जाने का नहीं शोर सुख़न का मेरे हरगिज़ : मीर तक़ी मीर
ज़ुल्फ़ सा पेचदार है हर शे’र
है सुख़न मीर का अजब ढब का
मीर तक़ी मीर, जिन्हें ख़ुदा-ए-सुख़न भी कहा जाता है, उर्दू के सबसे बड़े शा’इर हैं। मीर को ये दर्जा केवल उनकी शा’इरी की वजह से नहीं, ज़बान की इर्तिक़ा में उनके योगदान की वजह से भी हासिल है। शा’इरी का हर रंग उनके यहाँ नुमायाँ मिलता है, और इस लिहाज़ से वो उर्दू के वाहिद मुकम्मल शा’इर कहे जा सकते हैं। बक़ौल अली सरदार जाफ़री, “ग़ालिब की शा’इराना अज़्मत से इंकार करने वाले लोग हैं, पर मीर की उस्तादी से इंकार करने वाला कोई नहीं है।” इब्दिताई दौर में मीर को बड़ा शा’इर मानने में अक़ीदत का शुमार ज़ियादा था, मगर उर्दू के आलिम नक़्क़ाद शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी साहब ने पहली बार मीर की बड़ाई के वाक़ई अस्बाब तलाश किये और ‘शे’र-ए-शोरअंगेज़’ के ज़रिये उन्हें दुनिया के सामने रखा, चाहे वो लफ़्ज़ पर क़ुदरत हो, कैफ़ियत-ओ-एहसासात के अस्बाब हों, फ़न्नी अस्बाब हों या मा’नी-आफ़रीनी। उन्होंने मीर की शा’इरी में मशरिक़-ओ-मग़रिब दोनों शे’रियात को लागू कर के उसकी बड़ाई को ग्लोबलाइज़ कर दिया।
मीर के अश’आर की एक और बड़ी ख़ासियत ये है कि पहली नज़र में देखने पर उनमें से तमाम शे’र एकदम सीधे और ‘आम-फ़हम नज़र आते हैं। मगर मीर को पढ़ते वक़्त ये बात ध्यान रखनी चाहिए कि शे’र की गूढ़ता (पेचीदगी) का ता’ल्लुक़ अन्दाज़-ए-बयाँ से है, न कि उस बात से, जो कि बयान की जा रही है। मीर के अश’आर ‘ज़ुल्फ़ की मानिंद पेचदार हैं’, और सरसरी तौर से पढ़ने पर मीर के तमाम ऐसे अश’आर से हम लुत्फ़-अंदोज़ होने से महरूम रह जाते हैं, जिनमें मीर का अपना अन्दाज़-ए-बयाँ है, क्योंकि बक़ौल मीर :
सरसरी तुम जहान से गुज़रे
वर्ना हर जा जहान-ए-दीगर था
शा’इर अपने मु’आशरे का सबसे हस्सास फ़र्द होता है। आम से दिखने वाले मनाज़िर, जिनसे हम यूँ ही गुज़र जाते हैं, शा’इर उनमें एक दूसरी दुनिया दरयाफ़्त करता है। मीर कहते हैं कि तुम सरसरी तौर पर इस जहान से गुज़र गए, वर्ना हर जगह एक दूसरी दुनिया खुली हुई थी। ज़ाहिर तौर पर मीर ने ये शे’र दुनिया की नैरंगियत के लिए कहा था, लेकिन येशे’र उनकी तमाम शा’इरी पर भी सादिक़ आता है। मीर की शा’इरी में भी ग़ौर-ओ-फ़िक्र करने पर जहान-ए-दीगर नज़र आता है, पर उसके लिए भी मीर शर्त रखते हैं : ‘चश्म-ए-बीना होना’ क्योंकि बक़ौल मीर, “चश्म हो तो आइना-ख़ाना है दहर/ मुँह नज़र आता है दीवारों के बीच”या’नी अगर चश्म-ए-बीना हो तो और चीज़ों का क्या मज़कूर, दीवार तक में शक्लें नज़र आती हैं। यहाँ भी शर्त-ए-अव्वल ‘चश्म होना’ है। इसी चश्म की बदौलत मीर इस नैरंग-ए-आ’लम में न केवल तमाम रंग तलाश करते हैं और बल्कि उन्हें अपनी शा’इरी में मुख़्तलिफ़ ढंग से पेश करते हैं। उनके यहाँ बहार का रंग सुर्ख़ के बजाए ज़र्द है, तो माशूक़ के पाँव का रंग सुर्ख़ है, लेकिन हिना की वजह से नहीं, बेगुनह के ख़ून में पाँव पड़ जाने की वजह से। ज़माने की सियाही किसी आशिक़ के नाले के बा’इस है, तो गुलिस्ताँ का सुर्ख़ रंग भी ख़ूनीं कफ़न के मानिंद दिखाई पड़ता है :
