मीर अनीस, वो फ़क़ीर शायर जो बादशाहों को भी ख़ातिर में नहीं लाता था
1803 में फ़ैज़ाबाद के एक अदबी घराने में पैदा हुआ एक नौजवान एक मुशायरे में अपनी ग़ज़ल से धूम मचाता है। बाप को पता चला तो बेटे से उसकी ग़ज़ल सुनी। बाप का सीना ख़ुशी और फ़ख़्र से फूल गया, लेकिन ग़ज़ल ख़त्म होने के बाद बोले, मियाँ अब ग़ज़ल को सलाम कहो और वो शायरी करो जो दुनिया और आख़िरत दोनों में काम आए।
बस उस रोज़ से उस नौजवान ने ग़ज़ल कहना छोड़ दी और रसाई अदब में क़दम रख दिया। और ऐसा रखा कि मर्सिया-गोई ही उसका ओढ़ना-बिछौना हो गई। मर्सिया को उसने वो उरूज बख़्शा कि जहाँ हर दौर के मर्सियागो पहुँचने की आरज़ू करते करते ख़ाक का पैवंद हो गए। आपको यक़ीनन ये जुस्तजू होगी कि वो नौजवान कौन था। उसका बाप कौन था। वो कौन सा अदबी घराना था और वो ग़ज़ल कौन सी थी।
जी हाँ वो नौजवान थे मीर बब्बर अली अनीस। बाप थे मीर मुस्तहसन ख़लीक़ और घराना था मीर ज़ाहिक और मीर हुसन का। मीर ज़ाहिक अपने ज़माने के उस्ताद शायर थे। उनके बेटे मीर हसन ने उर्दू अदब को अपनी मसनवी ‘सहर-उल-बयान’ से मालामाल किया। मीर ख़लीक़ के चर्चे भी नज़्म के मैदान में कुछ कम ना थे।
अनीस ने इसी अदबी घराने में आँख खोली। शायरी तो उनकी घुट्टी में थी, तो पाँच-छ बरस की उम्र से ही शेर मौज़ूं करने लगे थे।
मीर अनीस मुशायरे में जिस ग़ज़ल से धूम मचा कर आए थे, उसके कुछ अशआर ये थे,
इशारे किया निगह-ए-नाज़-ए-दिल रुबा के चले
सितम के तीर चले, नीमचे क़ज़ा के चले
मिसाल-ए-माहे-ए-बे-आब मौजे तड़पा कीं
हुबाब फूट के रोये जो तुम नहा के चले
पुकारे कहती थी हसरत से नाश आशिक़ की
सनम किधर को हमें ख़ाक में मिला के चले
सवानेह-ए-अनीस के लेखक का ख़्याल है कि सआदत-मंद बेटे अनीस ने अपने वालिद के कहने के बाद ग़ज़ल-गोई तर्क कर दी और उसी ग़ज़ल की ज़मीन में ये सलाम नज़्म किया,
गुनह का बोझ जो गर्दन पे हम उठा के चले
ख़ुदा के आगे ख़िजालत से सर झुका के चले
मिली ना फूलों की चादर तो अहल-ए-बैत-ए-इमाम
मज़ार-ए-शाह पे लख़्त-ए-जिगर चढ़ा के चले
अनीस दम का भरोसा नहीं ठहर जाओ
चिराग़ ले के कहाँ सामने हवा के चले
मीर अनीस को मर्सिया-निगारी का बादशाह कहा जाता है। उन्होंने मर्सिया-निगारी को उरूज बख़्शा। दुनिया भर में होने वाली मजलिसों में आज भी मीर अनीस के मरासी कसरत से पढ़े जाते हैं।
मीर अनीस जितने अज़ीम शायर थे उतने ही नाज़ुक-मिज़ाज और फ़क़ीर-सिफ़त इन्सान थे। वो रईसों और अमीरों की सोहबत में बैठना पसंद नहीं करते थे। इसका सुबूत उनके हैदराबाद के मुख़्तसर क़याम के दौरान भी नज़र आता है।
