उर्दू शाइरी में हमारी लोक-कहानियाँ और तारीख़ किस तरह महफ़ूज़ हो गई?

दुनिया की हर अहम ज़बान के पास एक न एक ऐसा Epic या महाकाव्य मौजूद है जिस पर उसके अहल-ए-ज़बान फ़ख़्र करते हैं। संस्कृत में वाल्मीकि की तख़्लीक़-कर्दा रामायण और महाभारत, ग्रीक में होमर की तख़्लीक़-कर्दा इलियड और ओडिसी, फ़ारसी में फ़िरदौसी की तख़्लीक़-कर्दा शाहनामा, और इटैलियन में दाँते की तख़्लीक़-कर्दा द डिवाइन कॉमेडी से ले कर जयशंकर प्रसाद की कामायनी, सभी को Epic का दर्जा हासिल है। यहाँ एपिक से मुराद उन तवील नज़्मों से ली जा सकती जिनमें किसी क़िस्से या वाक़िए का तसलसुल से बयान किया गया हो। जब हम उर्दू अदब के सरमाये पर एक सरसरी निगाह भी डालते हैं तो हमारा सामना मसनवी की सिन्फ़ से होता है।

मसनवी दर-अस्ल अरबी का लफ़्ज़ है जिसके मआनी दो-दो के हैं। हालाँकि मसनवी लफ़्ज़ अरबी का है, लेकिन मसनवी की सिन्फ़ फ़ारसी शोरा की ईजाद मानी जाती है और पहली मारूफ़ मसनवी के 10वीं सदी में फ़ारसी ज़बान में लिखे जाने के सुराग़ मिलते हैं। ईजाद के साथ ही ईरान में मसनवी की सिन्फ़ बेहद मक़बूल हुई और इस सिन्फ़ में बहुत अहम शाइरी भी हुई। मसलन शाहनामा और मौलाना रूमी की मसनवी। शाहनामा दुनिया की उन सबसे तवील नज़्मों में है जिन्हें किसी एक शख़्स ने लिखा है और इसमें तक़रीबन 50,000 शेर हैं। ये मसनवी इस शेर से शुरू होती है :

ब-नाम-ए-ख़ुदावंद-ए-जान-ओ-ख़िरद
कज़ीन् बर-तर अंदीशे बर-नग-ज़िरद

मौलाना रूम की मसनवी का तो ज़िक्र ही क्या है। इस मसनवी को फ़ारसी में लिखी गई क़़ुरआन तक कहा जाता है। इस मसनवी के बारे में एक मशहूर शेर यूँ है कि :

मन नमी गूयम कि आन् आली जनाब
हस्त पैग़म्बर, वली दारद किताब

यानी कि मैं रूमी को पैग़म्बर नहीं कहता है, लेकिन उनके पास जो किताब है, वो यक़ीनन आसमानी है। फ़ारसी में और भी अहम ईरान से ही सिन्फ़-ए-मसनवी अरब भी गई और हिन्दोस्तान भी आई, लेकिन दोनों जगह इसने मुख़्तलिफ़ शक्ल इख़्तियार की। अरबी शाइरी में मौजूद सिन्फ़-ए-मुज़्दविज को मसनवी की ही शक्ल कहा जा सकता है लेकिन दोनों में साख़्त की बिना पर कुछ फ़र्क़ मौजूद है। मुज़्दविज में पहले दो मिसरे आपस में हम-काफ़िया होते हैं और इसके बाद के तीन-तीन मिसरे आपस में हम-काफ़िया होते हैं यानी राइमिंग पैटर्न aa/bbb/ccc का होता है जबकि मसनवी कुछ मख़्सूस बहरों में ही लिखी जाती है और इसका हर शेर मतला की शक्ल में होता है। यानी दो मिसरे आपस में हम-काफ़िया होते हैं और अगले दो मिसरे आपस में हम-काफ़िया होते हैं। यानी इसका राइमिंग पैटर्न aa/bb/cc का होता है। मसलन मीर हसन की तहरीर-कर्दा मसनवी सेहर-उल-बयान के ये शेर देखें :

