Ghazal-aur-Daccan

ग़ज़ल और दक्कन

तारीख़ बताती है, कि हिन्दुस्तान में न केवल ग़ज़ल बल्कि उर्दू का पहला शाइर अमीर ख़ुसरो था। ग़ज़ल की तारीख़ देखें, तो मा’लूम होता है ग़ज़ल क़सीदे के बा’द की ईजाद है। ग़ज़ल और क़सीदे में बुनियादी फ़र्क़ फ़क़त इतना है, कि क़सीदा एक ही मौज़ूअ पर किसी की ता’रीफ़ या मज़म्मत करने की ग़रज़ से लिखा जाता है और ग़ज़ल का हर एक शे’र और उसका मज़्मून एक मुख़्तलिफ़ मौज़ूअ होता है।

क़सीदे में अशआर की ता’दाद महदूद नहीं है लेकिन ग़ज़ल में उमूमन कम- अज़- कम 5 और ज़ियादा से ज़ियादा 15 शे’र कहने की क़दीम रिवायत है। हालाँकि ग़ज़ल में अशआर की ता’दाद महदूद क्यों है? इसकी कोई पुख़्ता वज्ह नहीं है। फ़ारसी के दो अहम् शाइर अबुल क़ासिम ‘फ़िरदौसी’ और ‘अनवरी’ जिनका पूरा नाम अवहद उद्दीन अली इब्न मोहम्मद ख़ावरानी’ है, ने ग़ज़ल को मख़्सूस पहचान दिलाई। उसके बा’द हिन्दुस्तान में ग़ज़ल का ज़िम्मा ख़ुसरो के तख़्लीक़ी दिमाग़ ने सम्भाला। आमतौर पर कहा जाता है, कि ग़ज़ल की इब्तदा दिल्ली से हुई। हो सकता है, लेकिन ऐसा भी कहा जाता है, कि ग़ज़ल की शुरुआत दक्कन से हुई। 17 वीं सदी से पहले उर्दू शाइरी गुजरात, दिल्ली, दक्कन हर जगह हो रही थी लेकिन कहीं ग़ज़ल मौजूद नहीं थी। आम- तौर पर मसनवी लिखने का रिवाज था। मसनवी के बा’द ग़ज़ल की शुरुआत ख़ास- तौर पर दक्कन के शाइर ‘क़ुली क़ुतुब शाह’ ने की। क़ुली क़ुतुब शाह के अलावा ‘वली मोहम्मद वली’, ‘क़ाज़ी महमूद बेहरी’ और ‘फ़ज़लुर्रहमान’ भी अहम् नाम हैं जिन्होंने ग़ज़ल की भीगी ज़मीन को सर- सब्ज़ करने में ख़ास किरदार अदा किया।

दक्कन की शाइरी की सम्त देखें तो हम पाएँगे कि आज का नौ- जवान उसे पसन्द नहीं करेगा। बा- सबब कि वहाँ ज़बान की अदायगी नई नस्ल के लिहाज़ से माक़ूल नहीं है। आज की नस्ल अपनी जगह बल्कि ‘मीर तक़ी मीर’ ने भी लिखा है- ‘मैं अपने तज़किरे में दक्कन के शोअरा का नाम नहीं लिखना चाहता। क्यों कि वहाँ कोई शाइर है ही नहीं और अगर हो भी, तो वो दो मिसरे भी ठीक से नहीं लिख सकता है।’

मीर इस तरह की बातें करने के लिए मशहूर रहे हैं। मीर से मंसूब एक मज़ेदार वाक़िआ और है:

जब लखनऊ में किसी ने मीर से पूछा कि आपकी नज़र में कौन- कौन शाइर हैं? तो कहने लगे दो ‘एक मैं और दूसरा ‘सौदा’ (मिर्ज़ा मोहम्मद रफ़ी सौदा)’ कुछ देर चुप रहे फिर बोले ‘और आधा ‘ख़्वाजा मीर दर्द’।’ पूछने वाले ने जब पूछा ‘और मीर सोज़’? मीर भवें टेढ़ी करके बोले मीर सोज़ भी कोई शाइर है? पूछने वाले ने कहा ‘आख़िर नवाब आसिफ़ उद्दौला के उस्ताद हैं।’ बोले ‘ख़ैर तो पौने तीन सही’।

बहरहाल !

