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#QissaKahani: हकीम मोमिन ख़ाँ मोमिन, जो हमेशा इश्क़ के बीमार रहे
#QissaKahani रेख़्ता ब्लॉग की नई सीरीज़ है, जिसमें हम आपके लिए हर हफ़्ते उर्दू शायरों और अदीबों के जीवन और उनकी रचनाओं से जुड़े दिलचस्प क़िस्से लेकर हाज़िर होंगे। इस सीरीज़ की दूसरी पेशकश में पढ़िए मोमिन ख़ाँ मोमिन के इश्क़ का एक दिलचस्प क़िस्सा।
हकीमों के ख़ानदान में जन्मे मोमिन ख़ाँ मोमिन भी बारह-तेरह बरस की उम्र में हकीम बन गए थे। घर के लोग चाहते थे कि मोमिन शिक्षा प्राप्त कर के कोई दूसरा पेशा इख़्तियार करें, लेकिन मोमिन अभी नौ बरस के ही थे कि कार-ए-इश्क़ (इश्क़ का काम) ने उन्हें बेकार कर दिया। शिक्षा छूट गई और वे भी हिक्मत के ख़ानदानी पेशे से वाबस्ता हो गए।
मोमिन के दवाख़ाने और बेमिसाल इलाज की कामयाबी के चर्चे दूर तक थे। हिन्दुस्तान के हर कोने से मरीज़ उनके पास आते थे। लेकिन ख़ुद मोमिन का मुआमला ये था कि वे उम्र-भर इश्क़ जैसी मोहलिक बीमारी का शिकार रहे।
इश्क़ का पहला तजरबा मोमिन को नौ बरस की छोटी सी उम्र में हुआ था, और ये पहला तजरबा ही इतना शदीद था कि वे सारा जीवन इस से बाहर नहीं आ सके।
इसके बाद जीवन के अलग-अलग पड़ाव पर इश्क़ की ये बीमारी मोमिन को नए-नए तरीक़ों से घेरती रही।
एक समय वो आया जब मोमिन को अपने उस मरीज़ के ही इश्क़ की बीमारी लग गई जो लंबा सफ़र कर के उनसे अपना इलाज कराने आई थी।
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ये उस वक़्त की बात है जब मोमिन की हिक्मत के चर्चे सुन कर लखनऊ की एक नामी-गिरामी तवाइफ़ जिसका नाम उम्मतुल फ़ातिमा था अपने इलाज के लिए मोमिन के पास दिल्ली चली आई थी। तवाइफ़ लखनऊ की थी तो शेर-ओ-अदब का ज़ौक़ भी रखती थी और शेर भी कहती थी। ‘साहिब’ उसका तख़ल्लुस था।लेकिन लोग उसे आम तौर पर ‘साहब जान’ के बजाय ‘साहिब जी’ कहा करते थे।
मोमिन, साहिब जी का इलाज करने लगे और जितना वे उसे सेहतयाब करते जाते ख़ुद उतने ही बीमार होते जाते।
उधर ख़ुद साहिब जी के दिल में भी इश्क़ की चिंगारियाँ उठने लगी थीं। जैसे ही मोमिन ने साहिब जी से इश्क़ का इज़हार किया दोनों के लिए दुनिया ही बदल गई।
साहिब जी, मोमिन से इश्क़ भी करतीं, शायरी पर इस्लाह भी लेतीं और अपना इलाज भी करातीं।
धीरे-धीरे ये रिश्ता गहरा होता गया।
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एक बार मोमिन और साहिब जी राज़-ओ-नियाज़ की बातें कर रहे थे कि अचानक साहिब जी ख़ामोश हो गईं। मोमिन ने वजह दरयाफ़त की तो बोलीं, “मैं ने एक रोज़ दुआ मांगी थी, ख़ुदा ने मेरी वो दुआ क़बूल कर ली। सोच रही हूँ मैं कैसे उस ख़ुदा का शुक्र अदा करूँ।”
मोमिन ने पूछा, “वो दुआ क्या थी?”
जवाब में साहिब जी ने शेर पढ़ा,
साहिब जो बनाया है तो मानिंद-ए-ज़ुलैख़ा
यूसुफ़ सा ग़ुलाम इक मुझे दे डाल इलाही
शेर सुन कर मोमिन बोले, “ये दुआ कैसे क़बूल हुई?”
साहिब जी ने भीगी आँखों के साथ अपना दस्त-ए-हिनाई मोमिन के सीने पर रख कर कहा, “ऐसे, यानी वो यूसुफ़ आप हैं।”
साहिब जी की इस अदा पर मोमिन की आँखें भी भीग गईं।
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कुछ दिन बाद मोमिन कुछ ख़फ़ा हो गए। साहिब जी परेशान रहने लगीं। उन्होंने मोमिन से बात करना चाही, लेकिन मोमिन ने कोई इल्तिफ़ात ना किया तो साहिब जी ने मोमिन का चेहरा अपने हाथों में लेकर ये शेर पढ़ा,
नज़र है जानिब-ए-अग़्यार देखिए क्या हो
फिरी है कुछ नज़र-ए-यार देखिए क्या हो
ये सुनकर मोमिन की आँखों से आँसू टपक पड़े और बरजस्ता उन्होंने भी इश्क़ में होने वाली इस गुफ़्तगू का जवाब शेर से दिया। बोले,
दें पाकि-ए-दामन की गवाही मेरे आँसू
इस यूसुफ़-ए-बेदर्द का एजाज़ तो देखो
मोमिन और साहिब जी का इश्क़ परवान चढ़ ही रहा था कि साहिब जी लखनऊ लोट गईं और मोमिन फिर उसी हालत में जा पहुँचे जो उनके हर इश्क़ का मुक़द्दर थी। साहब जी की जुदाई ने मोमिन के दिल-ओ-दिमाग़ की दुनिया को हिला कर रख दिया। महबूब के बेवफ़ा हो जाने से मोमिन पर क्या गुज़री, इसका वर्णन उनकी मसनवी (शायरी की विधा) ‘क़ौल-ए-ग़मीं’ में विस्तार से मिलता है।
मोमिन की हालत का अंदाज़ा लगाने के लिए मसनवी के कुछ शेर देखिए,
कासा-ए-उम्र का भरना अच्छा
ऐसे जीने से तो मरना अच्छा
कब तलक नज़्अ की हालत में रहूँ
कब तलक यूँ सितम-ए-मर्ग सहूँ
कब तलक चश्म से ख़ूँ हो जारी
कब तलक दर्द करे दिलदारी
हाय ये ज़ुल्म सहा क्यूँ-कर जाये
मैं जियूँ और मिरा दिल मर जाये
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