बानी: वो शायर जिसके यहाँ लफ़्ज़ तस्वीर में बदल जाते हैं
“बानी ज़रा संभल के मुहब्बत का मोड़ काट
इक हादिसा भी ताक में होगा यहीं कहीं”
इस बात से कौन इन्कार कर सकता है कि हादसे तभी होते हैं जब हम इसके लिए सबसे कम तैयार होते हैं; और राजेन्द्र मनचंदा बानी का यह ख़ूबसूरत और सच्चा शेर हमें यक़ीन दिलाता है कि वह भी इसी दुनिया का हिस्सा थे और उनकी परीशानियाँ भी हमसे अलग नहीं थीं। फिर भी, बानी बीसवीं सदी में अपने हम-अस्र शायरों, जिनमें जौन एलिया, अहमद फ़राज़, नासिर काज़मी, बशीर बद्र और निदा फ़ाज़ली शामिल हैं, में सबसे कम जाने-पहचाने नामों में से एक हैं।
इसकी वज्ह जो भी हो, उनकी इतनी ख़ूबसूरती से कही गई ग़ज़लों के बारे में इतनी देर से जानना आख़िरश हमारा ही नुक़्सान साबित हुआ है। मैं जो ये बात कह रहा हूँ इसकी वज्ह कुछ और नहीं, बल्कि उनके सुख़न का एक अलाहिदा अन्दाज़ है जिसने उन्हें उर्दू शायरी की दुनिया में पूरी तरह से एक अलग पहचान दिलाई। बानी के बारे में सबसे क़ाबिल-ए-ग़ौर बात उनकी आसान लेकिन पुर-असर लफ्ज़ों के ज़रिए से एक मन्ज़र पैदा करने का हुनर है।
दो शेर देखिए,
इस शेर को पढ़ते हुए हम तसव्वुर की उड़ान भरते हैं और सीधे उसी जगह पर उतरते हैं जहाँ इस वक़्त वो घटना घट रही है। ज़ाती तौर पर, जब भी मैं इस शेर को सुनता हूँ, तो मैं ख़ुद को एक घने जंगल में एक (शंख) की ख़ुशनुमा धुन का पीछा करते हुए पाता हूं, जिसे जंगल के किसी बहुत ही वीरान कोने में बैठकर एक जोगी बजा रहा है। यही उनकी शायरी का करिश्मा है। वह हमें अपनी ज़िन्दगी में देखी गई हर चीज का गवाह बनाते हैं और ये तय करते हैं कि उनके तजरबे हमारे साथ ज़िन्दा रहें।
उनकी ग़ज़लों से गुज़रते हुए आप उनकी मन्ज़र पैदा करने के हुनर के बारे में जानेंगे और आपको यक़ीन हो जाएगा कि वह एक शानदार मुसव्विरी की सलाहियत रखने वाले शायर थे। एक ग़ैर-मामूली हुनर रखने वाला मुसव्विर, जिसके हाथों में ब्रश के बजाय एक क़लम थमा दी गई और कहा गया कि अपनी ज़िन्दगी की ख़ल्वत-ओ-कुर्बत की ज़िन्दा तस्वीरों को काग़ज़ पर उतारें| और यह किसी तरह की मुबालग़ा आराई नहीं होगी अगर मैं कहूँ कि वह ऐसा करने में पूरी तरह से कामयाब रहे हैं। उन्होंने अपनी रंग भरने वाले ब्रश को एक माहिर रक़्क़ासा की तरह रक़्स कराया, क़लम में भरी हुई गहरी और उबाऊ सियाही को अलग-अलग चटख रंगों में तब्दील किया और उन्हें एक साथ लाकर अपने जज़्बात का बड़ी ही आसानी से इज़्हार किया है।
आइए इस बात को इस ख़ूबसूरत शेर के ज़रिए से समझते हैं,
