करता था लेकिन अस्ल रुझान अभी भी अदब का मुतालआ करने में ही था।

2005 के बाद मैंने मेडिकल एंट्रेंस एग्ज़ाम के तल्बा को ज़ूलॉजी पढ़ाना शुरूअ कर दिया और मुलाज़िमत के लिये भिलाई, छत्तीसगढ़ और फिर हैदराबाद जाने के बाद अदब से मेरा राब्ता लगभग टूट गया।

2008 में जयपुर आने के कुछ बरस बाद मैनें ग़ज़लें कहना शुरूअ किया।

उन दिनों जयपुर में “सुख़न” नाम से एक अंजुमन हुआ करती थी जिसमें हर महीने एक नशिस्त आरास्ता की जाती थी।मुझे पहली दफ़्अ उसी अंजुमन में ग़ज़ल पढ़ने को बुलाया गया था।

भाई आदिल रज़ा मंसूरी भी उस मह्फ़िल में मौजूद थे.. प्रोग्राम के इख़्तिताम पर आदिल भाई से जो गुफ़्तगू हुई उसके चलते मैं ग़ज़ल के क्राफ़्ट और उर्दू ज़बान दोनों को संजीदगी से और गहराई से सीखने की ओर माइल हुआ।

रामकिशन अडिग जो राजस्थान के मारूफ़ मुजस्सिमासाज़ और मुसव्विर हैं.. मेरे मामा भी हैं।
अपनी पेंटिंग एक्ज़िबिशन के लिये जब वो जयपुर आए हुए थे तब उन्होंने ये ग़ज़लें पढ़ीं और मुझे जयपुर में उर्दू अदब के कुछ लोगों से मिलने के लिये कहा। मनोज मित्तल कैफ़ साहब का नाम उनमें सरे फ़ेहरिस्त था।

कैफ़ साहब से मुलाक़ात हुई और फिर इसके बाद एक सिलसिला चल निकला। उनके यहां भी हर महीने नशिस्त हुआ करती थी.. जिसमें जयपुर के सभी अदीब शिरक़त किया करते थे। इन नशिस्तों में बह्स मुबाहिसे भी होते और शाइरी भी.. । इसी अरसे में मैनें बेशतर असातिज़ा का कलाम भी पूरी शिद्दत से पढ़ा।

धीरे धीरे ये असरार मुझ पर खुलने लगे कि शाइरी का शऊर या शाइरी की तमीज़ क्या होती है/होनी चाहिए।

कैफ़ साहब के मार्फ़त ही तुफ़ैल चतुर्वेदी जी से मुलाक़ात हुई जो उस वक़्त “लफ़्ज़” नाम से देवनागरी में शाइरी और तंज़ो मिज़ाह का मेयारी रिसाला निकाला करते थे।

तुफ़ैल साहब के यहां मेरी मुलाक़ात अलग अलग वक़्त पर विकास शर्मा राज़ भाई, नवीन चतुर्वेदी भाई, इरशाद भाई, स्वप्निल भाई, दिनेश नायडू, प्रखर मालवीय कान्हा, आलोक शर्मा और पूजा भाटिया से हुई.. उस वक़्त मैं बल्कि हम सभी बज़रिये तुफ़ैल साहब हज़रत ग़ुलाम हम्दानी मुसहफ़ी के ख़ानवादे से मंसूब हुए.. ये दीगर बात है कि बाद में बहुतों की राह अलग हो गई लेकिन ये कहने में कोई ग़लतबयानी न होगी कि शाइरी के मुतअल्लिक़ न जाने कितने ही हमअस्रों की ख़ासी ज़ेह्नी तर्बियत लफ़्ज़ पोर्टल के शामियाने तले हुई है।

लफ़्ज़ के मार्फ़त हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बेहतरीन शाइरों का कलाम पढ़ने को तो मिला ही.. साथ ही साथ अपने हमअस्रों, उनके उस्लूब/कहन और लफ़्ज़ियात को ले कर उनके तजरिबों से भी वाक़फ़ियत हुई।

“लफ़्ज़” का एक तरही मुशाइरा भी उस वक़्त हुआ करता था जिसमें लंबे वक़्त तक मैनें शिरक़त की।

तो क़िस्सा मुख़्तसर ये कि तब से ले कर अब तक ज़बान को सीखने का और समझने का सफ़र जारी है.. अदब को पढ़ने और उसका मुतालआ करने का काम तो बहुत पहले से चल ही रहा था.. गुजश्ता बरसों में फ़र्क़ बस इतना आया है कि पढ़ने के साथ साथ अपने तजरिबों को मुख़्तलिफ़ फ़ार्म्स में नज़्म करना भी सुक़ूनबख़्श लगने लगा है।

नईम सरमद : आपका कलाम पढ़ कर महसूस होता है गोया किसी क़दीम रिवायत को नए रंग में नए ढंग से सजा-बना कर ऐसे पेश किया गया है के वो एक नए आहंग और तौर में तश्कील हो रहा है। आपके यहाँ तख़लीक़ या तख़लीक़ी अमल किस तरह होता है?

बकुल देव : तख़लीक़ या तख़लीक़ी अमल एक अजीब वाक़या है.. ।क्यूं कि इसका कोई लगा बंधा निज़ाम मुमकिन नहीं है।

पहला मसअला तो ये है कि हम लिखते ही क्यूं हैं ? इस सवाल के जवाब में जार्ज ऑरवेल ने “Why I Write/ मैं क्यूं लिखता हूं” उन्वान से एक ख़ूबसूरत नस्र लिखी है जो सबको पढ़नी चाहिए।

ऑरवेल कहते हैं कि कोई आख़िर क्यूं लिखता है इसकी चार मुमकिन वजूहात हैं।

पहली है Sheer egoism.. या अनापरस्ती।

आप इसलिए लिखते हैं कि आप आलिम नज़र आएं.. इसलिए कि लोग आपके बारे में बातें करें.. इसलिए कि लोग आपको मरने के बाद भी याद रक्खें।

दूसरी है Aesthetic enthusiasm.. या जमालियाती जोश ओ ख़रोश।

आप इसलिए लिखते हैं कि शाइरी का अमल, अल्फ़ाज़ की नशिस्त ओ बर्ख़ास्त, उसका आहंग, उससे पैदा होने वाले मुख़्तलिफ़ मआनी आपको लुत्फ़ अंदोज़ करते हैं.. आपके लिए सामाने तस्कीन हैं।

