#QissaKahani: जब दाग़ बोले, “मियाँ बशीर आप शेर कहते नहीं, शेर जनते हैं”
#QissaKahani रेख़्ता ब्लॉग की नई सीरीज़ है, जिसमें हम आपके लिए हर हफ़्ते उर्दू शायरों और अदीबों के जीवन और उनकी रचनाओं से जुड़े दिलचस्प क़िस्से लेकर हाज़िर होंगे। इस सीरीज़ की पहली पेशकश में पढ़िए दाग़ देहलवी की शगुफ़्ता-मिज़ाजी का एक दिलचस्प क़िस्सा।
दाग़ देहलवी का नाम किसने नहीं सुना। जो उर्दू शायरी का दीवाना है वो दाग़ का भी दीवाना है। एक बार अगर कोई दाग़ के कलाम से गुज़र जाये तो क्या मजाल कि वो उसके सह्र से आज़ाद वापस लौटे। दाग़ ने शायरी में शोख़ी, ज़राफ़त, इश्क़-ओ-आशिक़ी और महबूब से छेड़-छाड़ के वो रंग भरे हैं जो कभी फीके नहीं पड़ते।
दाग़ की शायरी की तरह उनकी शख़्सियत भी बड़ी बाग़-ओ-बहार और रंगीन थी। जब कभी दाग़ मजलिस में होते तो उनके मुसाहिबीन उनकी बातों और जुमलों से ख़ूब लुत्फ़ उठाते।
ऐसी ही किसी मजलिस का ज़िक्र है। बशीर रामपूरी दाग़ से मुलाक़ात के लिए दिल्ली पहुँचे। उन्होंने देखा कि दाग़ अपने मातहतों और मजलिस में मौजूद लोगों से बात कर रहे हैं और साथ-साथ नई ग़ज़ल के शेर भी लिखवाते जा रहे हैं। शेर कहने के इस अंदाज़ पर बशीर हैरान हुए और दाग़ से पूछ बैठे,
“दाग़ साहब, ये क्या बला है कि आप बातें भी किये जा रहे हैं और शेर भी कह रहे हैं?”
ये सुन कर दाग़ बोले, “बशीर साहब आप किस तरह शेर कहते हैं”
बशीर रामपुरी ने जवाब दिया, “मैं जब शेर कहता हूँ तो हुक़्क़ा भरवा कर अलग-थलग एक कमरे में चला जाता हूँ। बिस्तर पर लेट जाता हूँ। तड़प-तड़प कर करवटें बदलता हूँ और तब जाकर कोई शेर निकल पाता है।”
बशीर का ये जवाब सुन कर दाग़ मुस्कुराए और बोले,
“बशीर साहब मेरा ख़्याल है कि आप शेर कहते नहीं शेर जन्ते हैं।”
दाग़ का ये कहना था कि महफ़िल क़हक़हा-ज़ार हो गई और बशीर साहब शर्म से भरी मुस्कुराहट के साथ चुप हो गए।
पेशकश: हुसैन अयाज़
NEWSLETTER
Enter your email address to follow this blog and receive notification of new posts.