अज़ीब दास्तां है ये

वही ख़्वाब दिन के मुंडेरों पे आके
उसे मन ही मन में लुभाते तो होंगे
शंकर हुसैन (1977)

यह एक छोटा-सा कम भीड़ वाला स्टेशन है। जहां ट्रेनें बहुत कम देर के लिए रुकती हैं। अमरोहा में किसी से कमाल अमरोही का पुश्तैनी मकान पूछें, तो वह बता देगा। जब मैं उनके मकान के बाहर पहुंचा तो वहां दरवाजे के बगल में लिखा मिला, ‘चंदन का घर’। कमाल अमरोही को घर में सब चंदन के नाम से बुलाते थे। वह बड़ा सा दरवाजा धूप से नहाए आंगन में खुलता है। आंगन पार करके ऊंचे बरामदे से होते हुए हम एक बड़े से खाली हॉल में कदम रखते हैं, जहां दीवार पर ‘पाकीज़ा’ और ‘रज़िया सुल्तान’ के स्टिल्स टंगे हैं, मगर कहीं ‘महल’ की तस्वीरें नहीं दिखतीं… कमाल अमरोही के इस परिवार का अदब से गहरा ताल्लुक था। सोशल मीडिया से रू-ब-रू पीढ़ी के बीच मकबूल हो चुके जौन इलिया का जन्म भी इसी घर में हुआ था, जो कमाल के भाई थे। उनके एक और भाई रईस अमरोहवी जाने माने विचारक, स्तंभकार और शायर थे। एक दूसरे भाई सैयद मोहम्मद तक़ी पाकिस्तान के जाने-माने पत्रकार और फलसफ़े के जानकार बने। तक़ी पाकिस्तान के मशहूर अख़बार ‘जंग’ के संपादक भी रहे। ताज़दार मेरे साथ उस हॉल में बैठे में पुरानी यादों से मुख़ातिब होते रहे।

…आधी सदी बीत चुकी, इसी घर में शादी हो रही थी। यही आंगन था जहां लड़कियां ढोलक बजा रही थीं। बारह-तेरह बरस के कमाल की शरारतें उन दिनों बहुत बढ़ गई थीं। उनसे उम्र में करीब 18 साल बड़े भाई रजा हैदर ने किसी बात पर बहुत नाराज होकर थप्पड़ मार दिया और कहा..’तुम इसी तरह खानदान का नाम रोशन करोगे’? ढोलक की थाप थम गई और लड़कियां खिलखिला कर हंस पड़ीं। शर्मसार कमाल उस दिन शाम से लेकर रात तक कमरे में बंद रहे। घर वालों ने सजा देने के खयाल से उन्हें बंद ही रहने दिया। कमाल रात में बहन के चांदी के कंगन चुरा कर भाग निकले और बिना टिकट लाहौर पहुंच गए।

‘लाहौर में उन्होंने कई दिन भूखे-प्यासे भटकते हुए बिता दिए’। कमाल के बेटे ताजदार अमरोही मुझे बताते हैं, ‘… जब तक ओरिएंटल कॉलेज के जर्मन प्रिंसपल वूल्मर और उनकी पत्नी की निगाह उस बिखरे बालों और अस्त-व्यस्त कपड़े पहने लड़के पर नहीं पड़ी।’ कमाल को उस दंपती ने गोद ले लिया और आगे की पढ़ाई भी कराई। कमाल अमरोही के लिए लाहौर उनके जीवन की दिशा बदलने वाला साबित हुआ। वहाँ उन्होंने प्राच्य भाषाओं में मास्टर की डिग्री हासिल की और पंजाबी विश्वविद्यालय टॉप किया। जर्मन दंपती अपने देश लौटने लगे तो कमाल से भी साथ चलने को कहा, मगर कमाल अपना देश नहीं छोड़ना चाहते थे। वे सिर्फ 18 साल के थे जब लाहौर से निकलने वाले एक अखबार ‘हुमायूँ’ में नियमित कॉलम लिखने लगे, बाद में उसी अखबार में बतौर सब-एडिटर नियुक्त हो गए। उनकी प्रतिभा को देखते हुए अखबार के सम्पादक ने उनका वेतन बढाकर 300 रुपए मासिक कर दिया, जो उस समय काफी बड़ी रकम थी। कमाल अमरोही मिज़ाज से लेखक थे और वे कहानियां और नज़्में भी लिखते थे। यही वजह है कि उन्होंने अपने फिल्म कॅरियर की शुरुआत में कई गीत लिखे। उनके पास आसान शब्दों में नाजुक बात कहने की कला थी। शैलेंद्र या गुलज़ार की तरह वे जीवन के छोटे-छोटे लम्हों को बड़ी खूबसूरती से प्रस्तुत करते हैं। उनके कुछ गीत इसका बेहतरीन उदाहरण हैं। ‘पाकीज़ा’ एक गीत जो फिल्म इस्तेमाल नहीं हुआ है, उसके बोल कुछ इस तरह है-

