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जगजीत सिंह: ग़ालिब की आत्मा की तलाश में

जगजीत सिंह का नाम ज़हन में आते ही चेहरे पर आज भी मुस्कुराहट आ जाती है। जगजीत सिंह पिछली सदी की नब्बे वाली दहाई में जवान होती नस्ल के नौस्टेलजिया का एक अहम किरदार है। वो पीढ़ी जिस तरह अपने बचपन में कार्टूनिस्ट प्राण के किरदारों की नई काॅमिक्स की बेतहाशा राह तका करती थी, ठीक उसी शिद्दत से जगजीत सिंह के नई कैसेट्स उस जवान होती पीढ़ी को मुंतज़िर रखते थे। पाॅकेट-मनी जोड़-जोड़ कर और दोस्तों के साथ पैसे मिलाकर जगजीत सिंह के नए कैसेट्स ख़रीदना कैसा सुख देने और रोमांचित करने वाला एहसास था, बताया नहीं जा सकता।

पैदाइश और इब्तिदाई दिन

ग़ज़ल किंग, किंग ऑफ़ ग़ज़ल्स या ग़ज़ल माइस्ट्रो जैसी उपाधियों वाले जगजीत सिंह ने 8 फरवरी 1941 को श्रीगंगानगर राजस्थान में जगमोहन सिंह धीमान के नाम से जन्म लिया। वालिद सरदार अमर सिंह धीमान पी.डब्लू.डी. में थे और हर वालिद की तरह बेटे को आला तालीम दिलाकर महफ़ूज़ भविष्य बनाना चाहते थे। मगर शुरूआती तालीम हासिल करते-करते जगजीत मौसिक़ी की तरफ खिंचने लगे। डी.ए.वी. कालिज जालंधर से आर्ट्स में डिग्री हासिल करने के बाद 1961 में आकाशवाणी जालंधर से जगजीत सिंह ने संगीत के करियर की इब्तिदा की। साथ ही साथ हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की तालीम भी जारी रखी।

बम्बई का रुख़

जगजीत सिंह हिन्दी फिल्मों के संगीत में अपना मुस्तक़बिल तलाशने की ग़रज़ से साल 1965 के मार्च में बग़ैर घर वालों को बताए बम्बई जा पहुंचे। शुरुआत में उन्हें एडवर्टाइज़ के लिए गाने के मौक़े मिले और फिर धीरे-धीरे प्ले-बैक सिंगिंग की शुरुआत भी होने लगी।

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चित्रा की आमद

1967 तक का दौर जगजीत सिंह के लिए परेशानी का दौर था। इसी साल उनकी मुलाक़ात एक बंगाली लड़की चित्रा दत्ता से हुई। मुलाक़ातें इतनी गहरी होती गयीं कि 1969 में दोनों ने शादी कर ली। चित्रा दत्ता की यह दूसरी शादी थी। दोनों ने साथ गाना शुरू कर दिया था और दोनों का पहला ग़ज़ल एल्बम ‘दि अन्फ़ोरगेटेबिल्स’ के नाम से 1977 में मन्ज़रे-आम पर आया और इस एल्बम ने इस जोड़ी को घर-घर में पहचान दिला दी। इस एल्बम की नज़्म ‘बात निकलेगी..’ तो हर जगह सुनी और सराही गयी।

क़िस्सा ”वो काग़ज़ की कश्ती” का

1980 तक आते-आते यह जोड़ी मुल्क और मुल्क के बाहर लाइव कन्सर्ट्स कर चुकी थी। पहली मर्तबा जगजीत-चित्रा ने एक एल्बम में एक ही शायर की शायरी को गाया और संगीत दिया। यह सुदर्शन फाकिर थे। यह एल्बम इस जोड़ी और फाकिर के लिए भी मील का पत्थर साबित हुआ, ख़ासतौर पर नज़्म ‘वो काग़ज़ की कश्ती वो बारिश का पानी’..तो दुनिया भर में देर तक सुनी गई और आज भी उसका जादू बरक़रार है।

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बेटे विवेक का जाना

जगजीत-चित्रा की ग़ज़ल गायकी का दो दहाइयों से ज़ियादा का साथ, उनकी सबसे क़ीमती निशानी के अचानक बिछड़ जाने के सबब 1990 में टूट गया। दोनों के इकलौते बेटे बीस बरस के विवेक की एक एक्सीडेंट में हुई मौत ने चित्रा से उनकी गायकी छीन ली और जगजीत की आवाज़ में बला का दर्द भर दिया। इस सानिहे के बाद जगजीत सिंह को अकेले ही अपने चाहने वालों के लिए गुनगुनाना पड़ा।