करूँ पहले तारीख़-ए-यज़्दाँ रक़म
झुका जिसके सजदे को अव्वल क़लम

सर-ए-लौह पर रख बयाज़-ए-जबीं
कहा : दूसरा कोई तुझ सा नहीं

क़लम फिर शहादत की उँगली उठा
हुआ हर्फ़-ज़न यूँ कि, रब्ब-उल-अला

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ये मसनवी के इब्तिदाईया अशआर हैं और ज़ाहिर है कि ये हम्दिया नौइयत के हैं। ज़ियादा-तर मसनवियों का आग़ाज़ हम्द, नात और मन्क़बत से होता है। इसके बाद क़िस्सा बयान करना शुरू किया जाता है। कुछ मसनवियों में उस अहद के बादशाह की शान में कहे गए शेर भी मिलते हैं।

जब मसनवी की सिन्फ़ हिन्दोस्तान आई तो मुख़्तलिफ़ अ‌‌‌‌‌‌‌‌क़्साम की मसनवियाँ लिखी जाने लगीं; मसलन रज़्मिया, इश्क़िया और फ़लसफ़ियाना लेकिन उर्दू की सबसे क़दीम मसनवी जो हमें हासिल होती है, यानी कदम राव – पदम राव, वो एक हिन्दोस्तानी क़िस्से से माख़ूज़ है। जब ये मख़्तूता दरियाफ़्त हुआ तो इसके कई सफ़्हे ग़ाइब थे और मसनवी का नाम तक मख़्तूते में दर्ज नहीं था। कदम राव और पदम राव इस मसनवी के दो मर्कज़ी किरदारों के नाम हैं और इन्हीं के नाम से मसनवी का नया उनवान तजवीज़ किया गया। ये मसनवी फ़ख़रुद्दीन निज़ामी से मंसूब की जाती है। मसनवी में आने वाले बह्मानी सुल्तान के ज़िक्र से ये मालूम होता है कि ये मसनवी 1461 ई. से 1463ई. के बीच तख़लीक़ हुई थी।

कुछ मुहक़्क़िक़ीन की ये भी राय है कि हिन्दोस्तान में मसनवी के सबसे पहले नमूने बाबा शैख़ फ़रीद (1173-1266 ई.) के यहाँ मिलते हैं, जो पंजाबी के सबसे पहले और क़द-आवर शाइरों में से हैं। इस दौर में उर्दू ग़ज़ल इस दर्जा म‌क़बूल नहीं थी और ग़ज़ल की सिन्फ़ उर्दू में सही मानों में क़ुली क़ुतुब शाह के दीवान के शाया होने के बाद मक़बूल होना शुरू हुई। वली का दीवान शाया होने के बाद ग़ज़ल की मक़बूलियत ने सारी हदें पार कर दीं लेकिन मसनवी की हैसियत अपनी जगह मुस्तहकम रही।

कदम राव – पदम राव के बाद दकन में कई मसनवियाँ लिखी गईं और धीरे-धीरे शुमाली हिन्द में भी मसनवियाँ लिखी जाने लगीं। जहाँ शाइरों ने फ़ारसी क़िस्सों-कहानियों से मवाद अख़ज़ किया, वहीं बहुत से शाइरों ने हिन्दोस्तानी क़िस्सा-कहानियों को अपनी मसनवियों का मौज़ू बनाया। सत्यवान सावित्री, नल दमयन्ती, दुष्यन्त-शकुंतला की पौराणिक कहानियों पर सैकड़ों मसनवियाँ मौजूद हैं। हिन्दोस्तानी क़िस्सों से माख़ूज़ मसनवियों पर गोपीचंद नारंग साहब ने जो काम किया है, वो कई मायनों में बेहद अहम है।

