Jitne Muh Utni Baatein

जितने मुँह उतनी बातें

“लम्बा चौड़ा आदमी था, शेव बढ़ी हुई थी”

“यार शेव कब बनवाओगे? बहुत बढ़ रही है”

यह दोनों जुमले टेक्निकली ग़लत हैं, शेव अंग्रेज़ी का लफ़्ज़ है जिसके मानी हैं ‘बाल या दाढ़ी मुंडवावाना’, लेकिन ऊपर के दोनों जुमलों में इसको दाढ़ी के मानी में इस्तिमाल किया है, यानी एकदम उलट मतलब लिया है।

तो क्या यह इस्तिमाल ग़लत कहलायेगा?

नहीं, यह सही है, ज़बान ऐसे ही काम करती है। कभी कभी कोई लफ़्ज़ क़ुदरती प्रोसेस से गुज़र कर अपनीज़िद, अपने विपरीत माना के लिए भी रिवाज पा जाता है। क़ुदरती प्रोसेस से मेरा मतलब है कि अस्ल अर्थ से चल कर मुख़ालिफ़ अर्थ तक का जो सफ़र है उसमें कुछ मरहलों से गुज़रा हो, जिनका आपस में ताल्लुक़ हो।

जैसे दाढ़ी मुंडवाने को हमारे यहाँ दाढ़ी बनवाना कहा जाता रहा है, फिर आये अंग्रेज़, शेव लफ़्ज़ ले कर, हमारा समाज जो अंग्रेज़ी तालीम से तक़रीबन नाआशना था उसने यह लफ़्ज़ लिया, और इसके साथ “बनाना” लगा दिया। अब दाढ़ी के साथ साथ शेव भी “बननी” शुरू हो गई, और फिर धीरे धीरे दाढ़ी और शेव आपस में ऐसे यार बने कि दुई का फ़र्क़ मिट गया “मन तू शुदम तू मन शुदी”।

हमारी ज़बान उर्दू के नाम को ही ले लो, इसका नाम था हिंदवी। लेकिन इसे लशकर में बोली जाने वाली ज़बान समझा जाता था तो इसे “ज़बान-ए-उर्दु-ए-मुअल्ला” कहा जाने लगा यानी language of the royal camp, यह नाम नहीँ था इसका, यह इसकी तारीफ़ थी, जैसे किसी आदमी का नाम हो अजमल, लेकिन पूछा जाए कि कौन अजमल तो जवाब दिया जाये “मकीन-ए-दिल्ली” यानी दिल्ली का निवासी।

फिर ज़बान-ए-उर्दू ही कहा जाने लगा, और धीरे धीरे उर्दू लफ़्ज़ का इस्तिमाल लशकर के लिये होना ख़त्म हो गया होगा, और ज़बान-ए-उर्दू से यह समझा गया होगा कि उर्दू इस का नाम रहा होगा, जैसे बोल देते हैं। ज़बान-ए-फ़ारसी या ज़बान-ए-अरबी, तो बस हिंदवी बन गई उर्दू।

यह ऐसा है जैसे ज़बान का नाम है इंगलिश लेकिन समझाने के लिए लोग कहें कि ज़बान-ए-ईस्ट इंडिया कम्पनी, और बाद में इंगलिश का नाम पड़ जाए ईस्ट इंडिया कम्पनी। इतना ही कुछ अजीब हुआ इस ज़बान के नाम के साथ। जौन एलिया तो बहुत गालियाँ देते थे, उस शख़्स को जिसने इसका नाम उर्दू रखा होगा।

इससे बड़ा गुनाह तो लूत (Lot) लफ़्ज़ के साथ हुआ है। यह एक पैग़म्बर का नाम है जिनका ज़िक्र बाइबल में भी है और क़ुरान में भी। इन्हें एक शहर में भेजा गया था जिसका नाम था सदूम (Sodom), हज़रत लूत को जिन लोगों की हिदायत के लिये भेजा गया था वो सदूम के लोग धोखेबाज़, बेइमान और महमानों के साथ ज़यादती करने वाले थे, वो महमान मर्दों के साथ बदफेली (दुष्कर्म) करते थे। इसी निस्बत से अंग्रेज़ी वालों ने Sodom से Sodomy लफ़्ज़ बनाया। चलो यहाँ तक तो ठीक है कि किसी शहर के नाम के लफ़ज़ से वो मानी लिये जायें जो उस शहर के लोग करते हों, लेकिन अरबी वालों ने क्या किया? अरबी वालों ने  Homosexuality या Homosexual rape के लिये जो लफ़्ज़ चुना वो उस पैग़म्बर के नाम से मन्सूब था जो ख़ुद उस बुराई के ख़िलाफ़ हमेशा कोशिश करते रहे और उन्हें समझाते रहे। लवातत या लूती अमल जैसे अल्फ़ाज़ तय कर लिये गए Homosexuality के लिये। सोचो दंगे फ़साद, और जंग के लिये गाँधीगीरी लफ़्ज़ का रिवाज हो जाये तो? रिशवत लेते या भ्रष्टाचार करते हुए कोई पकड़ा जाए तो कहा जाये कि सरकारी अधिकारी अन्ना हज़ारी करते हुए रँगे हाथ गिरफ़तार।

हद यह है कि लोग पैग़म्बरों के नाम पर बच्चों का नाम रखते हैं लेकिन लूत के नाम पर मैंने तो आज तक किसी का नाम नहीं देखा, क्यूँकि यह लफ़्ज़ अपनी अस्ल से हट कर अपने मुख़ालिफ़ माना के लिये ख़ास हो गया।

वैसे ऐसा नहीं है कि यह लफ़्ज़ बिना किसी “क़ुदरती प्रोसेस” के इस अर्थ तक आ गया होगा। शायद यूँ हुआ होगा कि ‘सुदाम’ में जो क़ौम आबाद थी उनको हज़रत लूत की निस्बत से क़ौम-ए-लूत कहा जाने लगा, जैसे मूसा की क़ौम बनी इसराईल को क़ौम-ए मूसा भी कहा गया है, फिर जिस तरह कुछ क़ौमें ऐसी थीं जैसे ‘आद’ और ‘समूद’ जिनको उनके पैग़म्बर के नाम से नहीं बल्कि उनके अपने नाम से ही जाना जाता है (क़ौम-ए-आद, क़ौम-ए-समूद) उसी तरह क़ौम-ए-लूत को भी बरता गया और उस क़ौम को ही लूत नाम से जाना जाने लगा,  फिर उस “लूत क़ौम” की बुराइयों को लूती कहने लगे। हासिल यह कि लूती अमल में निस्बत हज़रत लूत की तरफ़ नहीं है बल्कि लूत क़ौम की तरफ़ है।

कोई इस बात से यह दलील न पकड़े कि फिर तो मशकूर भी शुक्रगुज़ार के माना में सही माना जाना चाहिये, क्यूँकि वो भी अपने अस्ल माना के मुख़ालिफ़ माना में अवाम में राइज (प्रचिलित) है। मशकूर का मामला इन अल्फ़ाज़ जैसा नहीं है।

बहरहाल यह होती है ज़बान, इसका मज़ा ही अलग है, इसमें दो जमा दो हमेशा चार नहीं होता। रिवाज पहले पड़ता है, क़ायदा बाद में बनता है। लोग बरतते बरतते कहीं से कहीं ले जाते हैं लफ़्ज़ को, एक मानी से दूसरे मानी तक का सफ़र किसी क़ायदे का पाबन्द नहीं होता, क़ायदा उसके हिसाब से ढलता है, डिक्शनरी उसके हिसाब से ख़ुद को अपडेट करती है।

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