जिगर मुरादाबादी की शायरी हुस्न और मोहब्बत के इर्द गिर्द घूमती है
जिगर साहिब रिवायती ग़ज़ल के आख़िरी बड़े शायर हैं। लेकिन उनकी शायरी के आख़िरी दौर में कहीं-कहीं आधुनिकता के हल्के-हल्के रंग भी नज़र आने लगे थे। अगर जिगर साहिब को दस बरस की ज़िन्दगी और शायरी अता हो जाती तो मुमकिन है कि जिगर साहब जदीद शायरी की बुनियाद रखने वाले शायरों में भी गिने जाते। देखिए –
डर है मुझको कि मेरी हैरानी
आईना उनके रूबरू न करे
इश्क़ जब तक न चुके रुसवा
आदमी काम का नहीं होता
कमाले-तिश्नगी ही से बुझा लेते हैं प्यास अपनी
इसी तपते हुए सहरा को हम दरिया समझते हैं
जिगर मुरादाबादी उन चन्द सोच बदलने वाले शायरों में शामिल हैं, जिन्होंने बीसवीं सदी में ग़ज़ल के मेयार को गिरने नहीं दिया, बल्कि उसको ज़ुबानो-बयान के नये जहानों की सैर भी करायी। उसे नए लहजे और नए रंग से चमकाया भी। जिगर साहिब ने उर्दू शायरी को और कुछ दिया हो या न दिया हो लेकिन जिगर साहब उर्दू शायरी का वो पहला नाम हैं जिन्हें किताब और स्टेज पर एक जैसी मक़बूलियत ही नहीं महबूबियत भी हासिल हुई। मुशायरों की मक़बूलियत और महबूबियत का तो यह आलम है कि उनके जैसा मक़बूल शायर न उनसे पहले हुआ और न ही उनके बाद होगा। जिगर साहिब के लिए इस दीवानगी का पहला सबब उनकी शख़्सियत के वो चमकदार रंग हैं जो चुम्बक की तरह उनकी तरफ़ खिंचने को मजबूर कर देते हैं। उनकी शख़्सियत खुली किताब की तरह भी है, जिसे कोई भी किसी भी वक़्त पढ़ सकता है और ठीक उसी वक़्त इतनी रहस्यमय भी है कि उनके सबसे पास रहने वाला शख़्स भी इस किताब का एक लफ़्ज़ पढ़ नहीं पाता। इस शख़्सियत में जहां इतनी गहराई है कि तसव्वुफ़ के महके-महके दायरे भी दिखाई दे जाते हैं और वही शख़्सियत शराब में डूबा हुआ एक कमज़ोर और बीमार जिस्म भी है जिसे देखने पर दिल दुख से भर जाता है। वो शख़्सियत इतनी ख़ुद्दार भी है कि बड़ी रियासत के नवाब के बुलावे पर भी शेर सुनाने नहीं जाती और इतनी सादा भी है कि तांगे वाले की एक ज़रा सी गुज़ारिश पर पूरे रास्ते उसे गुनगुना कर कई-कई ग़ज़लें सुनाने को तैयार भी हो जाती है। शख़्सियत के इन अलग-अलग रंगो के अलावा जिगर साहिब की शायरी में जो अनोखी बात है वो है उनके यहां हुस्न की अज़मत। जिगर साहिब से पहले और उनके बाद इस सुपुर्दगी के साथ हुस्न की ऐसी तारीफ़ कहीं नज़र नहीं आती। यह कहा जाता है जिगर ज़बरदस्त हुस्न-परस्त हैं। मगर जिगर साहिब ने हुस्न को बेलिबास नहीं किया है बल्कि उसे पाकीज़गी की रिदा पहनाई है। मुलाहिज़ा हो-
रंगे-हया है ये तिरे जोशे-शबाब में
या चांदनी का फूल खिला है गुलाब में
आंखों में नूर जिस्म में बनकर वो जां रहे
यानी हमीं में रह के वो हमसे निहां रहे
रात क्या दिलकश अदा-ए-जलवा-ए-जानाना थी
शम्अ जब रुख़ के मुक़ाबिल आई ख़ुद परवाना थी
जिगर साहिब का इश्क़ उनकी आंखों से आगे का सफ़र करता हुआ बहुत कम दिखाई देता है। जिगर साहिब सिर्फ़ देखना चाहते हैं, निहारना चाहते हैं। उनकी आंखें हुस्न का दीदार करते हुए नहीं थकतीं, हुस्न की तारीफ़ करते हुए नहीं थकतीं। उनका कमाल यह है कि उन्होंने अपने ख़्याल और बयान से हुस्न को इतना दीदा-ज़ेब और शाहकार बना दिया है कि हुस्न ख़ुद अपने आप से मुहब्बत के लिए तैयार हो जाता है। देखिए –
तसव्वुर में ये किसके जलवा-ए-मस्ताना आता है
कि हर आंसू लिए हमराह इक पैमाना आता है
तिरी मजनूं-अदाई से जिगर यह ख़ौफ़ आता है
