सफ़िया अख़्तर का जादू जो बाक़ी दुनिया के लिए जावेद अख़्तर है
जावेद अख़्तर साहब अदब की दुनिया का वो रौशन सितारा हैं जो कि बे-हद लम्बे समय से अपनी चमक बिखेर रहा है और वक़्त के साथ साथ जिस की रौशनी दोबाला हो रही है। दुनिया का शायद ही कोई शख़्स होगा जिस तक जावेद अख़्तर साहब के कलाम का जादू न पहुंचा हो। उन्होंने हर उम्र के लोगों पर अपना असर पैदा किया है। बॉलीवुड के लिए जावेद साहब ने जो गीत लिखे हैं, वो सच में कभी न भूल पाने वाली मिसाल है। जावेद साहब ने अपने रंज-ओ-ग़म, तजरबे, एहसासात, हसरतें फ़िल्मी नग़मों की सूरत में पेश किया है। यूट्यूब पर आप को दो ही शख़्सियतों के इंटरव्यूज़ सबसे ज़्यादा नज़र आएँगे एक तो जावेद साहब और दूसरे गुलज़ार साहब, इन्हें लोग बे-हद दिलचस्पी से सुनते हैं। उनके कर एक इंटरव्यू में आप को कोई ऐसी बात जरूर मिल जाएगी जिसे आप का जानना ज़रूरी है जावेद साहब की गुफ़्तुगू इतनी सादा ज़बान में होती है कि हर इंसान को वो अपनी तरफ खींच ही लेती है लेकिन इस सादा ज़बान का मतलब यह बिल्कुल भी नहीं कि उनकी बात में कोई गहराई न हो। यह बात सोच कर मैं बहुत हैरत-ज़दा होता हूँ कि एक इंसान इतना कैसे सोच सकता है और लिख सकता है, वो क्या चीज़ है जो उन्हें अब तक लिखवाए जा रही है इस का जवाब अभी तक तो नहीं मिला कहीं। यहाँ मुझे उन का एक शे’र याद आ रहा है
डर हम को भी लगता है रस्ते के सन्नाटे से
लेकिन एक सफ़र पर ऐ दिल अब जाना तो होगा
जावेद अख़्तर साहब 17 जनवरी 1945 को उत्तर प्रदेश में पैदा हुए। उनकी वालिदा ‛‛सफ़िया अख़्तर’’ थीं और उनके वालिद मशहूर शायर और गीतकार ‛‛जाँ निसार अख़्तर’’ थे। घर में सभी लोग उन्हें ‛‛जादू’’ कह कर बुलाते थे। यह नाम जावेद साहब के वालिद ने अपनी नज़्म ‛‛लम्हा-लम्हा किसी जादू का फ़साना होगा’’ से किसी अज़ीज़ के कहने पर रखा था, जब वह जावेद अख़्तर साहब को देखने के लिए हॉस्पिटल में पहुँचे थे। जावेद अख़्तर साहब की परवरिश और तरबियत एक इल्मी और अदबी घराने में हुई। घर में रिसाले और किताबें आती रहती थीं और अदबी माहौल भी था। मशहूर आलिम ‛‛अल्लामा फ़ज़ले हक़ ख़ैराबादी’’ से भी उन के ख़ानदानी मरासिम थे जिन्होंने ग़ालिब का दीवान एडिट किया था।
जावेद अख़्तर साहब के दादा ‛‛मुज़्तर ख़ैराबादी’’ थे। जो कि उस वक़्त के चंद बेहतरीन शायरों में शामिल थे। रिसालों में भी अक्सर उन की ग़ज़लें छपा करती थीं मगर कोई किताब मंज़रे आम पर नहीं आई थी। जावेद अख़्तर साहब ने उनके इंतक़ाल के 91-92 साल बाद उनके कलाम को फिर से इकट्ठा किया और किताब की सूरत में मंज़रे आम पर ले कर आए। किताब को देवनागरी में भी प्रकशित किया गया है किताब का नाम ‛‛गुलशन’’ है जो कि रेख़्ता बुक्स वेबसाइट पर मौजूद है। अपने किसी इंटरव्यू में जावेद अख़्तर साहब ने बताया है कि इसे जोड़ने में उन्हें 8-10 साल लग गए। लेकिन यह तवील काम जैसे तैसे हो ही गया।