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इन मसनवियों में जहाँ शाइरों ने पहले से मक़बूल क़िस्सों-कहानियों को अलग-अलग तरह से अपने अंदाज़ में बयान कर के क़िस्सा-गोई की रवायत को मुस्तहकम किया, वहीं लोक-कहानियों की रवायत से भी फ़ैज़ हासिल किया। हिन्दोस्तान में लोक-साहित्य (Folk Literature) की पुख़्ता रवायत रही है। लोक-कहानियाँ और लोक गीत एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को दिए जाते रहे हैं। इस अमल में इनका अपनी अस्ल शक्ल से तब्दील हो जाना इतना बड़ा ख़तरा नहीं है जितना कि इन कहानियों और गीतों को फ़रामोश हो जाना है। उर्दू शाइरों ने इन क़िस्सों की बुनियाद पर मसनवियाँ लिखीं और हमारे हिन्दोस्तानी लोक-साहित्य का एक बड़ा हिस्सा इन मसनवियों में महफ़ूज़ हो गया।

सोहणी महीवाल, सस्सी पुन्नूँ, हीर राँझा से ले कर सिंहासन बत्तीसी और पद्मावत से मवाद हासिल करके कई-कई मसनवियाँ लिखी गई हैं। कई मसनवियाँ पूरी तरह से शाइर की तख़्ईल की पैदावार भी हैं। लेकिन मसनवियाँ क़िस्सों-कहानियों तक महदूद नहीं हैं। कई मसनवियाँ ऐसी भी हैं जिनमें किसी क़िस्से या कहानी को बयान करने की जगह शाइर महज़ मुतकल्लिम के तौर पर अपनी बात कहता नज़र आता है और बात का मौज़ू कुछ भी हो सकता है।

हमारे क्लासिकी अदब में लगभग हर बड़े शाइर ने मसनवियाँ लिखी हैं। चाहे वो मीर हों, ग़ालिब हों या इक़बाल हों।

मीर की तक़रीबन 36 मसनवियाँ दस्तयाब होती हैं और सबमें कोई न कोई ऐसी बात ज़रूर है जो उसे दूसरी मसनवियों से मुम्ताज़ बनाती है। शोला-ए-इश्क़, मोर-नामा, दरिया-ए-इश्क़, ख़्वाब-ओ-ख़याल वग़ैरह बेहद मक़बूल हैं। इनमें से एक बड़ी तादाद इश्क़िया मसनवियों की है और 7 मसनवियाँ नवाब आसिफ़ुद्दौला के मुतअल्लिक़ लिखी गई हैं। मीर ने एक मसनवी अपने मुर्ग़े की याद में, और एक मसनवी अपनी पालतू बिल्ली पर भी लिखी है।

उनकी इश्क़िया मसनवियों में शोला-ए-इश्क़ सबसे मक़बूल है जिसमें उन्होंने परशुराम और श्याम-सुंदरी का क़िस्सा बयान किया है। पुराने दस्तावेज़ों में दर्ज है कि परशुराम दर-अस्ल एक मुसलमान था और उसका अस्ल नाम मुहम्मद हसन था। अल-मुख़्तसर क़िस्सा ये है जब दोनों ने एक दूसरे को एक नदी के किनारे देखा तो दोनों एक दूसरे पर आशिक़ हो गए। परशुराम श्याम-सुंदरी के फ़िराक़ में नीम-पागल हो गया और उसने संस्कृत का मुताला शुरू किया और पंडित बन गया। जब वो श्याम-सुंदरी के घर गया तो उसकी ख़ूब ख़ातिर-दारी की गई। उसे श्याम-सुंदरी की शादी की ज़िम्मे-दारी दी गई लेकिन जिस दिन श्याम-सुंदरी की शादी थी, उस दिन घर में आग लग गई श्याम-सुंदरी और श्याम-सुंदरी के घर ‌वालों को अंदेशा हुआ कि वो जल कर मर गई। इसके बाद परशुराम और श्याम-सुंदरी ने शादी कर ली और वो कहीं दूर जा कर रहने लगे। एक बार अफ़वाह फैली कि परशुराम की नाव डूबने से उसकी मौत हो गई है और ये सुन कर सदमे से श्याम-सुंदरी की मौत हो गई। परशुराम के वापिस आने पर श्याम-सुंदरी को मरा हुआ पा कर वो वापिस नदी के किनारे चला गया जहाँ एक आवाज़ उसका नाम पुकार रही थी। आख़िर में सबने ये देखा कि नदी के किनारे से दो रौशनियाँ आसमान की तरफ़ बढ़ीं और एक दूसरे में मिल गईं और परशुराम की लाश किसी को नहीं मिली। इस मसनवी से कुछ शेर देखें :