तीसरी है Historical impulse.. तारीख़ी तसलसुल।

आप इस वज्ह से लिखते हैं कि या तो आप किसी अहसास/ वाक़ए/तारीख़ को उसकी अस्ल शक़्ल में रक़म करना चाहते हैं.. ।या किसी वाक़ए को अपने ज़ाविये से देख कर उसे दुनिया के सामने लाना चाहते हैं।

चौथी और आख़िरी वज्ह है Political purpose.. या सियासी मक़सद।

यहां सियासी लफ़्ज़ पॉलिटिकल पार्टीज़ से मंसूब नहीं है, आप इसलिए लिखते हैं कि आप मआशरे को या दुनिया को एक ख़ास फ़लसफ़ा एक ख़ास ideology मुहैय्या करवाना चाहते हैं.. और आप ज़ाती तौर पर मुतमइन हैं कि आदमीयत या तहज़ीब के लिये यही नज़रिया या ideology बेहतर है।

इन वुजूहात को इस मौज़ूअ पर आख़िरी बयान तस्लीम न भी करें तो भी इतना तो तय है कि इनसे इन्कार नहीं किया जा सकता।

अपने लिये कहूं तो इनमें से दूसरी और तीसरी वज्हें मरकज़ी कही जा सकती हैं।

जहां तक मेरे अपने कलाम की बात है.. उसके बारे में कहना मेरे लिये थोड़ा मुश्किल है.. कोई और उस पर तब्सिरा करे तो शायद ज़ियादा मुफ़ीद रहेगा।

हां कुछ चीज़ें हैं जिन पर बात की जा सकती है।

जैसा कि मैनें पहले भी अर्ज़ किया.. शुरुआती दिनों से ही मेरा झुकाव मंतिक़, मिस्टीसिज़्म और फ़लसफ़े की ओर ज़ियादा रहा है.. ज़िन्दगी के निहां असरार को खोजने और जानने की क़वायद मेरा पसंदीदा मश्गला रहा है.. । तो मेरा जो भी कलाम है उसका बेसिक कंटेंट यहीं से आता है।

शाइरी के मक़बूल मौज़ूआत जैसे कि इश्क़/सियासी तब्सिरे/मआशरे की तक़लीफ़ें और उसकी रहनुमाई/तरक़्क़ीपसंदी या वजूदियत तख़्लीक के हवाले से मुझे अपनी ओर माइल नहीं करते।

तजरिबे के लिए इन मौज़ूआत पर कभी कभार कोई शे’र या या कोई नज़्म कह दी हो तो बात अलग है।

मेरा ज़ियादा वक़्त तख़्लीक के बजाए मुख़्तलिफ़ सब्जैक्ट्स पर किताबें पढ़ने में गुज़रता है.. पढ़ने के साथ साथ एक एक क़िस्म की जद्दोजहद भी ज़ेह्न शुरूअ हो जाती है जो लंबे वक़्त तक चलती रहती है।

इस मुसलसल चलने वाले ज़ेह्नी कैथार्सिस के नताईज अक्सर ओ बेशतर तो इज़हार तक पंहुचते ही नहीं हैं.. लेकिन कभी कभार किसी मौक़े पर ये ग़ज़ल/नज़्म/नस्र की शक़्ल ले लेते हैं।

जहां तक उस्लूब की बात है वो मेरा अपना है लेकिन ज़बान और बयान के हवाले से मेरे यहां उर्दू अदब की क़दीम रवायत से इस्तिफ़ादा बिला शक़ ज़ियादा है।

नईम सरमद : एक बहुत मशहूर ओ मअरूफ़ सवाल के आप अच्छा शे’र किसे समझते हैं?

बकुल देव : नईम भाई.. ख़याल,लफ़्ज़ियात,बुनत,गढ़त,कहन और रद्दे अमल की तफ़्सीलात में न जाते हुए सिर्फ़ इतना कहना मुफ़ीद होगा कि अगर कोई शे’र आपके ज़ेह्न को मुतहर्रिक़ कर दे तो वो एक अच्छा शे’र है।

मीर का एक शे’र देखिये,

बहुत रंग मिलता है देखो कभू
हमारी तरफ़ से सहर की तरफ़

“सहर की तरफ़ देखने” और “हमारी तरफ़ से सहर की तरफ़ देखने” में जो फ़र्क़ है वही फ़र्क़ एक औसत और अच्छे शे’र में होता है।

एक अच्छा शे’र दरअस्ल एक कैटालिस्ट की तरह काम करता है.. वो आपके सोचने के तरीक़े और किसी बात को महसूस करने की शिद्दत को अलग आयाम अलग डायमेंशन अता कर देता है.. अच्छा शे’र दरहक़ीक़त आप को कहीं न कहीं बदल देता है।

आचार्य रजनीश कहा करते थे कि ज़ेह्नी सफ़र के तीन मराहिल हैं। विज्ञान, कला और आध्यात्म।

जैसे एक कविता के ये मिसरे देखिये,

चंदन सी महक उठे सांसें
आंसू अक्षत बन कर बिखरें

सपनों की राख़ तुम्हें छू कर
कुंकुम की लाली हो जाए

यदि साथ रहो तुम मेरे तो
हर रात दिवाली हो जाए !

पहला मरहला है विज्ञान/साइंस

अब साइंस इस कविता को नकार देगी.. क्यूं कि ये साइंटिफ़िकली मुमकिन नहीं है कि किसी की सांसों से चंदन की महक आने लगे,कि आंसू अक्षत/चावल की शक़्ल ले लें या राख़ कुमकुम में बदल जाए।

इसके बाद दूसरा मरहला आता है.. कला

कला कुछ नुक़्तों के साथ एक्सेप्टेंस के लेवल को बढ़ा देती है। शाइरी को आप इसी में शामिल कर सकते हैं।

मतलब ये कि राख़ कुमकुम में बदल सकती है.. बशर्ते उसे तुम छू लो!

कितनी ख़ूबसूरत बात है।

तो शाइरी ग़ैरमुमकिन बातों को भी क़ुबूल/तस्लीम कर लेती है.. लेकिन कुछ शर्तों के साथ।
ग़ैरमुमकिन या फ़र्ज़ी बातों को मआशरे की क़ुबूलियत के दायरे में लाने का कारनामा कला/आर्ट/शाइरी है।

तीसरा मरहला है आध्यात्म/मिस्टिसिज़्म

ये और आगे की बात है.. जहां ये उक़्दा खुलता है कि राख़ और कुमकुम दरअस्ल एक ही हैं।

तत्वमसि श्वेतकेतु!
(जो तुम हो वही मैं हूं.. हम में कोई भेद नहीं !)