वो पहली नज़र का टकराना, इकदम से वो दिल का थम जाना
वो मेरा किसी की चाहत में जीने को मुसीबत कर लेना

दिन रात अकेले रह रह कर तनहाई की आदत कर लेना
बहलाये कोई तो रो देना, समझाए कोई तो घबराना

फिल्म ‘शंकर हुसैन’ के एक खूबसूरत गीत “कहीं एक मासूम…” की पंक्तियां है –

हर इक चीज़ हाथों से गिरती तो होगी
तबीयत से हर काम खलता तो होगा

पलेटें कभी टूट जाती तो होंगी
कभी दूध चूल्हे पे जलता तो होगा

गरज़ अपनी मासूम नादानियों पर
वो नाज़ुक बदन झेंप जाती तो होगी

कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की
बहुत खूबसूरत मगर सांवली सी

खैर, पत्रकारिता से उनका मन उचाट होने लगा। किस्मत आजमाने कुछ दिन कलकत्ता रहे और फिर किसी की सलाह पर बंबई चले गए। वहां ख्वाजा अहमद अब्बास से मिले। उन्हें कमाल की एक कहानी ‘ख़्वाबों का महल’ पसंद आ गई और वे उस पर फिल्म बनाने के लिए निर्माता भी ढूंढ़ने लगे मगर सफलता नहीं मिली। कमाल अमरोही को मुंबई में टिके रहने के लिए अब पैसों की जरूरत थी। कमाल अमरोही में कहानी को बयान करने की अद्भुत कला थी। जिन दिनों उनके सितारे गर्दिश में थे, पता चला कि सोहराब मोदी को एक कहानी की तलाश है। अब्बास ने उनको सोहराब मोदी का टेलीफोन नंबर दिया। संयोग अच्छा था, सोहराब मोदी से मुलाकात हो गई। कमाल ने उन्हें ‘जेलर’ की कहानी सुनाई। सोहराब मोदी से मुलाकात का यह प्रसंग भी बहुत दिलचस्प है। कमाल अमरोही जब सोहराब मोदी के पास अपनी कहानी सुनाने पहुंचे तो उनके पास कहानी की प्रति नहीं थी। उन्हें पता था कि साथ में कुछ ले गए बिना सोहराब मोदी उनको नहीं सुनेंगे। कमाल ने झूठमूठ में उसे एक किताब से देखने का स्वांग करते हुए पूरी कहानी सुनाई। सोहराब मोदी ने दो बार कमाल से ‘जेलर’ की कहानी सुनी, जब उन्होंने किताब मांगी तो यह देखकर हैरान हो गए कि उस पर कुछ भी नहीं लिखा था।

कहानी सोहराब मोदी को पसंद आई, कॉन्ट्रैक्ट साइन हुआ और उनके हाथों 750 रुपए आए। इसके बाद उनकी कहानी पर आधारित फिल्म ‘पुकार’ (1939) सुपर हिट रही। नसीम बानो और चंद्रमोहन अभिनीत इस फिल्म के लिए उन्होंने चार गीत भी लिखे। इसके बाद उनकी गिनती फिल्म इंडस्ट्री के सफल लेखकों में होने लगी। फिल्मों के लिए कहानी, पटकथा और संवाद लिखने का सिलसिला चल पड़ा और उन्होंने मैं हारी (1940), भरोसा (1940), मजाक (1943), फूल (1945) और शाहजहाँ (1946) फिल्मों में लेखन किया। निर्माता-निर्देशक के.आसिफ जब अपनी महत्वाकांक्षी फिल्म ‘मुग़ल-ए-आज़म’ बना रहे थे तो उन्होंने संवाद लेखन की जिम्मेदारी वजाहत मिर्जा को दी थी, मगर वे चाहते थे कि फिल्म के संवाद दर्शकों के दिमाग से बरसों-बरस न निकलें और इसके लिए उन्हें कमाल अमरोही से ज्यादा बेहतर कोई नहीं लगा। कमाल इस फिल्म के लिए शानदार संवाद लिखे और इसके लिए उन्हें फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला। कमाल के निर्देशक बनने का सफर यहीं से शुरू होता है…

To be continue….