मुहब्बत ने ज़ुल्मत से काढ़ा है नूर
न होती मुहब्बत न होता ज़ुहूर

मुहब्बत ही इस कारख़ाने में है
मुहब्बत से सब कुछ ज़माने में है

मुहब्बत न हो काश मख़्लूक़ को
न छोड़े ये आशिक़ न माशूक़ को

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मीर ने शुमाली हिन्द में मसनवी को फ़रोग़ दिया और आइंदा के मसनवी-निगारों के लिए रास्ता हमवार किया। मीर के यहाँ एक ख़ूबी मुझे ये भी नज़र आती है कि उनकी मसनवियों से कोई शेर अगर ब-तौर एक फ़र्द के भी देखा जाए तो उसमें मआनी की गुंजाइश बनी रहती है। मसनवी के शेर एक दूसरे पर मुनहसिर होते हैं लेकिन मीर के यहाँ ज़ियादा-तर शेर को ब-ज़ात-ए-ख़ुद भी मोतबर नज़र आते है। मिसाल के तौर पर ख़्वाब-ओ-ख़याल से बे-तर्तीबवाराना अंदाज़ में इंतिख़ाब किए हुए ये शेर देखें :

ज़माने ने आवारा चाहा मुझे
मिरी बे-कसी ने निबाहा मुझे

दिल-ए-मुज़तरिब अश्क-ए-हसरत हुआ
जिगर रुख़्सताने में रुख़्सत हुआ

क़यामत जुनूँ का रहे सर में शोर
खिंचा जाए दिल कोह-ओ-सहरा की ओर

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मीर के अहद के दूसरे शाइरों ने भी मसनवियाँ लिखी हैं। मिसाल के तौर पे मुसहफ़ी की एक मसनवी से कुछ शेर देखिए जिसमें उन्होंने किसी क़िस्से या नवाब को छोड़ कर खटमलों को अपना मौज़ू बनाया है :

आख़िर-ए-शाम से हो शब बेदार
खेलता हूँ मैं खटमलों का शिकार

मारे जो मोटे मोटे चुन-चुन कर
छींट का थान बन गई चादर

घिसे दीवार पर जो कर के तलाश
कर दिया घर को ख़ाना-ए-नक़्क़ाश

नहीं मरते हैं तो भी ये बदज़ात
क्या इन्होंने पिया है आब-ए-हयात

मीर हसन की मसनवी सेहर-उल-बयान का ज़िक्र ऊपर भी आ चुका है। मीर हसन का शुमार उर्दू के सबसे बा-कमाल मसनवी-निगारों में होता है और इसका बेशतर दार-ओ-मदार उनकी मसनवी सेहर-उल-बयान पर है। मीर हसन की मसनवी बाग़-ए-इरम में उन्होंने अपने दिल्ली से फ़ैज़ाबाद के सफ़र की तफ़्सीलात बयान की हैं। जब वो दिल्ली से फ़ैज़ाबाद जा रहे थे तो उन्होंने लखनऊ में कुछ दिन क़याम भी किया था और उसकी मज़म्मत में कुछ शेर मसनवी में मौजूद हैं। मसलन :

ज़ि-बस ये मुल्क है बीहड़ पे बसता
कहीं ऊँचा कहीं नीचा है रस्ता

हर इक कूचा यहाँ तक तंग-तर है
हवा का भी ब-मुश्किल गुज़र है

लिखूँ क्या चौक की तंगी का अहवाल
कुमैत-ए-ख़ामा चल सकता नहीं चाल

जिस वक़्त मीर हसन ने ये मसनवी लिखी थी, तब लखनऊ एक मामूली सा क़स्बा था और फ़ैज़ाबाद दार-उल-सल्तनत था। नवाब आसिफ़ुद्दौला के लखनऊ को दार-उल-सल्तनत क़रार देेने के बाद लखनऊ का अस्ल दौर-ए-उरूज शुरू हुआ। बाग़-ए-इरम में दूसरे शहरों के अहवाल भी दर्ज हैं।