तो ज़ेह्न को मुतहर्रिक़ कर देने से मेरी मुराद यही है कि शे’र एक कैटालिस्ट की तरह आपको एक से दूसरे मरहले की ओर ले जाए।

नईम सरमद : मुशायरों की रिवायत जो अपनी बदली हुई शक्ल के साथ आज भी मौजूद है को आप किस तरह देखते हैं। मुशायरों में आप कम ही नज़र आते हैं। क्या वजह है।

बकुल देव : मुशाइरे की रिवायत एक क़दीम रिवायत है जिसकी अपनी तारीख़ रही है।
गुजश्ता सदी में मुशाइरा क़िलों और हवेलियों के दालानों से बाहर निकल कर धीरे धीरे ऑडिटोरियम और खुले मैदानों में आ गया है।

ज़ाहिर है ऐसे में मुशाइरे का कंटेंट भी तब्दील हो जाएगा। एक वक़्त था जब मुशाइरे के सामईन भी कुछ चुने हुए अदीब ही हुआ करते थे.. तो शे’र सुनाते वक़्त शाइर अदीबों और आलिमों से ही मुख़ातिब होता था.. ।लिहाज़ा कंटेंट भी उसी मेयार का होना ज़रूरी था।

जैसे जैसे मुशाइरा खुले मैदानों में आया,सामईन की तादाद बढ़ती गई।

अब शाइर को जिसे एड्रेस करना है अगर वो आडिएंस ही पूरी तरह बदल जाएगी तो ज़ाहिर सी बात है उसे अपना कंटेंट भी बदलना पड़ेगा.. (अगर उसे मुशाइरा पढ़ना है और दाद हासिल करनी है तो.. )

फिर बीती चार दहाइयों में तो मुशाइरा धीरे धीरे एक परफ़ार्मिंग आर्ट में तब्दील हो चुका है।

लेकिन इस सिक्के का बस यही एक पहलू नहीं है।

जलसा सिफ़त मुशाइरों के साथ साथ अब भी ऐसे मुशाइरे ख़ासी तादाद में होते हैं जहां मुशाइरे और शाइरी के मेयार का पूरा ध्यान रक्खा जाता है।

ये दो पैरेलल धारे हैं जो एक साथ रवां रहते हैं।

जहां तक मेरा सवाल है.. मेरा ज़ेह्नी फ्रेमवर्क ही शायद कुछ ऐसा है।

ऐसा नहीं है कि मुशाइरों से मुझे कोई ज़ाती दिक़्क़त है.. लेकिन शुरूआती दिनों में मुशाइरा पढ़ने को ले कर जो एंथूसियाज़्म मुझमें था वो धीरे धीरे कम होता गया।

ये ख़्वाहिश भी न के बराबर ही रही है कि शाइरी या अदब के हवाले से लोग मुझे जानें और तस्लीम करें।

एक वज्ह ये भी हो सकती है कि कहीं न कहीं मुझे लगता है कि जिस क़िस्म की शाइरी मैं करता हूं वो सुने जाने से ज़ियादा पढ़े जाने से तअल्लुक़ रखती है।

हां ! मख़सूस नशिस्तों में शिरक़त करना मुझे हमेशा से ज़ियादा पसंद रहा है.. ऐसी नशिस्तें जहां कलाम पढ़ने के साथ साथ बेतक़ल्लुफ़ी से गुफ़्तगू भी की जा सके।

नईम सरमद : आप इन दिनों तर्जुमे पर भी कुछ काम कर रहे हैं उसके बारे में कुछ बताएं और तर्जुमा निगारी के फ़न और उसकी अहमियत पर भी रौशनी डालें।

बकुल देव : कोई दो बरस पहले सोशल मीडिया पर मैंने ब्रेख़्त की कविताओं के हिंदी तर्जुमे पढ़े थे जो हिंदी के ही एक मशहूर कवि ने किये थे।

अतुकांत कविता या नस्री नज़्म के फ़ार्मेट में किये गये ये तर्जुमे बेहद अजीब क़िस्म के तर्जुमे थे जिन्हें पढ़ने में बिल्कुल लुत्फ़ नहीं आ रहा था.. लुग़त से लफ़्ज़ उठा कर जुमले बना दिये गये थे.. सच कहा जाए तो न तो इन तर्जुमों को नस्र कहा जा सकता था और न ही नज़्म।

मैनें ब्रेख़्त की अस्ल कविताएं पहले जर्मन और फिर अंग्रेज़ी दोनों ज़बानों में पढ़ी.. ये वाक़ई बेहतरीन कविताएं थीं.. उसी वक़्त ये ख़याल आया कि क्यूं न उर्दू में इनके तर्जुमे किये जाएं।

अब दो बातें मेरे ज़ेह्न में थीं।

पहली तो ये कि तर्जुमे के बाद भी उर्दू की जो क्लासिकल रिवायत रही है नज़्मगोई की वो अपने पूरे आहंग पूरे कलेवर के साथ न केवल क़ायम रहे बल्कि पूरी तरह नज़र भी आए..

और दूसरी ये कि लफ़्ज़ियात की अक्कासी से क़ब्ल ख़याल की अक्कासी हो.. मतलब ये कि आप ख़याल को ज़रा भी न छेड़ें.. ख़याल का तसलसुल टूटना नहीं चाहिए।

तो मैंनें ख़याल को क़ायम रखने की कोशिश की.. ख़्वाह इसके लिये मुझे तश्बीहात,इस्तियारे और लफ़्ज़ियात बरतने में आज़ादी लेनी पड़े।

एक मिसाल से इसे समझने की कोशिश करते हैं.. ।

ताद्यूश रोज़ेविच की एक छोटी सी कविता है जिसका उन्वान है “Love 1944”

Love 1944

Naked defenceless
lips upon lips
eyes
wide open

listening

We drifted
across a sea
of tears and blood।

अब पहले इसका लफ़्ज़ियाती तर्जुमा देखते हैं,

बरहना,बेकस
होठों पर होठ
आंखें
पूरी तरह खुली

सुनते हुए

हमने पार किया
समंदर
आंसुओं और ख़ून का!

देखा जाए तो रोज़ेविच की जो अस्ल कविता है वो एक मंज़रकशी है.. एक वाक़ए का बयान है.. और कविता पढ़ते वक़्त आप अहसासात की उस शिद्दत को वाक़ई महसूस भी करते हैं जिसे दरअस्ल नज़्म किया गया है।

अब इस कविता के लफ़्ज़ियाती तर्जुमे में न तो वो शिद्दत है और न ही ख़याल पूरी तरह वाज़ेह हो पाया है.. उर्दू नज़्म में जो आहंग जो रवानी होनी चाहिए वो तो सिरे से ग़ायब है ही.. पढ़ने का लुत्फ़ भी तक़रीबन जाता रहा है।

अब मैंनें जो तर्जुमा इस कविता का किया है वो कुछ यूं है,

इश्क़ 1944

लबों पर लब टिके
हाथों से उलझे हाथ
खुली आंखों में
इक दूजे का चेहरा क़ैद

ख़मोशी में बला का शोरो गुल.. नापैद

बरहना जिस्म दो
जिनके मुक़ाबिल है मुख़ालिफ़ धार
लहू की आंसुओं की धार..

