हम अपनी कल्पना के सहारे वो सब देखते हैं जो खुली आँखों से नहीं देख सकते

ना-दीदा (अनदेखा) ना-शुनीदा (अनसुना) ना-गुफ़्ता (अनकहा) ऐसे कितने ही “ना” होने वाले लफ़्ज़ हैं जो अपने अंदर बला का हुस्न, तजस्सुस, राज़ और रम्ज़ रखते हैं।

रात के सन्नाटे में किसी अजनबी परिंदे की अजीब सी आवाज़ हो या पहाड़ों पर दूर किसी के बाँसुरी बजाने की आवाज़ हो, दोनों ही सूरतों में आवाज़ का मरकज़ ग़ाएब है और दोनों ही आवाज़ें सुनने वाले के दिल में अजीब रम्ज़ (भेद) की कैफ़ियत जगाती हैं। एक अलग तिलस्माती दुनिया में ले जाती हैं।

यक़ीन और गुमान (भ्रम) दोनों में एक बात मुश्तरक है कि दोनों हमारे ज़ेहन में एक तस्वीर बनाते हैं, और फ़र्क़ ये है कि यक़ीन एक ही तस्वीर बनाता है मगर गुमान की कोई हद नहीं। गुमान की तस्वीरों में यक़ीन की तस्वीर भी हो सकती है मगर यक़ीन की तस्वीर बनती है तो गुमान की सारी तस्वीरें मिट जाती हैं।

यक़ीन का न होना हमारे सामने तमाम असातीरी किरदार, दासतानी मक़ाम और अफ़्सानवी इम्कान का रस्ता खोल देता है। हमारे दिल की कैफ़ियत और मौक़े के मुताबिक़ तस्वीर में ख़ुद रंग भरता है। रात के सन्नाटे में पहाड़ों के बीच कोई बाँसुरी बजा रहा हो तो ज़ेहन उस बाँसुरी वाले को अपने जैसा इंसान समझने से गुरेज़ ही करता है और उसमें कुछ रम्ज़ियत कुछ रहस्यमयी देखना चाहता है। उसकी शक्ल उसका पहनावा सब कुछ किसी परियों की कहानी जैसा तसव्वुर करता है। और अगर तसव्वुर नहीं करता तो भी उसका न दिखना ही अपने आप में रम्ज़ (रहस्य) जगाने के लिए बहुत है।

अनसुनी, अनदेखी, अजनबी, अनसुलझी चीज़ों में ग़ज़ब की कशिश होती है। मैं इसीलिए मानता हूँ कि विसाल इश्क़ का ज़वाल है।

ज़माना था वो दिल की ज़िंदगी का
तिरी फ़ुर्क़त के दिन लाऊँ कहाँ से

जौन एलिया

क्यूँकि अब तजस्सुस के लिए कुछ रह नहीं गया। तजस्सुस दूर होने का मज़ा अपनी जगह, मगर किसी चीज़ के हल न होने का दाइमी लुत्फ़ और ही चीज़ है।

होने और हो सकने में बहुत बड़ा फ़र्क़ है, हो सकने में इम्कानात का ख़ज़ाना होता है, ‘हो सकना’ एक ला-महदूद बे-अन्त समुंदर है और ‘होना’ उस समुंदर को किसी बर्तन में बन्द कर देता है।

जौन है इक कमाल हो सकना
और होना ज़वाल है शायद

जौन एलिया

अनकही बात के सौ रूप, कही बात का एक
कभी सुन वो भी जो मिन्नत-कश-ए-गोयाई नहीं

ज़िया जालंधरी

एक लम्हा था अजब उसकी शनासाई का
कितने ना-दीदा ज़मानों से मुलाक़ात हुई

क़ैसर-उल-जाफ़री

वो हुस्न की ज़ियादती की वज्ह से हो या ग़म की ज़ियादती की वज्ह से, मगर रम्ज़ियत का लुत्फ़ अलग ही लुत्फ़ है।
इसी लिए ना-दीदा, ना-शुनीदा, ना-आफ़रीदा में बला की लज़्ज़त है।