ग़ालिब की मसनवी चराग़-ए-दैर भी क़ाबिल-ए-ज़िक्र है। ग़ालिब ने अपने सफ़र-ए-कलकत्ता में कुछ दिन बनारस में क़याम किया था और बनारस को अपना मौज़ू बना कर एक फ़ारसी मसनवी लिखी थी। इस मसनवी का बनारस के मुतअल्लिक़ कहा गया एक शेर ख़ासा मशहूर है। शेर यूँ है :

इबादत-ख़ाना-ए-नाक़ूसियानस्त
हमाना काबा-ए-हिन्दूस्तानस्त

यानी (बनारस) हम शंख बजाने वालों का इबादत-ख़ाना है, हम हिन्दोस्तानियों का काबा है। ग़ालिब की और भी मसनवियाँ हमें दरियाफ़्त होती हैं। दर-सिफ़त-ए-अंबा ग़ालिब ने रम्ज़ देहलवी के आम की एक पेटी तोहफ़े में भेजने के जवाब में लिखी थी। कुछ शेर देखें :

मुझ से पूछो तुम्हें ख़बर क्या है
आम के आगे नेशकर क्या है

साहिब-ए-शाख़-ओ-बर्ग-ओ-बार है आम
नाज़-परवरदा-ए-बहार है आम

Link : https://www.rekhta.org/masnavii/dar-sifat-e-amba-mirza-ghalib-masnavii?lang=ur

कहा जाता है कि मोमिन को पाँच बार इश्क़ हुआ, और वो किसी में कामयाब नहीं रहे लेकिन हर इश्क़ का अहवाल उन्होंने अपनी पाँच मसनवियों में लिखा है। अल्लामा इक़बाल से ले कर दाग़ देहलवी, अमीर मीनाई, आरज़ू लखनवी, सभी ने कभी न कभी मसनवी को अपने इज़हार का वसीला बनाया है और अपने फ़न्नी जौहर का मुज़ाहिरा किया है।

मसनवी एक तरह से फ़िक्शन और शाइरी का इम्तिज़ाज है जिसमें दोनों की ख़ूबियाँ मौजूद हैं। मौजूदा दौर में अगरचे कोई शाइर मसनवियों का रुख़ नहीं करता लेकिन हमारे अदब की तारीख़ में मसनवी ग़ज़ल के बाद सबसे तवाना सिन्फ़-ए-सुख़न रही है। एक हद तक ये भी कहना सही है कि तवील नज़्म का इर्तिक़ा भी मसनवी की सिन्फ़ से हुआ है।

मसनवियों में कहीं हमें हमारे लोक-साहित्य की झलक मिलती है, तो कहीं पौराणिक कथाएँ सुनने को मिलती हैं। कहीं परियों की कहानियाँ हैं तो कहीं मौजूदा मौजूदा हालात का इतनी तफ़्सील से बयान है कि उसे तारीख़ के हवाले के तौर पर देखा जा सकता है। गुरू गोबिंद सिंह जी का तहरीर कर्दा ज़फ़र-नामा जैसा तारीख़ी दस्तावेज़ भी मसनवी (फ़ारसी) ही की शक्ल में लिखा गया है। हमारे अदब और उसकी रिवायत को समझने और जानने के लिए मसनवियों का मुताला भी उसी तरह लाज़िम रहेगा, जिस तरह ग़ज़ल का मुताला लाज़िमी है।

हसन नईम का शेर है :

मैं ग़ज़ल का हर्फ़-ए-इम्काँ मसनवी का ख़्वाब हूँ
अपनी सब रूदाद लिखने के लिए बेताब हूँ