लबों पर लब टिके
हाथों में उलझे हाथ..
बरहना जिस्म दो करते हैं दरिया पार

सरे मझधार !

इस बात में कोई दो राय नहीं होनी चाहिए कि जो आहंग जो रवानी इस नज़्म में है वो पहले वाले तर्जुमे में नहीं है।

अस्ल कविता में केवल “खुली आंखों” का ज़िक्र है.. मैनें तर्जुमा किया है “खुली आंखों में इक दूजे का चेहरा क़ैद“..

और एक मिसरा इज़ाफ़ी लिखा है,

ख़मोशी में बला का शोरो गुल.. नापैद !

अब ये दोनों ही मिसरे कविता के मरकज़ी ख़याल को क़ायम रखते हुए बयान की शिद्दत में इज़ाफ़ा ही कर रहे हैं.. तो ये आज़ादी मैंने यहां ली है।

ऐसा नहीं है कि तर्जुमे के दौरान मैंने लफ़्ज़ियाती तर्जुमे का ध्यान नहीं रक्खा है.. अस्ल कविता के बेशतर अल्फ़ाज़ मैनें तर्जुमे के दौरान बरतने की कोशिश की है/बरते भी हैं.. लेकिन इतना तय है कि मेरा मक़सद लफ़्ज़ियाती तर्जुमा नहीं रहा है।

तर्जुमानिगारी के फ़न की अहमियत के मुतअल्लिक़ जो सवाल आपने पूछा है.. अहम सवाल है।

रूसी ज़बान के अज़ीम शाइर अलेक्ज़ेंडर पुश्किन का क़ौल है कि तर्जुमानिगार वो सवारी है जिस पर चढ़ कर आप एक तहज़ीब से दूसरी तहज़ीब का सफ़र करते हैं।

“Translators are horses changed at the posthouses of civilization।”

~ Pushkin

देखिये आम क़ारी बल्कि किसी अदीब की भी आलमी अदब से वाबस्तगी तर्जुमे के बग़ैर मुमकिन नहीं है।

वज्ह सीधी सादी सी है.. और वो ये कि हम आमतौर पर बयकवक़्त दो तीन ज़बानों से ज़ियादा ज़बानों पर उबूर नहीं रख सकते.. तो अगर हमें दीगर ज़बानों के अदब में दिलचस्पी है तो उसका एक ही रास्ता है.. । तर्जुमा।

रसूल हमज़ातोव की अवार ज़बान में लिखी क्लासिक “मेरा दाग़िस्तान” या तोलस्तोय की रूसी ज़बान में लिखी “अन्ना केरेनिना” को मैं अगर पढ़ पाया तो इसीलिए कि उनके बेहतरीन तर्जुमे मुझे मयस्सर थे।

ये ज़रूर है कि नस्र का तर्जुमा करना नज़्म या पोइट्री के तर्जुमे से अलग क़िस्म का क्राफ़्ट है.. ।लेकिन ये एक अलग बह्स है।

बीती सदी की आख़िरी पांच दहाइयों में तर्जुमे का बेहतरीन काम ख़ासे बड़े स्केल पर तक़रीबन पूरी दुनिया में हुआ है.. ज़ाहिर है तर्जुमानिगारों ने इस काम में अहम किरदार अदा किया है।

नईम सरमद : तख़लीक़ी तर्जुमा (Transcreation) के बारे में कुछ बताएं?

बकुल देव : ट्रांसक्रिएशन के लिए हिंदी में एक मुफ़ीद लफ़्ज़ है.. भावानुवाद। कहने का मतलब ये कि तर्जुमे के दौरान ज़बान बदल जाएगी.. लफ़्ज़ भी जुदा होंगे.. लेकिन फिर भी बात सौ फ़ीसद वही रहेगी।

मिसाल के तौर पर हमारे यहां एक कहावत है “जिसकी लाठी उसकी भैंस“।

अब अंग्रेज़ी ज़बान में इसका तख़लीक़ी तर्जुमा होना चाहिए “Might is right“।

इस कहावत का तर्जुमा ये नहीं किया जा सकता/किया जाना चाहिए कि “Buffalo belongs to the one who has the stick !”

कविता या शाइरी में अपनी बात मुक़म्मल तौर पर और ख़ूबसूरती के साथ कहने के लिये तश्बीह,इस्तियारे और मुहावरों-कहावतों का ख़ूब इस्तेमाल किया जाता है.. ये मुहावरे- कहावतें,तश्बीह और इस्तियारे तक़रीबन हर ज़बान में अलग होते हैं.. और इन पर इलाक़ाई असरात भी होते हैं।

मेरे देखे हर ज़बान की अपनी एक एक्स्प्रैसिव आइडेंटिटी होती है.. और इस एक्स्प्रैसिव आइडेंटिटी का दूसरी किसी भी ज़बान में लफ़्ज़ियाती/लुग़वी तर्जुमा मुमकिन नहीं होता।

अगर लुग़वी तर्जुमा किया भी गया तो नतीजा “Buffalo belongs to the one who has the stick !” के जैसा ही होगा।

कविता/शाइरी का तर्जुमा करते वक़्त यही बात ख़याल में रक्खी जानी ज़रूरी है।

रामधारी सिंह दिनकर की कर्ण के ज़ाविये से लिखा मशहूर ए ज़माना मज्मुआ रश्मिरथी ट्रांसक्रिएशन की ही एक मिसाल है.. जिसमें महाभारत की दास्तान के एक ख़ास हिस्से को उन्होंने ट्रांसक्रिएट किया है।

एक और बात यहां वाज़ेह करता चलूं कि ट्रांसक्रिएशन/भावनुवाद के इम्कानात बहुत वसीअ हैं.. बात केवल एक ज़बान से दूसरी ज़बान की ही नहीं है।

एक फ़ॉर्म ऑफ़ आर्ट का भी दूसरी फ़ार्म ऑफ़ आर्ट में ट्रांसक्रिएशन होता है।

गॉस्पेल की एक कहानी है जिसमें जीसस क्राइस्ट सूली पर चढ़ाए जाने की पिछली रात अपने शागिर्दों और चाहने वालों के साथ मिल कर खाना खाते हैं.. और इसी खाने के दौरान जीसस अपने सबसे ख़ास शागिर्द जुदास को रोटी का टुकड़ा देते हुए ये ऐलान करते हैं कि कल सुबह तुममें से कोई एक मेरे ख़िलाफ़ गवाही देगा.. ये वाक़या क्रिश्चियन माइथोलॉजी में एक अलग मुक़ाम रखता है।

लियोनार्दो दा विंची ने कोई पांच सौ बरस पहले इस वाक़ये पर एक हैरतअंगेज़ कर देने वाली पेंटिंग बनाई थी जो “The last supper” के नाम से मशहूर है.. और तारीख़ की अहम पेंटिंग्स में शुमार है.. अब इसे ट्रांसक्रिएशन न कहें तो और क्या कहें !

