आख़िर लफ़्ज़ कहाँ सुकून का साँस लेते हैं?
कुछ दिन हुए रेख़्ता ब्लॉग पर एक आर्टिकल पढ़ा, “लफ़्ज़ों पर निगरानी रक्खो” नाम से। इस में ग़लती निगरानी, हरकत जैसे अल्फ़ाज़ पर बात की गयी है, असातेज़ा के यहाँ उनका इस्ते’माल किस वज़्न पर हुआ है, इसकी मिसालें भी पेश की गयी हैं। बताया गया है कि इन अल्फ़ाज़ का वज़्न, मिसाल के तौर पर ग़लती का 112 है न कि 22। 112 इस लिए कि ग़ैन और लाम दोनों पर ज़बर है, ‘हरकत’ है, दोनों मफ़तूह हैं। ध्यान रहे, ज़बर को फ़त्ह भी कहते हैं और जिस हर्फ़ पर ये लगता है, उसे मफ़तूह कहा जाता है।
हाँ तो हम बात कर रहे थे ग़लती और हरकत और निगरानी जैसे अल्फ़ाज़ की। क्या आपने कभी सोचा कि आम तलफ़्फ़ुज़ में ऐसा होता ही क्यों है कि ग़लती को ग़ल्ती, हरकत को हर्कत बोला जाता है?? ये क्या सिर्फ़ तलफ़्फ़ुज़ के न पता होने का मुआमला है या इसमें कोई अरूज़ या’नी छंदशास्त्र से जुड़ी हुई बात भी है जो बराबर काम कर रही है?? आप ज़ियादः परेशान न हों बस ये सोचें कि ग़लती जिस लफ़्ज़ से बना है, या’नी “ग़लत” उसे भी क्या आपने लोगों को ‘ग़ल्त’ बोलते सुना है?? नहीं सुना होगा.. सुना भी होगा तो बस अपवाद की हद तक और उन्हीं जगहों के लोगों को बोलते सुना होगा जिन जगहों पर मक़ामी “असरात” (क्या इसे आप ‘अस्रात’ भी पढ़ रहे हैं?? नहीं नहीं,पढ़िए पढ़िए) बहुत पड़े हैं इन अल्फ़ाज़ पर,जैसे पंजाब। इन पर कभी फिर बात कर लेंगे। फ़िल्हाल ये समझ लीजिए कि ग़लत हमेशा नज़र, शजर, असर, क़मर ही के वज़्न पर बोला जाता है या’नी 12 के वज़्न पर। अच्छा आपने कभी सोचा कि ये 12 जो है इसमें जो 2 है ये भी 1+1 है?? जी ये जो 2 है, इसमें पहले 1 पर हरकत है, दूसरा साकिन है। हरकत जिन हुरूफ़ पर होती है उन्हें ‘मुतहर्रिक’ कहा जाता है, इस लफ़्ज़ पर भी ध्यान दीजिए, क्या आप त को आधा पढ़ रहे हैं?? या’नी मुत्हर्रिक?? पढ़िए पढ़िए। ये भी समझ लीजिए कि जिन हुरूफ़ पर हरकत/हर्कत नहीं होती वो बेचारे साकिन कहे जाते हैं। इस बेहद मा’मूली मगर बेहद अहम बात को कम लोग समझते हैं।
ख़ैर हम बात कर रहे थे ग़लती हरकत या निगरानी जैसे अल्फ़ाज़ की। हमें ध्यान रखना चाहिए और ख़ूब ध्यान रखना चाहिए कि हमारी ज़बान की बनावट ऐसी है कि अगर तीन “हरकतें” एक साथ किसी लफ़्ज़ में इकट्ठा हो जाएँ तो बीच वाली हरकत अपने आप साकिन में बदल जाती है। अब थोड़ा ध्यान तो देना होगा आपको ये समझने के लिए.. ये वाक़या जब बह्र में कहीं दिखता है (ज़िहाफ़ की सूरत) तो इसे “तस्कीन ए औसत” कहा जाता है। तस्कीन लफ़्ज़ भी उसी सुकून से बना है, जो साकिन में है, औसत आप जानते ही हैं कि बीच वाले को कहते हैं। तो यहाँ बात हुई बीच वाले को साकिन करने की। आइए इन अल्फ़ाज़ में पहले लफ़्ज़ ‘ग़लत’ को देखते हैं। इसमें ग़ैन पर हरकत है,लाम पर भी मगर तोय साकिन है। है न? इसीलिए हम ग़लत के तलफ़्फ़ुज़ में गड़बड़ नहीं करते , इसे शजर नज़र ही के वज़्न पर बाँधते/लेते हैं, मगर जैसे ही इसमें हमने