घर का माहौल अदबी होने के कारण जावेद अख़्तर साहब उर्दू और दूसरी ज़बानों का अदब पढ़ने लगे। उन्होंने यह बात भी अपने किसी इंटरव्यू में बताई है कि उन्हें छोटी उम्र में भी कई अश’आर मुँह ज़बानी याद थे जिन्हें वह लगभग 9-10 घंटे मुसलसल सुना सकते हैं। वाक़ई यह कितनी हैरान करने वाली बात है। स्कूलों और कॉलेजों की डिबेट और बैतबाज़ी में भी वह ख़ूब शौक़ से हिस्सा लेते थे। आप सभी ने सुना होगा कि जावेद अख़्तर साहब ने अपनी शायरी का आग़ाज़ काफ़ी देर से किया।
उन्हें फ़िल्में देखने का शौक़ बचपन से ही रहा है। वो बम्बई कुछ और बनने के लिए आए थे। अगर आप ने उन के इंटरव्यूज़ देखे हैं तो आप को पता चल गया होगा। कॉलेज से ग्रेजुएशन करने के बाद बम्बई में आ कर कई सालों तक संघर्ष किया। यहाँ वहाँ का चक्कर काटते हुए न जाने कैसे दिन देखे, न जाने कैसी रातें काटी ऐसा ही कुछ बरसों तक चला। कहीं पर काम मिला और सलीम ख़ान साहब भी। दोनों की आपस में काफ़ी अच्छी बनने लगी। जावेद अख़्तर साहब और सलीम ख़ान साहब मिल कर कोई स्क्रिप्ट या कहानी सोचते और उसी पर घंटो बातें करते अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि किसी ने उन्हें ‘सिप्पी’ फ़िल्म्स के बारे में बताया। जावेद अख़्तर साहब कुछ दिन बाद वहाँ पहुँचे बस फिर वो दिन है और आज का दिन है। एक बार चांस मिलने के बाद जावेद अख़्तर साहब ने साबित कर दिखाया कि वो कौन हैं और उन्हें भाषा पर कितनी पकड़ है। इतने बड़े शख़्स की ज़िंदगी को इस ब्लॉग में समेट पाना हर किसी शख़्स के लिए बहुत मुश्किल होगा।
फ़िल्में, जिनकी पटकथाएँ लिखीं,
आख़िरी दाँव (1975)
कथा/पटकथा/संवाद
सलीम-जावेद
चाचा भतीजा (1977)
पटकथा/संवाद
सलीम-जावेद
ईमान धर्म (1977)
कथा/पटकथा/संवाद
सलीम-जावेद
त्रिशूल (1978)
कथा/पटकथा/संवाद
सलीम-जावेद
काला पत्थर (1979)
कथा/पटकथा/संवाद
सलीम-जावेद
क्रान्ति (1981)
कथा/पटकथा
सलीम-जावेद
जोशीले (1989)
कथा/पटकथा/संवाद
सलीम-जावेद
यह कुछ चंद नाम हैं बस। जावेद अख़्तर साहब ने दर्ज़नों फ़िल्मों के गीत भी लिखे।
फ़िल्में, जिन के लिए गीत लिखे
1981 :- सिलसिला
(संगीत निर्देशक : शिव-हरी)
1982 :- साथ साथ
(संगीत निर्देशक : कुलदीप सिंह)
1984 :- दुनिया
(संगीत निर्देशक : आर.डी. बर्मन)
1985 :- सागर
(संगीत निर्देशक : आर.डी. बर्मन)
1987 :- मि. इंडिया
(संगीत निर्देशक : लक्ष्मीकांत प्यारेलाल)
1989 :- जोशीले
(संगीत निर्देशक : आर.डी. बर्मन)
जावेद अख़्तर साहब की दो किताबें प्रकशित हो चुकी हैं। पहली किताब ‛‛तरकश’’ और दूसरी क़िताब ‛‛लावा’’ जिन्हें अवाम ने बेइंतिहा प्यार बख़्शा। ‛‛तरकश’’ के दो साल से भी कम अर्से में हिंदी के सात एडिशन और उर्दू के तीन एडिशन आ चुके हैं। ऑडियो बुक की भी लाखों प्रतियाँ बिक चुकी हैं। अपनी दूसरी किताब ‛‛लावा’’ के लिए उन्हें 2013 में ‛‛साहित्य अकादमी पुरस्कार’’ से नवाज़ा गया। जावेद अख़्तर साहब ने सिर्फ़ अदब में ही नहीं बल्कि बॉलीवुड में भी अपना का कमाल दिखाया जिससे आप सभी वाक़िफ़ हैं। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं।
पाँच बार राष्ट्रीय पुरस्कार
सोलह बार फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार
चार बार स्क्रीन पुरस्कार
पाँच बार ज़ी पुरस्कार
तीन बार IIFA पुरस्कार
रिचर्ड डॉकिन्स पुरस्कार
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