हमारी ज़िन्दगी में भी बहर होती है

बहर के लुग़वी मआनी समन्दर या छन्द के हैं अगर ‘बहर-ए-ख़ुदा’ कहें तो यहाँ इसके मआनी ‘के लिए’ के होंगे या’नी ख़ुदा के लिए , मगर इस ‘बहर’ का इमला अलग होगा।

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का मशहूर शे’र है-

क़फ़स उदास है यारो सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बह’र-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले

या’नी मैं इस वक़्त जिस ज़िन्दान में क़ैद हूँ वहाँ उदासी ही उदासी है, कोई तो हवा से कुछ कहे। ख़ुदा के लिए कहीं तो मेरे यार का ज़िक्र चले।

आपने कभी आधी रात गए गहरी ख़मोशी में अपने घर की दीवार पर टंगी घड़ी की टिक-टिक सुनी है? तयशुदा वक़्त के वक़्फ़े में ही सुनाई देने वाली टिक- टिक, क्या कभी आपने घड़ी की टिक-टिक की रफ़्तार तेज़ या कम करने का सोचा है? क्या यह मुमकिन है? नहीं और किसी तौर आप इसे मुमकिन कर भी दें तो क्या आप तमाम ज़माने के साथ चल पाएँगे? नहीं बिल्कुल नहीं।

बहर क्या है? बहर घड़ी की टिक-टिक है। बह’र लय है, हू-ब-हू जैसे हमारी साँसों की लय, हमारी नब्ज़ की लय, हमारे दिल की धड़कन की लय, समन्दर की लहरों की लय, हवा का वेग, नदी का प्रवाह, ऋतुओं का बदलना, सुब्ह होना- दोपहर होना- शाम होना- रात होना और फिर सुब्ह होना।

देखा जाए तो हमारी तमाम ज़िन्दगी ही एक लय में है। साँसों की हो कि नब्ज़ की या दिल की धड़कन की लय अगर बिगड़ी तो बीमार हो गए बहुत बिगड़ी तो जान पे बन आई। समन्दर की लहरों की लय टूटी तो सुनामी आ गया, हवा लय में बहती है तो उसे पुरवाई कहते हैं अगर नहीं तो तूफ़ान और तूफ़ान पुरवाई से हर सूरत बुरा ही है, नदी की लय बिगड़ी तो सैलाब, ऋतुएँ अपने समय पर न बदलें तो इससे कौन ना-वाक़िफ़ होगा कि हमें अपनी आम ज़िन्दगी में कितनी दुश्वारियों से दो-चार होना पड़ता है। सुब्ह- दोपहर, शाम और रात ने अपने होने की लय कभी नहीं तोड़ी।

क्या आप नहीं जानते कि चाँद का घटना, घटते चले जाना और अमावस का आना, चाँद का उगना, बढ़ना और बढ़ते- बढ़ते उसका पूरा होना, पूर्णिमा आना एक लय में होता है।

बह’र क्यों ज़रूरी है? इस पर मज़ीद बहस करने से बेहतर है कि हम इसे ऐसे समझें कि हमें फ़िल्मों के गाने सबसे जल्दी याद हो जाते हैं। क्यों? क्यों कि वो एक लय में होते हैं। हमें कहानी का सार याद हो जाता है लेकिन उसका एक-एक शब्द उसी क्रम में याद नहीं होता जिस क्रम में उस कहानी में होता है लेकिन भारत में ऐसे न जाने कितने लोग होंगे जिन्हें पूरा ‘रामचरितमानस’ या ‘गीता’ याद होगी। क्यों? क्यों कि ये भी एक लय में लिखे गए हैं। कोई ग़ज़ल पूरी याद हो न हो लेकिन आपको उसके कुछ शे’र तो आसानी से याद हो ही जाते हैं, आज़ाद नज़्मों समेत तमाम नज़्में पूरी की पूरी आसानी से याद हो जाती हैं, आख़िर कैसे? क्यों कि वे भी एक लय में होते / होती हैं।

आप अपने आप से ईमानदारी से पूछ के देखिए आपको वो कविताएँ या लेख जो लय में नहीं लिखे गए होते हैं वो हू-ब-हू वैसे ही याद रह जाती हैं , जैसे आपने पढ़े होते हैं?

हमें यह सोच के देखना चाहिए कि ग़ज़ल, दोहा, चौपाई, सोरठा जैसी विधाएँ सिर्फ़ हमारी हिन्दी (या उर्दू) में ही लिखी जा सकती हैं। क्या आपने कभी सोचा है कि जो विधाएँ सिर्फ़ हमारी अपनी भाषा की विधाएँ है अगर वो नहीं रहेंगी तो हम कितने बड़े नुक़्सान की जानिब चले जाएँगे जिसकी भरपाई फिर कभी नहीं हो पाएगी।

बहरहाल बहर (या छन्द) ही तो वो वज्ह है जो उर्दू अदब को दो हिस्सों में तक़्सीम करता है एक नस्र दूसरी नज़्म। बा-बहर लिखा गया साहित्य ही पद्य की क़िस्म में आता है और ऐसा भी नहीं है कि बहर में रचा गया साहित्य नस्र से जुदा है।

बहर में कहा गया शे’र भी अच्छा तभी लगता है जब उसकी बुनाई नस्र-नुमा हो-

ग़ालिब का मशहूर शे’र है-

उग रहा है दर-ओ-दीवार पे सब्ज़ा ग़ालिब
हम बयाबाँ में हैं और घर में बहार आई है

हम आम ज़बान में भी तो ऐसे ही बात करते हैं ऐसा तो नहीं कहते कि ‘दर-ओ-दीवार’ पे है उग रहा सब्ज़ा ग़ालिब, आई है घर में बहार और बियाबाँ में हम हैं’

इरफ़ान सिद्दक़ी का शे’र है-

अजब हरीफ़ था मेरे ही साथ डूब गया
मिरे सफ़ीने को ग़र्क़ाब देखने के लिए

नस्र होती तब भी ये मिसरे लगभग ऐसे ही लिखे जाते, न कि ऐसे कि ‘मेरे ही साथ डूब गया अजब हरीफ़ था, ग़र्क़ाब मेरे सफ़ीने को देखने के लिए’

मीर का मशहूर शे’र है-

पत्ता-पत्ता बूटा- बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है

ग़ौर फ़रमाइए यहाँ बहर का दख़्ल होने के बावजूद बात नस्र की शक्ल में ही पेश की गई है। इस बात को यूँ लिखा जाए, या बोला जाए कि ‘हाल हमारा जाने है पत्ता-पत्ता बूटा- बूटा, बाग़ तो सारा जाने है जाने न जाने गुल ही न जाने’ तो कितना अजीब लगेगा, बल्कि ये बात अपने मआनी तक से हाथ धो बैठेगी।

काएनात में मौजूद तमाम अल्फ़ाज़ वही हैं उन्हीं से नस्र और नज़्म दोनों विधाएँ रची जाती हैं, छन्द में हुई तो पद्य वर्ना गद्य. बहर में शे’र कहना सिर्फ़ रियाज़त, ज़रा सा सब्र और मेहनत के इलावा कुछ नहीं माँगता। कोशिश करके तो देखिए।