दक्कन की शाइरी और दिल्ली या लखनऊ की शाइरी में ज़बान के साथ- साथ एक अहम् फ़र्क़ ये भी है कि दक्कन की शाइरी में मुतकल्लिम औरत और मर्द दोनों तरह से पाया जाता है बल्कि वहाँ एक ख़ास रिवायत रही कि मुतकल्लिम औरत और उसका माशूक़ मर्द होता था।

पिया के नयन में बहुत छन्द है
औ वू ज़ुल्फ़ में जी का आनन्द है

क़ुली क़ुतुब शाह

यहाँ मुतकल्लिम औरत है इसके अलावा शे’र की ज़बान पर ग़ौर किया जाए तो फ़र्सूदा- सी मा’लूम होती है।

बल्कि मीर, ग़ालिब की ज़बान समझ में न आने के बावजूद हमें हमारी अपनी ज़बान लगती है।

अब कर के फ़रामोश तो नाशाद करोगे
पर हम जो न होंगे तो बहुत याद करोगे

मीर

तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता

मोमिन

इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं

ग़ालिब

दिल्ली से तअल्लुक़ रखने वाले तीनों अज़ीम शोअरा के अशआर में ज़बान के इलावा ग़ौर करने का मौज़ूअ ये है, कि यहाँ मुतकल्लिम का जेंडर साफ़ नहीं किया गया है।

ग़ज़ल में मुतकल्लिम और माशूक़ के जेंडर का इज़हार न करने के पीछे एक ख़ास वज्ह ये है, कि उसका इज़्हार करने से शे’र के मआनी महदूद हो जाते हैं।

अब कर के फ़रामोश तो नाशाद करोगी
पर हम जो न होंगे तो बहुत याद करोगी

तुम मेरे पास होती हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होती

इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा
लड़ती है और हाथ में तलवार भी नहीं

ज़ाहिर है, कि मीर, मोमिन और ग़ालिब के अशआर में और माशूक़ के जेंडर का खुल कर इज़्हार करने से मआनी महदूद हो गए, शे’र कमज़ोर हो गए और मोमिन का शे’र एक तरह का वाहियात मज़्मून में तब्दील हो गया।

ये और बात है, कि शाइरी की ज़बान के intellectualization में दिल्ली का बहुत बड़ा हाथ है लेकिन इस बात से भी नहीं मुकरा जा सकता कि ग़ज़ल की परवरिश दक्कन में हुई। ज़बान का मसअला दर- किनार कर दिया जाए, तो ऐसा नहीं है, कि वहाँ की ग़ज़ल में मज़्मून की कोई कमी रही है।

पिया बाज प्याला पिया जाए ना
पिया बाज यक तिल जिया जाए ना

बाज- बिना
तिल- लम्हा

(शे’र का सतही मआनी हुआ- पिया के बिना जाम नहीं पिया जाता है, पिया के बिना एक पल जिया नहीं जाता लेकिन शे’र का रदीफ़ इस मआनी को पूरी तरह से पलट देता है और बात यूँ बनती है: कि आज पिया के बिन जाम भी पिया जाए और एक पल जी कर भी देखा जाए।)

क़ुतुब शाह दे मुज दिवाने को पन्द
दिवाने कूँ कुच पन्द दिया जाए ना

पन्द- नसीहत, सलाह

(इस आसान- से शे’र में तमाम मआनी निहाँ हैं। एक तो यही कि मुझ दीवाने को कोई नसीहत दे रहे हो? दीवाने को नसीहत नहीं दी जाती। दूसरा ये कि मुझ दीवाने को कुछ नसीहत दो, समझाओ मुझ दीवाने को नसीहत दी जाए ना। तीसरा ये कि कोई क़ुतुब शाह से कह रहा है, कि मुझ दीवाने को कोई नसीहत दो और जवाब में क़ुतुब शाह कहते हैं, कि दीवानों को नसीहत नहीं दी जाती। चौथा ये कि वो कहते हैं, कि मुझ दीवाने को कोई नसीहत दी जाए, दीवानों को नसीहत क्यों नहीं दी जाती?)