निकले हैं गुल के रंग गुलिस्ताँ में ख़ाक से
ये वे हैं, उसके इश्क़ के ख़ूनीं कफ़न तमाम
मीर की शा’इरी में ऐसी तमाम मिसालें मिलती हैं जहाँमा’लूम होता है कि कोई एकदम सादीया मा’मूली बात कही गई है, लेकिन जब आप ठहर कर पढ़ते हैं, तो उनमें कई जिहात (dimensions)नज़र आती हैं। मिसाल के तौर पर मीर के कुछ शे’र :
किया था रेख़्ता पर्दा सुख़न का
सो ठहरा है वही अब फ़न हमारा
‘वही’ लफ़्ज़ में दोनों मा’नी मौजूद हैं, कि रेख़्ता हमारा फ़न ठहरा है, या वो पर्दा करना (बात को छुपाने का ढंग) हमारा फ़न ठहरा है। जो चीज़ हमने पर्दे या बहाने के तौर पर इख़्तियार की थी, उसे ही लोगों ने हमारा फ़न क़रार दे दिया। यह तो एक ट्रेजेडी है कि सारी ज़िंदगी बातों को छुपाने में गुज़र गई, क्योंकि इंसान इज़हार-ए-ख़याल की क़ुव्वत रखने वाला प्राणी है, और इससे बढ़ कर दुःख क्या होगा, कि बयाँ करने के बजाए उसे छिपाने की तरकीबें उसका फ़न ठहरें। फ़ारूक़ी साहब यहाँ मीर के समवर्ती वॉल्टेयर को इक़्तिबास (quote)करते हैं कि ‘इंसान को वाक-शक्ति इसलिए दी गयी है, कि वो अस्ल ख़यालात को पोशीदा (hidden) रख सके।’ उसके दो सौ बरस बाद रिचर्ड्स अपनी किताब ‘मीनिंग ऑफ मीनिंग’ में कहते हैं कि ‘दो ही सूरतें हैं, या तो हम अपने ख़यालात का इज़हार करने से क़ासिर (वंचित) रह जाते हैं, या फिर वही कह पाते हैं जो हम नहीं कहना चाहते थे।’ इन ख़यालात की रौशनी में मीर का ये शे’र और भी लज़ीज़ हो उठता है।
मीर का एक और शे’र है :
मुझे ‘मीर’ ता-गोर काँधा दिया था
तमन्ना-ए-दिल ने तो याँ तक निबाही
शे’र का सीधा मफ़हूम तो यह है कि मेरे दिल की तमन्ना ने तो मेरा यहाँ तक साथ दिया कि उसने मुझे मेरी क़ब्र तक कंधा दिया था। यहाँ पर दो बातें नज़र आती हैं, पहला तो ये कि मरने के बाद मेरे दिल की तमन्ना ने मेरा साथ दिया, उसी ने मेरे जनाज़े में मुझे काँधा दिया, और दूसरा ये कि काँधा देना, ‘सहारा देने या ढाँढ़स बँधाने’ के अर्थ में भी प्रयोग होता है। या’नी जीते जी भी मेरे दिल की तमन्ना ने ही मुझे ढाँढ़स बँधाया या सहारा दिया था। जीते जी इंसान के सबसे नज़दीकी लोग ही उसके ग़म में शामिल होते हैं और उसे सहारा देते हैं, और मरने के बाद भी उसके सबसे क़रीबी लोग ही उसके जनाज़े को कंधा देते हैं। ज़ाहिर है कि मीर की दिल की तमन्ना जीते जी तो उनके सबसे क़रीबी रही ही, मरने के बाद भी उसी तमन्ना ने क़ब्र तक उनका साथ दिया। या’नी जीते जी तमन्ना-ए-दिल ने मुझे सहारा दिया, और मरने के बाद उसने मेरे जनाज़े को काँधा दिया। इस तरह मीर ने यहाँ ‘काँधा देना’ मुहावरे के तौर पर भी, और उसके शाब्दिक-अर्थ या’नी उसके लुग़वी-मा’नी में भी इस्तेमाल किया है।