ई की मात्रा का इज़ाफ़ा किया (हद देखिए कि जो हिन्दी में बड़ी ई है,उर्दू में छोटी ये है।) या’नी तोय पर छोटी ये का इज़ाफ़ा किया वैसे ही अभी तक जो तोय साकिन था ‘ग़लत’ में, उस पर हरकत आ गयी, छोटी ये साकिन हो गयी। ऐसा क्यों हुआ भला? ग़लत अरबी/फ़ारसी दोनों है। एक बात गाँठ बाँध लीजिए कि उर्दू, हिन्दी और फ़ारसी की हद तक कोई भी लफ़्ज़ शुरू’अ हमेशा हरकत से होगा, ख़त्म साकिन पर होगा.. ये हमारी भाषा की प्रकृति है, उसकी फ़ित्रत है.. अरबी और संस्कृत में ऐसा नहीं.. वहाँ आख़िरी हर्फ़ को भी हरकत हो सकती है।
आप बस इतना समझ लीजिए कि यही सबब है जो प्रीति और रश्मि जैसे नाम हम इनके आख़िरी हर्फ़ ते या मीम पर ज़ेर के साथ यानी छोटी ई की मात्रा के साथ उर्दू में नहीं लिख सकते। ख़ैर ये बातें फिर कभी। अभी ये ध्यान रखिए कि हमारी ज़बान तीन मुतवातिर (इस लफ़्ज़ पर भी आपको ध्यान देना है।) हरकतें एक साथ आने पर बीच वाली को अपने आप साकिन कर देती है। “हरकत” उन्हीं अल्फ़ाज़ में है जिनमें तीन हरकतें एक साथ आती हैं या’नी इस लफ़्ज़ में हे रे और काफ़.. तीनों पर ज़बर है। ज़ाहिर है रे साकिन हो जाएगा और इसकी शक्ल हर्कत (बर वज़्न ए शर्बत) रह जाएगी। ये बह्स तलब हो सकता है कि असातेज़ा ने इसे किस वज़्न पर बाँधा है, आप और हम इसे कैसे बाँधे मगर हमें पता ज़रूर होना चाहिए कि दरअस्ल यहाँ हुआ क्या है। आप इस नुक्ते को बेहतर समझने के लिए इसी क़बीले का एक और लफ़्ज़ देखें.. ‘दर्जा’.. इसका भी अस्ल तलफ़्फ़ुज़ द र जा है (हाय मुख़्तफ़ी के साथ, ये क्या है, इस पर भी कभी आगे बात कर लेंगे।) यानी दाल और रे और जीम, तीनों को हरकत है.. आपने देख ही लिया होगा कि यहाँ हमारी ज़बान ने क्या गुल खिलाए हैं.. जी बीच वाला रे, ऊपर बताए गए क़ायदे से साकिन हो गया। सब इसे दर्जा ही बोलते हैं।
आप इसे यूँ समझ लें कि थका माँदा कोई लफ़्ज़ अगर सफ़र के बा’द हम तक, हमारी ज़बान तक आता है तो हम बहुत ज़ियादः कुछ उसके लिए न भी कर पाएँ तो उसकी तीन हरकतों में से उस हरकत को जो उसके बीच वाले हर्फ़ पर आयी हो, थोड़ा सुकून बख़्श देते हैं। या’नी उसे साकिन कर देते हैं।
ध्यान रखिए.. ये सब आपको इस लिए बताया जा रहा है कि आप ज़बान सीख सकें, शाइरी में आप क्या करते हैं, ये सिर्फ़ आप पर है। ज़ाहिर है असातेज़ा अशआर में इनका वज़्न वही लेते थे जो है, या’नी बग़ैर बीच की हरकत को साकिन किए। मेरी नज़र में कोई साकिन कर भी दे तो कोई गुनाह नहीं, बस जानते बूझते हुए करे। ऐसे चंद अल्फ़ाज़ जहाँ आम बोल चाल में ये होता है, आप देख सकते हैं। अमीर की जम’अ उमरा, फुक़रा जैसे लफ़्ज़। असरात में भी वही हुआ है जो ग़लती में हुआ था। या’नी असर तक तो गाड़ी निकल गयी, जैसे ही असरात हुआ, रे में अलिफ़ जुड़ते ही रे जो पहले साकिन था, उस पर हरकत आ गयी। आप अब जानते ही हैं कि तीन हरकतें हों तो क्या होता है?? जी अस्रात बोल देते हैं लोग, असरात की जगह। बहरहाल आप बात समझ गए होंगे। है न?