हूँ गर्मी-ए-निशात-ए-तसव्वुर से नग़्मा संज
मैं अंदलीब-ए-गुलशन-ए-ना-आफ़रीदा हूँ

ग़ालिब

(मैं तसव्वुर के सहारे ही नग़्मे गा रहा हूँ चहचहा रहा हूँ क्यूँकि मैं उस चमन का बुलबुल हूँ जो चमन अभी बना ही नहीं है, लेकिन मेरे तसव्वुर में तो है और तसव्वुर के चमन के आगे ये दुनिया के ज़ाहिरी चमन कहाँ ठहरते हैं। मेरा चमन क्यूँकि इतना पुर-कशिश, सेहर-अंगेज़ और रम्ज़ (रहस्य) से भरा है, इस लिए मेरे नग़्मे में ये जादू है।

जॉन कीट्स ने कहा है:

Give me books, french wine, fruits, fine weather and a little music played out of doors by somebody I do not know

“Somebody I do not know” कहा, क्यूँकि अगर वो साज़िंदा सामने हो और हम उससे आशना हों तो हम कहीं उस धुन को उसकी शख़्सियत के साथ न मिला दें। अजनबी साज़िंदा जिस की शक्ल भी नहीं दिख रही, वो हमारे तसव्वुर में हज़ार इस्तिआरों और हज़ार अलामतों को जनम देगा, कभी किसी अलिफ़-लैलवी दासतान का किरदार बन जाएगा कभी किसी परियों के चमन का बलबुल या कभी ख़ुद सरापा साज़ बन जाएगा।

ज़ शेर-ए-मन दिगराँ कामयाब-ओ-मन महरूम
ज़बाँ चू गोश कुजा लज़्ज़त-ए-सुख़न याबद

ग़नी कश्मीरी

(मेरे शे’रों से दूसरों को बहुत फ़ाएदा हुआ मगर मैं ख़ुद महरूम रहा, सुख़न की लज़्ज़त जैसी कान को हासिल होती है वैसी ज़बान को कहाँ।)

इस शे’र में एक बात ये भी है कि शे’र कहने वाले पर शे’र के किरदारों, उसके मक़ामात, और उसके तमाम पहलुओं की एक यक़ीनी शक्ल पहले से ज़ाहिर होती है, लेकिन सुनने वाले के पास यक़ीन की दीवार नहीं होती, तो उसकी लज़्ज़त ला-महदूद है।

कभी किसी चीज़ की रम्ज़ियत या उसके पुर-असरार होने को ऐसे बयान किया जाता है कि वो अनदेखा हो नहीं रहा लेकिन देखने के बाद भी उसको बयान करना मुश्किल है। यानी ना-दीदा नहीं है मगर ना-गुफ़्ता ज़रूर है।

रामचरित मानस में सीता जी की सहेली श्री राम और लक्ष्मण के सौंदर्य का बखान करते हुए कहती हैं कि:

श्याम गौर किमि कहौं बखानी।
गिरा अनयन नयन बिनु बानी।।

एक श्याम रंग और एक गौर रंग के थे, मैं उनका बखान कैसे करूँ कि मेरी ज़बाँ ने तो उन्हें देखा नहीं जो वो उनके रूप का सही से वर्णन कर सके, मेरी आँखों ने देखा है लेकिन आँखें बोल नहीं सकतीं। गोया ऐसा सौंदर्य था कि ज़बान उसको बयान कर नहीं सकती, सिर्फ़ आँख ही बयान कर सकती है अगर बोल पाए तो।

(ये है वो अनकही बात की लज़्ज़त।)

जिगर मोरादाबादी का भी ऐसा ही एक शे’र है:

तिरे जमाल की तस्वीर खींच दूँ लेकिन
ज़बाँ में आँख नहीं आँख में ज़बान नहीं

बात ये है कि अन-कही में हज़ार सुख़न, अनसुनी में हज़ार नग़्मे और अनदेखे में हज़ार रंग होते हैं और यक़ीन से ज़्यादा लज़्ज़त गुमान में है।