नईम सरमद : जदीद शायरी से आप क्या समझते हैं क्या यह अस्ल में कोई शय है या हर दौर में क़दामत-परस्त लोगों का नए तलबा को कमतर के ज़ुमरे में रखने का कोई तरीक़ा है?

बकुल देव : नईम भाई अदब में जदीदियत एक ऐसी बह्स है जो बेइन्तिहा तक़रीरों और मज़ामीन के बाद भी किसी नतीजे पर नहीं पंहुच सकी है.. मुआमला सह्ल तो नहीं है फिर भी एक और ज़ाविये से इसे समझने की कोशिश करते हैं..

जदीद लफ़्ज़ के मानी हुए आधुनिक या माडर्न.. सादा ज़बान में कहें तो जदीद वो है जिसमें नयापन हो या ताज़गी हो।

इसी बात को आगे बढ़ाएं तो जदीदियत वो शय है जो किसी भी जड़/रूढ़/साक़िन हो चुके निज़ाम को एक नयी राह दिखाए और वुसअत के इम्कानात पैदा करे।

अब इसमें अलमिया ये है कि नयी राह से बनने वाला नया निज़ाम भी देर सबेर जड़/रूढ़ हो जाना है.. फिर उसे भी बदलने की क़वायद शुरूअ हो ही जानी है।

जो आज जदीद नज़र आता है कल क़दीम हो जाना है.. जो आज क़दीम नज़र आता है यक़ीनन किसी दौर में जदीद रहा होगा।

तो जदीदियत एक क़िस्म का फ़्लक्स है.. मुसलसल मुतहर्रिक़ रहने वाली कोई शय है।

और इसीलिए अदब में जदीद लफ़्ज़ के मा’नी वक़्त के साथ साथ बदलते जाते हैं।

अब इसमें दो बाते हैं..

पहली ये कि ख़याल/ लफ़्ज़/ बयान/ मौज़ूआत/ कहन/ लह्जा/ रद्दे अमल.. नयापन या ताज़गी इनमें से किसी भी सत्ह पर मुमकिन है।

दूसरी ये कि किसी भी अच्छे शे’र में इनमें से किसी न किसी सत्ह पर नयापन होगा ही.. इस ताज़गी या नयेपन के बग़ैर बेहतर अदब/शाइरी की तख़्लीक ही मुमकिन नहीं है।

तो इस लिहाज़ से जदीदियत कोई जुदा शय न हो कर बेहतर और अच्छे अदब/ शाइरी का नफ़्सियाती पहलू/हिस्सा या इनहेरेंट प्रापर्टी है।

यहां एक और बात मैं कहना चाहता हूं कि लफ़्ज़ रवायत को अक्सर औक़ात जदीद के मुतज़ाद/विलोम के तौर पर समझा/इस्तेमाल किया जाता है.. ।मैं ज़ाती तौर पर इस बात से इख़्तिलाफ़ रखता हूं।

रवायत वसीअ लफ़्ज़ है जिसकी मौज़ूनियत/ एप्लिकेबिलिटी घर, महल्ले, शह्र, मुल्क़, मज़हब, तंज़ीम और न जाने कहां कहां हो सकती है।

रवायत दरअस्ल सिलसिलाबंदी के वसीले से पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता हुआ एक क़िस्म का तर्ज़े अमल है जिसके अपने अलामती मआनी होते हैं.. और ये अलामती मआनी उस अस्ल वज्ह की ओर इशारा करते हैं जिसके बाइस रवायत वजूद में आई।

शे’री अदब के हवाले से बात करें तो ऐसी बहुत सी रवायात हैं जो किसी न किसी वज्ह से वजूद में आई होंगी.. कुछ वक़्त के साथ साथ ख़त्म हो गईं और कुछ आज तक अमल में हैं।

अब इसमें बहुत सी मिसालें दी जा सकती हैं.. जिनकी तफ़्सीलात में जाना मेरे ख़याल से ज़ुरूरी नहीं है।

हां.. इस पर वक़्त ब वक़्त बात ज़ुरूर होती रहनी चाहिए कि कोई रवायत अगर बेमह्ल/ irrelevant हो चुकी है तो उसे ढोया जाना कहां तक मुनासिब है।

मेरे देखे किसी मुल्क़ के आईन/ संविधान की तरह अदब का भी एक ग़ैर तहरीरी आईन होता है जो मुल्क़ के आईन की तरह किताब की शक़्ल में नहीं होता.. बह्र और अरूज़ पर बेशक़ कई किताबें मौजूद हैं लेकिन शाइरी के सिंफ़ के मुतअल्लिक़ कोई मुक़म्मल आईन/ संविधान तहरीरी शक़्ल में हमारे पास नहीं है।

अब जदीदियत/ नयेपन के नाम पर शाइरी के इस ग़ैरतहरीरी आईन में कितनी और किस हद तक तरमीम की जा सकती है ये एक बह्सतलब मसअला है।

हमारी संसद/ पार्लियामेंट को मुल्क़ के आईन में तरमीम का हक़ मुल्क़ का आईन ही देता है लेकिन इस हिदायत के साथ कि आप ऐसी कोई तरमीम आईन में नहीं कर सकते जो आईन के बेसिक फ्रेम/ अस्ल ढांचे/ अस्ल अहसास/ मूल भावना को ही बदल दे।

तो मेरे देखे सिंफ़ ए शाइरी की भी एक बेसिक फ्रेम है.. एक अस्ल ढांचा है.. एक मूल भावना है.. और उसमें तरमीम नहीं की जानी चाहिए.. और इस सरहद तक अदब में क़दामतपरस्ती की ताईद भी की जा सकती है.. इसके आगे नहीं।

नईम सरमद : गुज़िश्ता ज़माने में उर्दू शोअरा की दस्तरस में आलमी अदब उस पैमाने पर नहीं था जैसे के अब है क्या आपको लगता है कि इसका कोई अच्छा या बुरा फ़र्क़ उर्दू शायरी पर पड़ा है?