यहाँ एक बात बिल्कुल वाज़ेह है कि बानी ने इन अश्आर में ऐसे लफ़्ज़ों का इस्तेमाल किया है (जैसे कि छाँव, बरगद, जटाओं, घात, पार उतरना) जो पूरी तरह से खड़ी बोली के लफ़्ज़ हैं और अपनी शायरी के हुस्न में इज़ाफ़े के लिए किसी से भी बेहतर तरीके से वो इन लफ्ज़ों को मिसरों में बुना। वह उन बिल्कुल शुरूआती शायरों में से हैं जिन्होंने शायरी में पहले से मक़्बूल लफ़्ज़ों को इस्तेमाल में लाने की रवायत को तोड़ा और उन लफ़्ज़ों को ब-ख़ूबी अपने सुख़न में लेकर आए जो पहले कभी इसके लिए कम मुनासिब समझे गए थे। यहाँ पर बानी के साथ-साथ इब्ने इंशा का नाम भी लेना ज़रूरी समझता हूँ क्यूँकि उन्होंने जिस हुस्न के साथ खड़ी बोली के लफ्ज़ों को अपनी ग़ज़लों और नज़्मों में पिरोया है वो बिल्कुल ही अलग क़िस्म का काम है| लफ़्ज़ों के साथ किए गए बानी के अनोखे प्रयोगों ने उर्दू शायरी को एक नया आयाम दिया हालाँकि इसे उनके जाने के दशकों बाद ही महसूस किया जा सका। और इनके नक़्श-ए-पा पर चलते हुए आज पाकिस्तान के भी युवा शोअ’रा जिनकी मादरी ज़बान हिंदी नहीं है, वो भी ऐसे लफ़्ज़ों को इस्तेमाल में ला रहे हैं।
हालाँकि, बानी के बारे में सबसे हैरत बात ये है कि उन्हें शायरी के मक़्बूल अल्फ़ाज़ से भी उतनी ही वाक़फ़िय्यत रखते थे और ये शेर इस बात की तस्दीक़ करते है।
अब देखिए, इस शेर में क्या ही फ़ल्सफ़ियाना ख़याल छिपा है! जब भी हम साँस लेते हैं, हम एक ही हवा में साँस नहीं लेते हैं। जितनी बार हम सुनते हैं, एक ही आवाज़ को नहीं सुनते हैं। और इसलिए, जितनी बार हम देखते हैं, हम उसी मन्ज़र को नहीं देखते हैं। दर-अस्ल, हम कभी भी एक मन्ज़र को दुबारा नहीं देख सकते क्योंकि हवा लगातार बहती रहती है, नदी लगातार बहती रहती है और सूरज लगातार चमकता रहता है। हर बार जब हम कुछ देखते हैं, वो हमारी पलकों को झपकने से ठीक पहले हमने जो देखा, उससे बिल्कुल अलग और नया होता है। इस फ़ानी दुनिया में, हर शै एक सेकंड के बहुत ही छोटे हिस्से में खुद को बर्बाद और पैदा करती रहती है और आप कभी भी एक ही शै को दो बार नहीं देख सकते हैं। अपने एक और शेर के ज़रिए से बानी अपने इस मन्तिक़ को मज़बूत भी करते हैं और हमें अपनी बात से मुत्तफ़िक़ भी करते हैं।
शेर देखिए,
यहाँ पे इनका नज़रीया जो पिछले शेर में थोड़ा सा ढँका हुआ था वो पूरी वजह से वाज़ेह हो जाता है।
अब आते हैं इनकी ज़ाती ज़िन्दगी की तरफ़, बानी का जन्म 1932 में मुल्तान जिले (अब पाकिस्तान में) में हुआ था और हिन्दुस्तान की आज़ादी के बाद 1947 में दिल्ली (भारत) चले आए। उन्होंने पंजाब यूनिवर्सिटी से अपनी आगे की पढ़ाई जारी रखी और अर्थशास्त्र में मास्टर्स की डिग्री हासिल की। बाद में, बानी ने दिल्ली एक स्कूल में पढ़ाना शुरू किया और अपनी जज़्बात और ज़िन्दगी के तजर्बों का इज़्हार करने के लिए कितनी ही बा-कमाल ग़ज़लें लिखीं। कुल मिलाकर उनके तीन शेरी मजमूए शाया हुए हैं, हर्फ़-ए-मोतबर (1971), हिसाब-ए-रंग (1976) और शफ़क़ शजर (1982)। बचपन से ही बानी की सेहत कमज़ोर रहती थी और अपने शदीद जज़्बात की तरह वे लगातार बीमारियों की चपेट में रहे, उनके प्रति हमेशा बहुत ही हस्सास रहे।
ये हस्सासियत उनके इस शेर में साफ़-साफ़ झलकती हैं,