मीर के एक और शे’र पर नज़र डालते हैं, जिसमें मीर ने तज़ाद के ज़रिए हुस्न पैदा किया है :
ये जो मोहलत जिसे कहे हैं उम्र
देखो तो इंतज़ार सा है कुछ
सरसरी तौर पर पढ़ने पर यह एक सादा शे’र नज़र आता है, जिसका मफ़हूम यह होगा कि ‘यह जो मोहलत, जिसे हम अपनी उम्र या आयु कहते हैं, वह इंतज़ार सा कुछ है।’ शे’र में मीर यह वाज़ेह नहीं करते कि इंतज़ार किसका है, पर ग़ौर से पढ़ने पर या ‘उम्र’ लफ़्ज़ के इस्तेमाल से यह ज़ाहिर होता है कि मीर मौत के इंतज़ार की बात कर रहे हैं। या’नी जिसे हम अपनी उम्र कहते हैं वह मौत के इंतज़ार-जैसा कुछ है। यहाँ मीर ने मोहलत और उम्र के इस्तेमाल से तज़ाद पैदा किया है, क्योंकि ‘मोहलत’ बहुत छोटी अवधि के अर्थों में भी इस्तेमाल किया जाता है, (आम तौर वोसमयावधि जो किसी काम को पूरा करने के लिए दी जाती है) जबकि उम्र केवल आयु के लिए नहीं बल्कि एक लंबी समयावधि के लिए भी इस्तेमाल होता है (आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक: ग़ालिब) या’नी बक़ौल मीर, हम जिसे एक लंबी अवधि या ‘उम्र’ समझते हैं वो बसान-ए-शरर(चिंगारी की तरह) बहुतही कमहै, या यूँ कहें कि’मोहलत’ भर है (मोहलत हमें बसान-ए-शरर कम बहुत है याँ : मीर)। इंसानीवुजूद के हज़ारों बरसकी तारीख़ में इंसान के सत्तर-अस्सी बरस की हैसियत अगर देखा जाए, तो मोहलत से ज़ियादा वाक़ई कुछ नहीं है। फिर यह भी, कि वह मोहलत भी ‘इंतज़ार-सा’ कुछ है, या’नी इंतज़ार नहीं है। इंतज़ार करते वक़्त हम जिस शख़्स या वाक़ि’ए का इंतज़ार करते हैं, उसकी ओर मुनहमिक (Attentive) रहते हैं जबकि इस मोहलत जितने वक़्त में मौत की तरफ़ हम अक्सर ग़ैर-इंहिमाकी (Non-attention) रखते हैं। दूसरा यह कि इंतज़ार में यह तय नहीं की, जिसका इंतज़ार हो रहा है, वह आएगा या नहीं लेकिन मौत की ओर ग़ैर-इंहिमाकी रखने पर भी उसका आना तयशुदा है, इसलिए भी यह ‘इंतज़ार-सा’ कुछ है।
ज़ाहिर है कि मीर के यहाँ ऐसे तमाम अश’आर नज़र आते हैं, जिन्हें सरसरी तौर से पढ़ने पर वो आम सेया एकदम सादेमा’लूम होते हैं, मगर ग़ौर करने पर उनमें मा’नी की कई परतें नज़र आती हैं,जिन्हें तलाश करने के लिए आपको कुछ देर वहाँ ठहर कर सोचना होगा। जिस्म-ए-फ़ानी के इस जहान से रुख़सत होने के दो सौ सेज़ियादा बरस बीत जाने पर भी मीर इस ढंग से हम पर अपना असर रखते हैं, कि हम सबको अपने तमाम कैफ़ियत-ओ-एहसासात का बयान मीर की शा’इरी में नज़र आता है; और शायद इसीलिए इब्न-ए-इंशा भी कह गए हैं :
अल्लाह करे मीर का जन्नत में मकाँ हो
मरहूम ने हर बात हमारी ही बयाँ की
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