हालाँकि कहीं- कहीं मक़्ते का सानी ऐसा भी पढ़ने को मिलता है:

‘क़ुतुब शह न दे मुज दिवाने को पन्द’ अगर वाक़ई ये मिसरा ऐसा है, तो शे’र अपने तमाम मआनी से जाता रहेगा।

‘वली मोहम्मद वली’ के लिए ‘मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी’ ने हातिम के हवाले से लिखा है, कि जब वली का दीवान अहल- ए- दिल्ली के दरमियान पहुँचा तब दिल्ली के लोगों में ये चर्चा आम हो गया कि उर्दू शाइरी ऐसी होती है। उसके बा’द दिल्ली में वली को बदनाम करने के लिए तरह- तरह की कहानियाँ बनाई गईं बल्कि ये तक कह दिया गया कि वली जब दिल्ली आए तो ‘शाह गुलशन’ जो उनके उस्ताद थे, ने उन्हें तज्वीज़ किया कि फ़ारसी में इतना सब लिखा हुआ है, उसे उर्दू में क्यों नहीं लाते और इसी बिना पर वली की शाइरी को ये रंग हासिल हो सका। पढ़ने- सुनने में आता है कि इस कारनामे को भी मीर तक़ी मीर ने ही अंजाम दिया था बल्कि शोअरा के मुताल्लिक़ मीर जो तज़्किरा लिखा था, उसमें वली के बारे में एक फ़िक़रा लिखा:

वह शाइरेज़ अर शैतान मशहूर तर (That poet is more famous than the devil)

तब मुसहफ़ी ने इसके बहुत बा’द इसके जवाब में एक शे’र कहा:

होना बहुत आसान है शैतान से मशहूर
पर हो तो ले अव्वल कोई दुनिया में वली- सा

वली के कुछ अशआर:

राह- ए- मज़्मून- ए- ताज़ा बन्द नहीं
ता क़यामत खुला है बाब- ए- सुख़न

(वली का ये शे’र जैसे इन उनके बारे में फैलाई गईं तमाम अफ़वाहों का जवाब हो। वो कहते हैं, कि शाइरी के नए मज़्मून तलाशने की राह बन्द नहीं हुई है। क़यामत के दिन तक सुख़न में नए मज़्मून आते रहेंगे।)

ख़ूब- रू ख़ूब काम करते हैं
यक निगह में ग़ुलाम करते हैं

(ये सुन्दर चेहरे क्या ख़ूब काम करते हैं, कि एक नज़र में अपना ग़ुलाम बना लेते हैं।)

पी के बैराग की उदासी सूँ
दिल पे मेरे सदा उदासी है

सूँ या’नी से

(बैराग की उदासी पीने से ही मेरे दिल में हमेशा उदासी छाई रहती है। बैराग की उदासी को पीकर उदास रहना अपने आप में एक नया मज़्मून है।)

अय नूर- ए- जान- ओ- दीदा तिरे इन्तज़ार में
मुद्दत हुई पलक सूँ पलक आश्ना नईं

नूर- ए- जान- ओ- दीदा या’नी ज़िन्दगी और आँखों की रौशनी (light of life and eyes)

(मेरी ज़िन्दगी मेरी आँखों के नूर तेरा इन्तज़ार मुझ पर इस क़दर गिराँ है, कि मेरी आँख की दोनों पलकें एक दूसरे से अजनबी हो गई हैं। एक दूसरे से मिलती नहीं हैं। या’नी वली ने अपनी माशूक़ा के दौरान- ए- इन्तेज़ार एक मुद्दत से पलक नहीं झपकी है। पलक का पलक से ना- आशना होना मज़्मून के लिहाज़ से तब तो नई बात थी ही बल्कि आज भी ये मज़्मून जदीद- तरीन है।)