कहीं ऐसा न हो उनको भी आलम-आशना कर दे
क्या देखेंगे हम जलवा-ए-महबूब कि हमसे
देखी न गई देखने वाले की नज़र भी
जिगर साहिब ने जहां हुस्न की तारीफ़ की है वहीं उन्होंने इश्क़ को वो ऊंचाई अता की है जिससे उसके किरदार में वो चमक पैदा हो गई है कि जिसकी रौशनी से हुस्न की आंखें भी चुंधिया गयी हैं। अस्ल में जिगर साहिब के यहां बदन की तलाश नहीं है। उनकी नज़र हुस्न की रूह तक झांक आती है और फिर अपने ख़्याल के आईने में उसका अक्स बनाते हुए हुस्न की आंखों के लिए हैरानियों पैदा कर देती है। कहते हैं –
हमने सीने से लगाया दिल न अपना बन सका
मुस्कुरा कर तुमने देखा दिल तुम्हारा हो गया
इतने हिजाबों पर तो ये आलम है हुस्न का
क्या हाल हो जो देख लें पर्दा उठा के हम
तिरे जमाल की तस्वीर खींच दूं लेकिन
ज़बां में आंख नहीं आंख में ज़बान नहीं
जिगर साहिब की शोहरत का एक बहुत बड़ा सबब दिल की परतों को सहलाता हुआ उनका तरन्नुम था, जो जिस्म के तारों में जहां झनकार पैदा करता था वहीं शेर और शायर की कैफ़ियत भी सुनने वालों तक पूरी तरह पहुंचा देता था। उस तरन्नुम में जहां एक तरफ़ सरमस्ती थी, बला की नर्मी थी, वहीं हद-दर्जा दर्द भी था। वो दिलों को खींचने की ताक़त रखता था और हज़ारों के हुजूम को अपने साथ बहा ले जाता था। उस तरन्नुम में एक मसीहाई की ताक़त थी। मिसाल के तौर पर ये लाफ़ानी अशआर देखिए –
काम आख़िर जज़्बा-ए-बेइख़्तियार आ ही गया
दिल कुछ इस सूरत से तड़पा उनको प्यार आ ही गया
गुलशन परस्त हूं मुझे गुल ही नहीं अज़ीज़
कांटों से भी निबाह किए जा रहा हूँ मैं
लाखों में इंतिख़ाब के क़ाबिल बना दिया
जिस दिल को तुमने देख लिया दिल बना दिया
जिगर साहिब के बारे में एक ग़लत राय बहुत मशहूर है कि जिगर साहिब सिर्फ़ शराब और शबाब के शायर हैं। यह बिल्कुल ठीक है कि जिगर साहिब के दौर में शायरी का सबसे नुमायां मौज़ू शबाब और शराब ही था। लेकिन इसके अलावा भी जिगर साहिब की शायरी में बहुत कुछ है। उनके यहां इंसान की अज़मत भी है और इंसानियत के लिए फ़िक्र भी है। यही फ़िक्र उनसे अलग रंग के शेर भी कहलाती है। जिगर साहिब के यहां सिर्फ़ ग़मे-जानां नहीं है। ग़म-दुनिया भी है। देखिए –
आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है
उनका जो फ़र्ज़ है वो अहले-सियासत जानें
मेरा पैग़ाम मुहब्बत है जहां तक पहुंचे
हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं
हमसे ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं
फ़िक्रे-जमील ख़्वाबे-परीशां है आजकल
शायर नहीं है वो जो ग़ज़ल-ख़्वां है आजकल
जिगर मुरादाबादी ने शायरी को इतना आसान करके दिखाया है और शेर कहने में ऐसा कमाल हासिल किया है कि उसे देख कर सिर्फ़ हैरत की जा सकती है। एक आम सा शेर कहने वाला शायर यह शायरी पढ़कर इस ग़लत फ़हमी का शिकार हो सकता है कि क्या सामने की बात है, यह शेर तो मैं भी कह सकता हूं। मगर मुआमला यह है कि यह सिर्फ़ ग़लत-फ़हमी ही रहती है। यह शायरी बिला-शुबह अपने वक़्त की मुहब्बत की तारीख़ तो है ही मगर यह शायरी हर एहद के मुहब्बत करने वालों के दिलों में धड़कती है। हिज्र में तड़पती हुई रूहों को सहलाती है। हर एहद में मुहब्बत के लिए आमादा करती है और यह भी बताती है कि –
यह इश्क़ नहीं आसां इतना ही समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है
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