अब ये बात हमारी ज़िन्दगी के लिए भी उतने ही मायने रखती है। अपनी पूरी ज़िन्दगी में हमें मज़बूत होना सिखाया जाता है| अपने जज़्बात को दबाने के लिए और हम जिस तरह की कैफ़ीयतों से गुज़र रहे हैं उसे छुपाने के लिए हमें मुतअस्सिर भी किया जाता है और मज़बूर भी। मुआशरे के दबाव को देखते हुए हम धीरे-धीरे अपने चेहरे पर एक बे-इज़्हार नक़ाब लगाना सीख भी जाते हैं| हम दुनिया को नहीं बताना चाहते हैं कि दर-अस्ल हम कैसा महसूस कर रहे हैं। लेकिन मज़बूत दिखने की इस दौड़ में, हम धीरे-धीरे अन्दर से बहुत कमज़ोर होते जाते हैं और एक दिन, बद-क़िस्मती के एक बहुत ही महीन लम्स से हम पूरी तरह बिखर जाते हैं। बानी कभी इस दबाव के आगे नहीं झुके, उन्होंने अपनी शायरी में अपनी परीशानियों और कमज़ोरियों का बहुत ही खुलकर इज़्हार किया; और यही वो बात है जो उन्हें मुआशरे के बाक़ी लोगों से अलग बनाती है।
और इसलिए इसमें कोई तअज्जुब नहीं कि उन्हें हमेशा ऐसा लगा कि एक भीड़ का हिस्सा होकर भी उनका रास्ता अलग है,
और एक छोटी सी नज़्म देखिए,
बंजर चेहरे
जिन पर
न बारिश की पहली बूँद का
इज़हार उगता है
न आते जाते लम्हों का
कोई इक़रार इंकार
न इत्मीनान न डर
आँखें
जिन में कोई निगाह
पलकों से नहीं उलझती
बाक़ी हवास भी
ख़ुशबू और ख़ुशबू की शोहरत से
आवाज़ और आवाज़ की क़ुव्वत से
यकसर आरी हैं
कौन हैं ये लोग
किस मौज-ए-फ़ुज़ूलियत की ज़द में आ गए हैं
चुप खड़े हैं
और हम
दिन भर में
शहर के सारे
फ़रिश्तों और शैतानों से
मिल कर लौट आते हैं
मगर ये चुप खड़े हैं
न क़ाएल होते हैं
न ज़ाइल!
इन से हमारा तअल्लुक़
अभी तक वाज़ेह नहीं हुआ
तअल्लुक़ इस लिए
कि हम मज़दूर हैं
और ये जानने का
इश्तियाक़ रखते हैं
हमें क्या काम मिलेगा
इन के लिए टावर बनाने का
कि इन के लिए क़ब्रें खोदने का!
इस नज़्म के ज़रिए से बानी उन लोगों की तरफ़ इशारा करते हैं जो ख़ुश होने पर खुलकर हँसने और उदास होने पर रोने से परहेज़ करते हैं| उन्हें हमेशा इस बात का ख़ौफ़ सा रहता है कि अगर वे मुआशरे के तय किए हुए तरीक़े से बर्ताव नहीं करते हैं तो मुआशरे का क्या रद्द-ए-अमल होगा। कुछ हद तक, उनका ये ख़ौफ़ मुनासिब भी है क्योंकि हमारे आस-पास ऐसे लोग भी हैं जिन्हें हमारी ख़ुशी से हसद होती है और हमारी तक्लीफ़ के बारे में जानकर उनके दिल को तस्कीन मिलती है| लेकिन फिर भी, हमें मुआशरे में रहने वाले बाक़ी लोगों के मुक़ाबले अपने बारे में ज़ियादः परवाह करनी चाहिए और यही बानी हमें सिखाना चाहते हैं। मुख़्तसर लफ़्ज़ों में, वो हमें बेबाक होकर और अपने मनपसंद तरीक़े से इज़्हार करने के लिए हमारी हौसला-अफ़ज़ाई करते हैं क्योंकि यही एक ऐसी शै है जो एक इन्सान को अन्दर से ज़िन्दा रखती है और मुआशरे को रहने के लिए एक बेहतर जगह बनाती है।
बानी के बारे में करने के लिए और भी कई बातें हैं लेकिन फ़िल्हाल उसे किसी और दिन के लिए रहने देते हैं। और अपनी बात को बानी के इस शेर के साथ ख़त्म करते हैं कि,
“वो टूटते हुए रिश्तों का हुस्न-ए-आख़िर था
कि चुप सी लग गई दोनों को बात करते हुए”
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