बात 1870-71 की है। मीर अनीस उस वक़्त के निज़ाम हैदराबाद मीर महबूब अली ख़ाँ के दरबार से वाबस्ता तहव्वुर जंग की दावत पर मजलिस पढ़ने के लिए हैदराबाद गए थे। अनीस जब हैदराबाद आए तो तहव्वुर जंग की हवेली में ही क़याम किया।
निज़ाम हैदराबाद मीर महबूब अली ख़ाँ के एक मुसाहिब-ए-ख़ास ने निज़ाम से वादा किया कि वो मीर अनीस को उन से मुलाक़ात के लिए दरबार में आने के लिए राज़ी कर लेंगे। निज़ाम के मुसाहिब ने मीर अनीस को निज़ाम से मुलाक़ात पर राज़ी करने की भरपूर कोशिश की लेकिन मीर अनीस ने ये कहकर टाल दिया कि वो एक फ़क़ीर आदमी हैं शाहों से उन्हें क्या लेना देना।
इसके बाद उस मुसाहिब ने ये कोशिश की कि मीर अनीस निज़ाम की शान में कोई क़ितआ (शायरी की एक विधा) या रुबाई ही नज़्म कर के मजलिस में पेश कर दें। मीर अनीस ने इस गुज़ारिश को भी ठुकरा दिया।
मजलिस का दिन आ गया। मीर अनीस को सुनने और देखने के लिए पूरा शहर इनायत जंग की हवेली पर उमँड़ पड़ा। क्या आम और क्या ख़ास, क्या फ़क़ीर और क्या वज़ीर। हर शख़्स मीर अनीस की मर्सिया-गोई और मरसिया-ख़्वानी को सुनने के लिए बेक़रार था। हवेली में तिल रखने की जगह ना थी। हवेली तक पहुँचे वाले तमाम रास्ते बंद थे। मीर अनीस की ज़बानी मरसिया सुनने के लिए निज़ाम मीर महबूब अली ख़ाँ भी पहूंचे। सोज़-ख़्वानी ख़त्म होने से पहले मीर अनीस हुज्रे से निकल कर मक़ाम-ए-मजलिस पर पहुँचे और मिंबर के क़रीब बैठ गए। उन्होंने एक रुबाई फ़िल-बदीह नज़्म कर के पेश की।
बालीदा हूँ ये औज मुझे आज मिला
ज़िल्ले-ए-अलम-ए-साहिब-ए-मेराज मिला
मिंबर पे नशिस्त, सर पे हज़रत का अलम
अब चाहिए क्या? तख़्त मिला, ताज मिला
एक तो मीर अनीस का मर्सिया, उस पर उनके पेश करने का मख़सूस अंदाज़। मजमा बे-इख़्तियार दाद दे रहा था। मजलिस पढ़ने के बाद मिंबर से उतरते ही मीर अनीस फिर हुज्रे में वापस चले गए। निज़ाम ने अपने मुसाहिब के ज़रीए पैग़ाम भिजवाया कि वो उनसे मुलाक़ात करना चाहते हैं। मीर अनीस ने आमादगी ज़ाहिर की। निज़ाम मीर महबूब अली ख़ाँ हुज्रे में दाख़िल हुए। मीर अनीस ने शाह-ए-वक़्त की ख़िदमत में रिवायती तौर पर आदाब बजा लाने की भी ज़हमत नहीं की। महज़ कुर्सी से खड़े हो कर निज़ाम का इस्तिक़बाल किया। दोनों के दरमियान ये मुलाक़ात दस-पंद्रह मिनट की रही। जिसके बाद निज़ाम रुख़स्त हो गए।
मीर अनीस इन्किसारी का नमूना थे लेकिन रोअब-दाब-ए-शाही से मरऊब नहीं होते थे। बल्कि शाह-ए-वक़्त उनसे मुलाक़ात के मुश्ताक़ रहा करते थे।
जमाल अब्बास
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