अच्छा अब ये बताइए कि क्या आपके मन में ये सवाल भी आया कि तीन साकिन जब एक साथ इकट्ठा होते हैं, तो क्या होता है?? सोचिए सोचिए?? जी… होता ये है कि आख़िरी साकिन को जो लफ़्ज़ का भी आख़िरी हो, गिरा दिया जाता है.. या’नी शे’र की तक़ती’अ करते वक़्त उस हर्फ़ को यूँ नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है जैसे.. ख़ैर.. मिसाल बहुत ख़राब याद आयी सो आप पर छोड़ दिया, बस नज़रंदाज़ (जी,अलिफ़ ए वस्ल का फ़ाइदा उठाया है यहाँ) कर दीजिएगा। क़ायदा तो आपने जान लिया.. अब अल्फ़ाज़ देखते हैं जिनमें तीन साकिन एक साथ इकट्ठा होते हैं। इनके आख़िर में ते आता है, या’नी हिंदी के ऐतबार से कहें तो अक्षर त। दोस्त, ज़ीस्त,बर्दाश्त जैसे अल्फ़ाज़ मिसाल के तौर पर पेश किए जा सकते हैं। दोस्त में सिर्फ़ दाल पर हरकत है, वाव, सीन और ते.. तीनों साकिन (चुप) हैं और घर वाले अब इन्हें मना भी नहीं रहे। रहें साकिन। हद तो ये है कि कहीं भी ऐसे अल्फ़ाज़ अगर पिकनिक पर जाते हैं (इस्ते’माल होते हैं।) या कोई पूछता है कि क्यों साब? घर में कितने लोग हैं?? तो ते को गिनते तक नहीं। बहरहाल, मिसालें आप ख़ुद ढूँढ सकते हैं, मैं सिर्फ़ एक मिसाल दूँगा यहाँ। मिसरा देखिए:
“ता-कुजा बर्दाश्त आजिज़…हम तो महफ़िल से चले।”
(पण्डित आजिज़ मातवी)
तक़ती’अ देख लीजिए:
ता कुजा बर (फ़ाइलातुन) दाश आजिज़ (फ़ाइलातुन) हम तो महफ़िल (फ़ाइलातुन) से चले (फ़ाइलुन) पहले तो ये देखिए कि इनमें कहीं ते नहीं है या’नी सिर्फ़ दाश आजिज़ फ़ाइलातुन के वज़्न पर आता है/ आएगा। आप ख़ुद समझ सकते हैं कि अगर दाश आजिज़ का टुकड़ा फ़ाइलातुन के वज़्न पर आ रहा है, तो उसमें ते का इज़ाफ़ा ज़रूर रुक्न के वज़्न को गड़बड़ कर देगा क्योंकि उसे गिने बग़ैर ही वज़्न पूरा हो रहा है। ध्यान रखिए.. ‘दाश्ताजिज़” को भूल से भी फ़ाइलातुन के वज़्न पर न पढिएगा यहाँ, आजिज़ ऐन से है, अलिफ़ से नहीं कि उसका आख़िरी ते से वस्ल हो। आपने देखा होगा मैंने ऊपर एक जगह नज़रअंदाज़ लिखा है, दूसरी जगह नज़रंदाज़। उसका सबब यही है कि नज़र के बाद अंदाज़ अलिफ़ से है, उसका रे में ख़ल्त जाइज़ है, यही अगर अंदाज़ का इमला ऐन से होता तो इन्हें अलग अलग ही पढ़ना पड़ता। आप समझे? अगर आजिज़ अलिफ़ से लिखा जाता तो उसका ते में ख़ल्त हो सकता था, यहाँ मुम्किन ही नहीं। आजिज़ साहब जैसे उस्ताद एक एक लफ़्ज़ बहुत सोच समझ कर इस्ते’माल करते थे।
बहरहाल ऊपर हमने दो बातें सीखीं,एक तो ये कि अगर तीन हरकतें साथ आती हैं तो क्या होता है, दूसरा ये कि अगर तीन साकिन साथ आएँ तो क्या होता है। आप ज़रा भी ग़ौर से देखें तो पाएँगे कि हरकात और सकनात का उसूल बिल्कुल ज़िन्दगी के जो रोज़ मर्रा जैसा है। या तो उसकी आवाज़ सुनी/ध्यान रखी जाती है जो सबसे पहले बोल उठे या सबसे आख़िर वाले की। बीच वाले की आवाज़ कई बार दब जाती है या सुन कर भी अनसुनी कर दी जाती है। बहरहाल..हमें इससे क्या?? हम तो बस उर्दू सीख रहे हैं। है न?? फिर मिलेंगे।
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