आइये ! देखते हैं कि शायरों ने ख़्बाव को किस तरह बरता है
ख़्वाब देखना आदमी के ज़िन्दा होने की निशानी है | वो कई तरह से देखता है | कभी नींद में तो कभी खुली आँखों से | ख़्वाब देखते हुए ही आदमी को इस बात का एहसास होता है कि उसकी ज़िन्दगी में किस बात की कमी है, वह अपनी ज़िन्दगी में क्या पाना चाहता है | वो अपने ख़्वाब की ताबीर हासिल के लिए न जाने क्या-क्या तरक़ीबें अपनाता है | उर्दू शायरी में ये एक ऐसा शब्द है, जिसे हर शायर कभी न कभी अपने शेर में इस्तेमाल करता है | और इस्तेमाल हो भी क्यों ना? कौन ऐसा इंसान है जिसने कभी ख़्वाब नहीं देखा ? हाँ ये सच है कि कुछ के ख़्वाब पूरे हुए और कुछ लोगों के ख़्वाब नींदों में ही दफ़्न हो गए |
कभी कभी तो यही लगता है कि ज़िन्दगी कुछ और नहीं है एक ख़्वाब है | इसकी ताबीर किसी तरह से मुमकिन नहीं | शायर फ़ानी बदायुनी ने इसके मुताल्लिक़ शेर कहा,
इक मुअ’म्मा है समझने का न समझाने का
ज़िंदगी काहे को है ख़्वाब है दीवाने का
एक शायर ऐसा है कि किसी बहाने अपनी महबूबा से मिलने की कोशिश करता है | दुनिया के रास्ते जब बंद हो गए तो उसने ख़्वाबों का रास्ता लिया और कहा,
तुम्हारे ख़्वाब से हर शब लिपट के सोते हैं,
सज़ाएँ भेज दो हमने ख़ताएँ भेजी हैं
ये शेर शायर गुलज़ार साहब है |
शायर मुनीर नियाज़ी साहब फ़रमाते हैं कि ख़्वाब में ठहरना ठीक नहीं है | बात सही ही है, वे ख़्वाब जो टूट चुके हों, उसमें ठहरने से उनकी किरचों के चुभ जाने का डर रहता है | उन्होंने शेर कहा,
ख्व़ाब होते हैं देखने के लिए,
उनमें जाकर मगर रहा न करो
अक्सर इंसान अपने ख़्वाबों को पूरा करने के लिए इतना मसरूफ़ हो जाता है कि उसे इस बात की ख़बर ही नहीं लगती कि वह पीछे कितना कुछ छोड़े जा रहा है, जब ज़िन्दगी के उम्र के बाद कहीं ठहरती है, वो सोचता है,
कभी जो ख़्वाब था वो पा लिया है,
मगर जो खो गई वो चीज़ क्या थी
ये शेर शायर जावेद अख्तर साहब है और हर उस शख्स के लिए है जिसने ऐसी मसरूफ़ ज़िन्दगी गुज़ारी है |
महबूबा का ख़्वाब आशिक़ के लिए दुनिया की किसी भी शय से क़ीमती है | क़ीमती क्या यूँ कहें कि अनमोल है, इसके लिए वो अपनी रातों की नींद भी तज देने को राज़ी रहता है और दिन के काम भी, शायर अज़हर इनायती साहब यही कहते हैं:
हर एक रात को महताब देखने ले लिए,
मैं जागता हूँ तेरा ख़्वाब देखने के लिए
लेकिन शायर उबैदुल्लाह अलीम इन ख़्वाबों से परेशान हो चुके हैं | वो फ़रमाते हैं,
ख़्वाब ही ख़्वाब कब तलक देखूँ,
काश तुझ को भी इक झलक देखूँ
हमारा ख़्वाब वो जगह है जहाँ हमारी इजाज़त के बिना कोई भी दाख़िल नहीं हो सकता है | वहाँ बस वही आ सकते हैं जिन्हें हमारा प्यार हासिल है, जो बातें हक़ीक़त से जितनी दूर हों, वो ख़्वाबों में उतनी ही क़रीब हो जाती हैं,
बारहा तेरा इंतिज़ार किया
अपने ख़्वाबों में इक दुल्हन की तरह
शायरा परवीन शाकिर साहिबा का ये शेर उसी की एक झलक है |
शायर ने जो ख़्वाब देखा था वो टूट चुका है, अब वह अपनी ज़िन्दगी में इस दर्ज़ा अकेले है कि कभी- कभी तन्हाई बर्दाश्त के बाहर हो जाती है | शायर इफ़्तिख़ार आरिफ़ साहब का एक शेर देखिए:
ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है
ऐसी तन्हाई कि मर जाने को जी चाहता है
इसी तरह ख़्वाबों का सिलसिला चलता रहेगा | हम ख़्वाब देखते रहेंगे भले ही वे ख़्वाब ताबीर से महरूम रह जाएँ। हम ख़्वाब देखेंगे क्यों कि ये ज़िन्दा रहने की निशानी है |
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