बकुल देव : ये बात बहुत हद तक ठीक है कि बीसवीं सदी की शुरूआत तक उर्दू शाइरी मौज़ूआत के हवाले से अपनी रवायत तक ही महदूद थी।

इस वक़्त तक की ज़ियादातर शाइरी साक़ी ओ पैमाना,हिज्र ओ विसाल,आशिक़ माशूक़, रक़ीब, वाइज़ और दश्त में ख़ाक उड़ाने के वाक़यों से लबरेज़ थी।

इसकी बड़ी वज्ह उर्दू शोअरा की अपने क़बीले/हल्क़े से बाहर होने वाले दीगर अदबी तजरिबों से नाशनासाई ही थी।

मीर और ग़ालिब के बेमिसाल और मानीख़ेज काम के वावजूद इस सच से इन्कार नहीं किया जा सकता कि हाली और मुहम्मद हुसैन आज़ाद के पहले उर्दू अदब की आलमी अदब से वाबस्तगी न के बराबर ही थी।

इन दोनों ने ही पहली दफ़्अ उर्दू अदब की तन्क़ीद आलमी अदब के हवाले से की और उर्दू शाइरी में मौज़ूआत को बदले जाने की भी पुरज़ोर वक़ालत की।

इक़बाल पहले बड़े शाइर थे जिन्होंने आलमी अदब.. ख़ास तौर से मार्क्स और नीत्शे का संजीदगी के साथ मुतालआ किया.. उनकी शाइरी में इन दोनों की आइडियोलॉजी भी गाह गाह नुमायां होती रहती है.. नीत्शे का जो सुपरह्यूमन का कंसेप्ट था उसी ने इक़बाल के यहां शाहीन की शक़्ल ले ली।

इक़बाल के बाद के दौर में तरक़्क़ीपसंद तहरीक़ के फ़रोग के साथ साथ आलमी अदब के असरात उर्दू शाइरी में अच्छे से नुमायां होने शुरूअ हुए।

तरक़्क़ीपसंद तहरीक़ के मैनिफ़ैस्टो की बेशतर बातें यूनियन ऑफ़ सोवियत राइटर्स के डॉक्ट्राइन से ली गई थी।

प्लैखेनोव, गोर्की, मायकोवस्की, वाल्टर बैंजामिन, लू जुन और दीगर बैनुल अक़वामी अदीबों का इनफ़्लुएंस उर्दू शाइरी पर पड़ने लगा था।

मजरूह सुल्तानपुरी ने तो यहां तक कहा कि,

मेरी निगाह में है अर्ज़े मास्को मजरूह,
वो सरज़मीं कि सितारे जिसे सलाम करें !

इसी वक़्त अली सरदार जाफ़री के कहने पर ग़ुलाम रब्बानी ताबां ने “शिकस्ते ज़िंदां” उन्वान से एक शेरी मज्मुआ तरतीब दिया जिसमें उस वक़्त के बहुत से शाइरों की नज़्मों का इंतख़ाब किया गया था.. और ये नज़्में पूरी दुनिया के अलग अलग मुल्क़ों में मज़दूरों के मुख़्तलिफ़ मूवमेंट्स को ख़िराज देते हुए लिखी गई थीं।

इन सब की वज्ह से धीरे धीरे ग़ज़ल का कैनवस भी बड़ा हुआ और नज़्मों का रंग रूप भी बदला।

शाइरी अब मआशरे और सियासत के साथ साथ आदमीयत के वसीअ ख़याल से भी दो चार होने लगी.. तो जहां तक शाइरी पर पड़ने वाले फ़र्क़ की बात है.. मेरे देखे अच्छा ही फ़र्क़ पड़ा है।

एक क़िस्म की मज़ामीनी इजारेदारी से उर्दू शाइरी को जो नजात मिली है उसमें आलमी अदब के मुतालए का बड़ा हाथ है।

आज हालात बिल्कुल जुदा हैं।

अब तक़रीबन सारा आलमी अदब एक क्लिक से आपके कंप्यूटर की स्क्रीन पर आ जाता है.. ।दुनिया को मुख़्तलिफ़ ज़ावियों से जानने और समझने की इतनी सहूलत पहले कभी हमें मयस्सर न थी।

अगर मुतालआ करने का ज़ौक़ क़ायम रहे तो ये सहूलत कम अज़ कम ख़याल की सत्ह पर वुसअत के इम्कानात में इज़ाफ़ा ही करेगी.. और देर सबेर तख़्लीक पर भी अपने असरात ज़ाहिर करेगी.. ऐसा मेरा मानना है।

नईम सरमद : उर्दू और हिन्दी में जो दूरी है उसकी क्या मुमकिना वजुहात हैं जो आपको नज़र आती हैं। उर्दू के तलबा हिन्दी अदब कम ही पढ़ते हैं, हम देखते हैं कि हिन्दी के अदबी हल्क़ों में तो उर्दू और उर्दू शायरी पर कभी कभार बात भी होती है जबकि उर्दू और उर्दू के अदबी हल्क़े इससे महरूम हैं कि वहाँ हिंदी अदब पर बात भी हो।

बकुल देव : उर्दू और हिंदी अदब बल्कि किसी भी दूसरी ज़बान के बीच की जो दूरी है वो काफ़ी हद तक एकतरफ़ा है।

हिंदी ,अंग्रेज़ी, पंजाबी, बंगाली या किसी भी और ज़बान में होने वाले अदबी जलसों में अमूमन उर्दू को मुनासिब जगह दी जाती है.. लेकिन उर्दू जलसों में ये देखने को नहीं मिलता।

ग़ज़ल के सिंफ़ की इंतिहाई मक़बूलियत तो इसका बाइस है ही लेकिन हम कुछ और ज़ावियों से भी इसे समझने की कोशिश करते हैं।

एक ज़माने में हिंदी का मशहूर रिसाला आता था धर्मयुग.. उसमें जॉन एलिया की ग़ज़लें ख़ूब छपा करती थी।

यही रवायत हिंदी के बाक़ी रिसालों में पहले भी थी और अब भी है.. ग़ज़लें ,नज़्में, अफ़साने उनमें अक्सर शाएअ होते रहते हैं।

लेकिन मेरी जानकारी में उर्दू के किसी रिसाले में हिंदी कविताएं न तो पहले शाएअ होती थीं.. न ही अब नज़र आती हैं।