जगजीत सिंह और फ़िल्में

जगजीत सिंह 1965 में फ़िल्मों में अपनी क़िस्मत आज़माने माया-नगरी पहुंचे थे। मगर वहां से वो हिंदुस्तानी ग़ज़ल गायकी की पहचान और शान बनकर उभरे। फ़िल्मों में भी जगजीत सिंह ने अपनी अमिट छाप छोड़ी। फिल्म ‘प्रेमगीत’ का ‘होंठों से छू लो तुम..’ से यह सिलसिला शुरू हुआ तो आख़ीर तक जारी रहा। फिल्म ‘अर्थ’ और ‘साथ-साथ’ ऑडियो कैसेट के उस वक़्त हर घर की कैसेट-लाइब्रेरी की ज़रूरत और मेयार हुआ करते थे। फिल्मों में जगजीत सिंह ‘झुकी झुकी सी नज़र’, ‘कोई यह कैसे बताए’, तेरे ख़ुशबू में बसे ख़त’, तुम इतना जो’, ‘प्यार मुझसे जो किया’, ‘तुमको देखा तो यह’, ‘ये तेरा घर’, ‘हज़ार बार रुके हम’, ‘चिट्ठी न कोई संदेस’, ‘होश वालों को ख़बर’, ‘कोई फ़रयाद’, ‘बहुत ख़ूबसूरत हैं’ वग़ैरा कभी न भूलने वाले नग़में और ग़ज़लें अपने दामन में लिए बैठे हैं। ‘नीम का पेड़’ के टाइटल गीत (मुंह की बात सुने हर कोई) को कौन भूल सकता है।

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जगजीत, गुलज़ार और मिर्ज़ा ग़ालिब

जगजीत सिंह ने एक बड़ा काम गुलजार और नसीरुद्दीन शाह के साथ मिलकर यह भी किया कि उर्दू और फ़ारसी के एक बहुत मुश्किल शायर मिर्ज़ा ग़ालिब को गाकर, ग़ालिब के गुज़रने के दो सदियों बाद उन्हें दुनिया भर में घर-घर पहुंचा दिया। गुलज़ार नसीर और जगजीत में मिलकर ग़ालिब को, जो कि सिर्फ़ मुश्किल पसंदों और सेमिनारों तक महदूद शायर था और जिसे आम सा शायरी समझने वाला छूते हुए भी डरता था, उस ग़ालिब को हर घर के ज़ाती बुज़ुर्ग के जैसा अपना बना दिया और इतना आसान कर दिया कि कच्ची उम्रों के आशिक़ और माशूक़ ग़ालिब के अशआर में अपने हिज्र की दवा खोजने लगे। यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि उर्दू न जानने वाली नई नस्ल ने ग़ालिब को जगजीत सिंह के ज़रिए ही जाना। गुलज़ार और नसीर के साथ-साथ जगजीत सिंह का यह एहसान उस जवान होती नस्ल पर हमेशा रहेगा।

इनआमो-इकराम

अपनी हयात में ही ग़ज़ल-गायकी का पर्याय बन चुके जगजीत सिंह को लता मंगेशकर सम्मान, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से डी. लिट., टीचर्स लाइफ़टाइम एवार्ड, दयावती मोदी एवार्ड, मिर्ज़ा ग़ालिब को मशहूर करने के लिए साहित्य अकादमी एवार्ड, पद्म विभूषण, राजस्थान रत्न वग़ैरा इनआमात से नवाज़ा गया।

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जगजीत सिंह की एहमियत

जगजीत सिंह ने ग़ज़ल को उर्दू न जानने वाले तबक़े में जो शोहरत दिलाई और ग़ज़ल को हिंदुस्तान भर के नौजवानों के दिलों की धड़कन बनाने का जो हैरत-अंगेज काम किया है उसका तसव्वुर आसान नहीं है। ग़ज़ल गायकी सिर्फ़ मुस्लिम गायकों की मिल्कियत मानी जाती थी क्योंकि ग़ज़ल गाने के लिए उर्दू की जानकारी बहुत ज़रूरी मानी जाती है। ख़ास तौर पर उर्दू तहज़ीब की जानकारी भी ज़रूरी मानी जाती है। उर्दू और उर्दू ग़ज़ल में जो नफ़ासत है वही नफ़ासत उर्दू ग़ज़ल को गाने वाले में भी होनी चाहिए। जगजीत सिंह ने न सिर्फ़ उर्दू ज़बान बल्कि इसकी तहज़ीब को अपनाया और अपने अन्दर इसकी नफ़ासत को जज़्ब भी किया। इसके अलावा ग़ज़ल गायकी में इस्तेमाल होने वाले रिवायती साज़ जैसे हारमोनियम, तबला, सितार के साथ-साथ गिटार, सैक्सोफ़ोन वग़ैरा का इस्तेमाल करते हुए आसान धुनें और आसान गायकी से आम सुनने वाले को भी अपने और ग़ज़ल के हल्क़े में शामिल किया। एक बड़ा काम यह किया कि ग़ज़ल गायकी से पैसा कमाकर दिखाया और बताया कि इस तरह भी शोहरत के साथ दौलत कमाई जा सकती है।

जगजीत सिंह हिन्दुस्तानी ग़ज़ल गायकी का सबसे उजला चेहरा है जो 10 अक्टूबर 2011 को आख़िरी सांस लेकर अमर हो गया।