दिल कूँ तुझ बाज बे- क़रारी है
चश्म का काम अश्क- बारी है

(दिल को तेरे बिना बे- क़रारी है और इस हाल में मेरी आँखें सिवाए आँसू बहाने के कोई काम नहीं कर रही हैं।)

इस ज़मीन पर वली के बा’द ग़ालिब से लेकर जौन एलिआ तक तमाम बड़े शोअरा ने ग़ज़लें कही:

फिर कुछ इक दिल को बे- क़रारी है
सीना जूया- ए- ज़ख़्म- ए- कारी है
वही सद- रंग नाला- फ़रसाई
वही सद- गोना अश्क- बारी है

ग़ालिब

बे- क़रारी सी बे- क़रारी है
वस्ल है और फ़िराक़ तारी है

जौन एलिया

किया मुझ इश्क़ ने ज़ालिम कूँ आब आहिस्ता आहिस्ता
कि आतिश गुल कूँ करती है गुलाब आहिस्ता आहिस्ता

वली की इस ज़मीन पर तो नहीं लेकिन इस बह’र इस रदीफ़ पर उनके बा’द इफ़रात ग़ज़लें कही गईं:

सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
निकलता आ रहा है आफ़्ताब आहिस्ता आहिस्ता
अमीर मीनाई

घटेगा तेरे कूचे में वक़ार आहिस्ता आहिस्ता
बढ़ेगा आशिक़ी का ए’तिबार आहिस्ता आहिस्ता
हसरत मोहानी

उगा सब्ज़ा दर- ओ- दीवार पर आहिस्ता आहिस्ता
हुआ ख़ाली सदाओं से नगर आहिस्ता आहिस्ता
मुनीर नियाज़ी

बरस कर खुल गया अब्र- ए- ख़िज़ाँ आहिस्ता आहिस्ता
हवा में साँस लेते हैं मकाँ आहिस्ता आहिस्ता

अहमद मुश्ताक़

खुलेगी उस नज़र पे चश्म- ए- तर आहिस्ता आहिस्ता
किया जाता है पानी में सफ़र आहिस्ता आहिस्ता

परवीन शाकिर

गली कूचों में जब सब जल- बुझा आहिस्ता आहिस्ता
घरों से कुछ धुआँ उठता रहा आहिस्ता आहिस्ता

सय्यद मुनीर

रुख़- ए- रौशन से यूँ उट्ठी नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
कि जैसे हो तुलू- ए- आफ़्ताब आहिस्ता आहिस्ता

वहशत रज़ा अली कलकत्तवी

दहन खोलेंगी अपनी सीपियाँ आहिस्ता आहिस्ता
गुज़र दरिया से ऐ अब्र- ए- रवाँ आहिस्ता आहिस्ता

अब्बास ताबिश

बना हुस्न- ए- तकल्लुम हुस्न- ए- ज़न आहिस्ता आहिस्ता
बहर- सूरत खुला इक कम- सुख़न आहिस्ता आहिस्ता

शाज़ तमकनत

खुला हर मंज़र- ए- फ़िक्र- ओ- नज़र आहिस्ता आहिस्ता
छटा आख़िर ग़ुबार- ए- रहगुज़र आहिस्ता आहिस्ता

इक़बाल अंजुम

बढ़ा तन्हाई में एहसास- ए- ग़म आहिस्ता आहिस्ता
हमें याद आए सब अहल- ए- करम आहिस्ता आहिस्ता

सय्यद मुबीन अल्वी ख़ैराबादी

बुझी है आतिश- ए- रंग- ए- बहार आहिस्ता आहिस्ता
गिरे हैं शोला- ए- गुल से शरार आहिस्ता आहिस्ता

असलम अंसारी