हिंदी के बहुत से कवि उर्दू शोअरा की देवनागरी में शाएअ होने वाली किताबों के मुदीर रहे हैं।

कहने का मतलब ये कि हिंदी अदब और हिंदी ज़बान के अदीबों ने तो उर्दू को बहुत ख़ुलूस के साथ अपनाया है.. और अपने प्लेटफ़ार्म्स पर उर्दू को अच्छी ख़ासी जगह दी है.. लेकिन उर्दू अदब ने इस ख़ुलूस को रेसीप्रोकेट नहीं किया है।

इसकी मुमकिन वजूहात पर ग़ौर करें तो बहुत सी बातें दिमाग़ में आती हैं।

पहली तो ये कि पिछले चालीस-पचास बरसों में जिस नयी कविता का उरूज हिंदी में हुआ है वो ख़याल और मज़ामीन की सत्ह पर बलंद ज़ुरूर हुई है लेकिन उसने अपने आहंग और लय को तक़रीबन खो दिया है।

नस्री नज़्म/अतुकांत कविता के फ़ार्मेट में लिखी ये कविताएं बेहतरीन मज़ामीन और आला ख़याल के बावजूद ग़ज़ल के बरअक्स किसी मुशाइरे में नहीं पढ़ी जा सकती.. इसके साथ साथ अलमिया ये भी है कि उर्दू मंचों से हिंदी ज़बान में जो कुछ भी पढ़ा जा रहा है उसे हिंदी वाले संजीदा अदब ही तस्लीम नहीं करते।

तो अदबी मिंबर के हवाले से एक क़िस्म की खाई यहां है।

दूसरा ये कि जिस तरह से उर्दू ग़ज़लों और नज़्मों को दुनिया भर में गाया जा रहा है उसका एक फ़ीसद भी हिंदी कविता को नहीं गाया जा रहा। (नस्री नज़्म के फ़ार्मेट में गाया जाना मुमकिन भी नहीं है।)

उर्दू शाइरी की आलमी शोहरत के लिये मेहदी हसन, ग़ुलाम अली, आबिदा परवीन, जगजीत सिंह, नुसरत फ़तेह अली ख़ान और दीगर गुलूकार और मौसीकार भी उतने ही ज़िम्मेदार हैं जितने ग़ालिब ओर मीर।

ग़ज़ल सुनने वाले हिंदी ही नहीं अंग्रेज़ी या किसी और ज़बान के अदीब भी उर्दू से एक क़िस्म का रिश्ता एक तरह की निस्बत महसूस करने लगते हैं।

तो हिंदी अदब और अदीबों के लिये उर्दू अदब या ग़ज़ल पर बात करना ख़ुशगवार होने के साथ साथ जितान आसान है उर्दू वालों के लिये हिंदी पर बात करना उतना ही मुश्किल।

तीसरी और आख़िरी वज्ह उर्दू अदीबों की ही हिंदी अदब से नाशनासाई और नावाक़फ़ियत है।

और हिंदी कविता का तो फिर भी उर्दू वाले कुछ हद तक मुतालआ करते हैं.. लेकिन कुछ मिसालों को छोड़ कर नावेल, डायरी, रिपोर्ताज, कहानी, आलोचना और हिंदी के दीगर असनाफ़ तक उनकी रसाई न के बराबर है।

मेरा ज़ाती ख़याल ये है कि जिस फ़राख़दिली के साथ उर्दू ज़बान ने दीगर ज़बानों के अल्फ़ाज़ को अपनाया है उतनी ही फ़राख़दिली उर्दू अदब को दीगर ज़बानों के अदब के लिये भी रखनी चाहिए।

नईम सरमद : बकुल साहब उस्तादी-शागिर्दी की एक रिवायत चली आ रही है इसके बारे में कुछ बताएं क्या किसी शायर के लिए उस्ताद का होना ज़रूरी है और अगर है तो कितना?

बकुल देव : नईम भाई.. मेरे देखे शाइरी सीखने के लिये तीन अहम बातों की ज़रूरत है।

पहली को हम कह सकते हैं शाइरी की तकनीक या ग्रामर.. जिसमें बह्र,रदीफ़-क़ाफिया, अरूज वग़ैरह आ जाते हैं।

दूसरी है शाइरी की ज़बान.. जिसमें ज़बान को बरतने का सलीक़ा, उस्लूब और कहन आ जाते हैं।

इन दोनों को आप सीख लें तो नब्बे फ़ीसद काम पूरा हो जाता है।

तीसरी है शे’रफ़हमी.. शाइरी/कही गई बात को समझने का शऊर.. जो सीधे तौर पर शाइरी करने के लिये ज़रूरी नहीं है.. लेकिन मुस्तनद शे’र कहने के लिये शेरफ़हमी सबसे अहम शय है।

पुराने वक़्त में शाइरी सीखने से मुतअल्लिक़ अदब तल्बा के लिये उस पैमाने पर मयस्सर नहीं था.. सो किसी उस्ताद का शागिर्द हो जाना सीखने का सबसे आसान तरीक़ा था।

आज के जो हालात हैं उनमें शाइरी सीखने के तक़रीबन तमाम औज़ार बड़े पैमाने पर हर किसी को मयस्सर हैं।

तो जहां तक शाइरी की तकनीक/ग्रामर की बात है.. बड़ा मसअला नहीं आप ख़ुद थोड़ी सी कोशिश कर के सीख सकते हैं।

ज़बान को अपने से सीखना थोड़ा मुश्किल काम है.. इस जुमले से कि ज़बान सीना ब सीना चलती है मैं काफ़ी हद तक मुत्तफ़िक़ हूं.. सो या तो आपकी तरबियत ऐसे माहौल में हो या आपको उन लोगों की सुह्बत मिले जिनसे आप ज़बान के एलीमेंट्स एब्ज़ार्ब कर सकें तो आप ज़बान अच्छे से सीख सकते हैं।

आलिमों के तब्सिरे, मज़ामीन और तनक़ीद पढ़ कर कुछ हद तक आप में शेरफ़हमी भी पैदा हो सकती है.. लेकिन शेरफ़हमी का बड़ा हिस्सा आपसी बह्स मुबाहिसों और तक़रीरों से पैदा होता है।

कुल मिला कर बात ये है कि उस्ताद लफ़्ज़ को अगर आप आब्जेक्टिव मआनी में ले लें तो ये समझना आसान हो जाएगा कि उस्ताद की ज़रूरत क्या और कितनी है।

