जब दिलीप कुमार ने एक लफ़्ज़ में अपनी ऐक्टिंग का राज़ बताया
“ये कौन हँसता है फूलों में छुप कर
बहार बेचैन है किस की धुन पर”
ये बोल हमारे कान में पड़ते ही जो एक चेहरा सबसे पहले हमारे ज़हन पर छाता है वो दिलीप कुमार साहब का चेहरा है | हिंदी सिनेमा में ‘ट्रेजेडी किंग’ के नाम से मशहूर दिलीप साहब ने हिन्दुस्तानी सिनेमा को अपनी अदाकारी से कुछ इस क़दर नवाज़ा कि उनकी फ़िल्में आज तक लगभग सभी उम्र के लोगों को मुतअस्सिर करती रही हैं | हमेशा अपने होटों पर एक भीनी सी मुस्कान सजाने वाले दिलीप कुमार साहब का जन्म 11 दिसम्बर 1922 में ब्रिटिश भारत के पेशावर में हुआ था | इनका अस्ल नाम मुहम्मद युसूफ ख़ान था और उन्होंने अपने करियर की शुरुआत सन् 1944 में आई फ़िल्म ज्वार-भाटा से की | इस फ़िल्म से उन्हें ख़ास पहचान तो नहीं मिली लेकिन ये हुआ कि उनका सफ़र अदाकार के तौर पर शुरू हो गया | हालाँकि “ज्वारभाटा” के लगभग तीन बरस बाद फ़िल्म ‘जुगनू ’ एक कामयाब फ़िल्म रही, जिसमें वो और नूरजहाँ एक साथ काम कर रहे थे | इसके बाद ‘शहीद’, ‘मेला’, और ‘अंदाज़’ जैसी फ़िल्मों के बाद इन्हें एक कामयाब अदाकार के रूप में जाना जाने लगा | कई फ़िल्म क्रिटिक का मानना है कि दिलीप साहब की अदाकारी ‘मेथड एक्टिंग’ थी जिसके ज़रिये उन्होंने हिन्दुस्तानी सिनेमा की अदाकारी में ‘रियलिज़्म’ क़ायम किया |
अपने एक इंटरव्यू में दिलीप साहब बताते हैं कि उनके वालिद फ़िल्मों के सख़्त खिलाफ़ थे | हालाँकि उनके दोस्त ‘लाला बसेश्वर नाथ’ के साहब-ज़ादे जिन्हें दुनिया ‘पृथ्वीराज कपूर’ के नाम से जानती है, फ़िल्मों में अदाकारी किया करते थे | इस पर दिलीप साहब के वालिद अक्सर लाला साहब से शिकायत किया करते थे कि उनके साहब-ज़ादे ये क्या काम कर रहे हैं ? ग़ालिबन यही वजह थी कि दिलीप साहब ने फ़िल्मों में काम करना शुरू किया, तो उस दौरान अपने वालिद की नाराज़ी से बचने के लिए उन्होंने परदे पर अपना नाम “यूसुफ़ ख़ान” इस्तेमला न करने की बात कही थी | लगभग तीन महीने के बाद उन्हें इश्तेहार से ये जानकारी हासिल हुई कि परदे पर उनका नाम दिलीप कुमार रक्खा गया है |
आप सभी को शायद इस बात की जानकरी हो कि दिलीप साहब को उर्दू से बेहद गहरा लगाव था | उन्हें शेरो-शायरी में ख़ासी दिलचस्पी थी | टॉम अल्टर साहब एक जगह फ़रमाते हैं कि एफ़-टी-आई-आई से अदाकारी की डिग्री हासिल करने के बाद जब उनकी मुलाक़ात दिलीप साहब से हुई, तो उन्होंने दिलीप साहब से पूछा, “दिलीप साहब अच्छी एक्टिंग का राज़ क्या है ?” दिलीप साहब ने उन्हें एक बेहद सादा सा जवाब दिया था, “शेर ओ शायरी”| बक़ौल टॉम अल्टर साहब, वो इस जवाब के पीछे का राज़, इस जवाब की सच्चाई ता-उम्र ढूँढा किए, लेकिन एक बात ज़रूर उन की समझ में आई कि हर फ़नकार अपने फ़न के ज़रिए कुछ न कुछ कहना चाहता है | वो क्या कहना चाहता है, ये एक बात है और कैसे कहना चाहता है ये एक बात | शेर-ओ-शायरी हमारे ज़हन को पुख़्ता करने का सबसे आसान और असरदार तरीक़ा है | शायर एक ही बात को चार अलग-अलग मिसरों में चार अलग इस्तेयारे में कह सकता है | तो क्या ये मुमकिन नहीं कि एक अदाकार भी अपनी कोई बात चार अलग ‘एक्सप्रेशन’ से बयान करे | अदब और शायरी हमारे सोचने के तरीक़े को एक मुख़्तलिफ़ क़िस्म की गहराई अता करती है | जिसका इस्तेमाल कोई फ़नकार न सिर्फ़ अपने फ़न को सँवारने के लिए करता है, बल्कि ज़िन्दगी के तमाम मसाइल को समझने और उससे निबटने के लिए भी करता है |
दिलीप साहब जिस परिवार से तअल्लुक़ रखते थे, वहाँ अदाकारी सीखने की बात भी नहीं की जा सकती थी, अदाकरी की तालीम लेना तो दूर की बात थी | ऐसे में उन्होंने अदब और शायरी से अपना रिश्ता क़ायम किया और काफ़ी किताबें पढ़ीं | फिर जब और जैसा किरदार मिला, अपने अदबी ख़ज़ाने के सहारे वो रूप धारण कर लिया | फ़िल्मों में एक कामयाब अदाकार बन जाने के बाद भी वो मुशायरों में शिरकत करते थे | मुशायरों में जब उन्हें स्टेज पर बुलाया जाता, और वो गुफ़्तुगू करते तो ऐसा लगता कि ज़बान से फूल झड़ रहे हों | एक मुशायरे में दिलीप साहब ने अल्लमा इक़बाल की नज़्म “तुलुअ-ए-इस्लाम” से एक शेर पढ़ा,
जहाँ में अहल-ए-ईमाँ सूरत-ए-ख़ुर्शीद जीते हैं
इधर डूबे उधर निकले उधर डूबे इधर निकले
और कहा, “वो कैफ़ियत जो अहल-ए- ईमान की है, वो इस (उर्दू) ज़बान की भी है |” ऐसे न जाने कई क़िस्से होंगे जो दिलीप साहब की उर्दू के लिए मुहब्बत को बयान करते हों |
आज के इस डिजिटल दौर में, ऐसी हस्तियों का मिलना, जो लगभग हर तरह के फ़न-ए-लतीफ़ा में न सिर्फ़ दिलचस्पी दिखाए, बल्कि उन फ़ुनून की अहमियत भी समझे, शायद बेहद कम ही हो |और ऐसे में जनाब दिलीप कुमार साहब हमेशा हम सभी के पसंदीदा अदाकार और शख्सियत बने रहेंगे|
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