आप का सवाल उस्तादी और शागिर्दी की जिस क़दीम रवायत के बारे में है उसमें सीखने के इलावा कई तरह के रस्मो रिवाज़ भी शामिल रहे हैं.. उनमें से बेशतर तो कम हो ही गये हैं.. क्यूं कि आज के हालात में उन कस्टम्स की कोई रिलेवेंस वाज़ेह नहीं होती।

बावजूद इसके उस्तादी शागिर्दी की रवायत के कई फ़ायदे भी थे/हैं।

उस्ताद आपके कलाम के पहले नक़्क़ाद होते हैं जो मुख़्तलिफ़ ज़ावियों से शे’र की छान फटक करते हैं और अगर कहीं कोई कमी है तो उसे दुरुस्त भी कर देते हैं.. ।शाइरी के क्राफ़्ट को ले कर आप बहुत सी बातें आप इस अमल के दौरान हुए मुबाहिसों से सीखते हैं।

गुज़रे ज़माने के ऐसे कई दिलचस्प क़िस्से हैं जिनमें उस्ताद ने इस्लाह के दौरान एक लफ़्ज़ या एक तरक़ीब में तरमीम की और शे’र क्या से क्या हो गया !

शाइरी या कोई भी फ़ार्म ऑफ़ आर्ट सीखने के लिये जिस नज़्म ओ ज़ब्त या डिसिप्लिन्ड लर्निंग और ख़ासे सब्र की दरकार होती है वो आज के वक़्त में बहुत नायाब हो चला है.. ऐसा महसूस होता है कि लोग बहुत जल्दी में हैं।

इस हवाले से भी उस्तादी शागिर्दी की ये क़दीम रवायत अपनी अहमियत रखती है।

कुल मिला कर बात ये है कि सीखना बहुत अहम है.. अब ये आपकी ज़ाती पसंद नापसंद पर मुनहसिर है कि आप रवायती तौर पर किसी को उस्ताद करना चाहते हैं मुख़्तलिफ़ वसीलों से इस फ़न को सीखना चाहते हैं।

एक ज़माने में मौसीक़ी के अलग अलग घरानों की तरह शाइरी के भी ख़ानवादे थे जो अपनी ख़ास ज़बान तर्ज़े बयान और उस्लूब से पहचाने जाते थे.. अब वो वक़्त नहीं रहा जब किसी एक ख़ानवादे से मंसूब होना और उसी उस्लूब में शाइरी करना शागिर्द के लिये फ़ख़्र का बाइस हुआ करता था।

ये दौर रवायतों की आमेज़िश और तजरिबों का दौर है.. सो हमें इसको इसी तरह देखना भी चाहिए।

नईम सरमद : नए लिखने वालों में आपको क्या इम्कानात नज़र आते हैं। आपके पसंदीदा नए शोअरा कौन हैं?

बकुल देव : नईम भाई मेरा इस बात में पुख़्ता यक़ीन है कि आज जो शाइरी की जा रही है वो गुजश्ता ज़माने की शाइरी के बरअक्स कई ज़ावियों से बहुत ज़ियादा इवोल्व्ड भी है और बेहतर भी।

यूं तो मैं और मेरे हमअस्र भी अभी पुरानी पीढ़ी में तस्लीम किये जाने लायक़ नहीं हैं.. और हम सब भी फ़न के तालिब ही हैं.. लेकिन आपके सवाल के जवाब में ये कहना ठीक होगा कि हमारे बाद के शाइर जिस संजीदगी से शे’र कह रहे हैं वो क़ाबिले तहसीन होने के साथ साथ हैरतकुन भी है।

विकास शर्मा राज़ भाई ने क़ाफ़िला ए नौबहार में जिन शोअरा का इंतख़ाब किया है वो सब अपने अपने रंग में बेहतरीन शाइरी कर रहे हैं.. और ज़ियादातर मेरे अज़ीज़ भी हैं.. जिनसे गाह गाह तबादला ए ख़याल भी चलता रहता है।

मिसाल के तौर पर कुछ शे’र देखिये जो अभी आपसे बात करते हुए मेरे ज़ेह्न में आ गये हैं,

मैं याद आऊंगा जैसे कि याद आते हैं,
किसी दरख़्त के साये में दिन गुज़ारे हुए।

आशू मिश्रा

न जाने किससे बिछड़े थे हम ऐसे,
ज़माने भर ने दिल रक्खा हमारा।

अंकित गौतम

हम हैं असीरे ज़ब्त इजाज़त नहीं हमें,
रो पा रहे हैं आप बधाई है ! रोइये।

अब्बास क़मर

मैं सितारा हूं मगर तेज़ नहीं चमकूंगा,
देखने वाले की आंखों की सहूलत के लिये।

अज़हर नवाज़

ये अनलहक़ भी मेरी मैं को गवारा नइं है,
उसकी जानिब से सदा आए कि मैं सरमद हूं।

नईम सरमद

क्या ही ख़ूबसूरत अशआर हैं..

और भी बहुत से शे’र हैं जो फ़िलवक़्त ज़ेह्न में नहीं आ रहे.. बहुत से नाम हैं.. सो सबका ज़िक्र न करते हुए बस इतना ही कहना चाहता हूं उर्दू शाइरी का मुस्तक़बिल यक़ीनन ताबनाक है।

नईम सरमद : अदब के नए तलबा को तख़लीक़ और मुतालए के ताल्लुक़ से क्या मशवरे देना चाहेंगे क्या मुताला करने का कोई तयशुदा तरीक़ा है?

बकुल देव : बेहतर अदब की तख़्लीक के लिये मुतालए, मुशाहिदे,मुबाहिसे और मशवरे सबकी अपनी अहमियत है.. ।लेकिन इन का कोई तयशुदा तरीक़ा या निज़ाम हो ऐसा नहीं है।

मुतालआ आपको ख़याली वुसअत अता करता है.. और मुशाहिदा आपके रद्दे अमल में नयापन पैदा करता है।

मुबाहिसे और मशवरे से आप उस मुह्मलगोई से बच जाते हैं जो इन दिनों हो रही शाइरी में गाह गाह नज़र आती रहती है।

तो ये सब चीज़ें एक अदीब के तौर पर आपके इवोल्यूशन के लिये ज़रूरी हैं।

शाइरी के लिये अगर आप असातिज़ा के कलाम के इलावा दीगर ज़बानों का अदब पढ़ेंगे तो यक़ीनन आपकी सोच समझ में इज़ाफ़ा ही होगा।

मशविरा बस इतना है कि ज़बान से मुहब्बत कीजिए.. इस दर्जा कि ज़बान ही आपका इंतख़ाब कर ले तख़्लीक के लिये।