Rauf Raza - Rekhta Blog

रउफ़ रज़ा: जिन्हें भरी बहार में इस दुनिया से उठा लिया गया

आज रऊफ़ रज़ा साहब को गए 4 साल हो गए और आज भी यक़ीन नहीं होता कि वो अपने फ़ानी जिस्म के साथ इस दुनिया में मौजूद नहीं हैं। लेकिन ज़ियाद: दुख इस बात का है कि रऊफ़ साहब ने उस वक़्त इस दुनिया को अलविदाअ’ कहा जब उनकी शाइरी अपने उरूज पर थी। रऊफ़ साहब का नाम जदीद शाइरी के उन मो’तबर नामों में शुमार होता है जिन्होंने अपने आस-पास की चीज़ों को शाइरी में ढालकर ज़िन्दगी को देखने का एक ऐसा नज़रीया पेश किया जिधर हमारी नज़र कम ही गई थी। एक शे’र देखिए:

“मैं कैसे मर सकता हूँ
इतना क़र्ज़ा मुझ पर है”

वो कोई फ़नकार हो, कोई कारोबारी या आम नौकरी-पेशा आदमी; घर चलाने की जद्दोजहद और रोज़गार के ग़म से कोई बच नहीं पाया है आजतक। और रऊफ़ रज़ा साहब का ये शेर इस बात की तस्दीक़ करता है कि इन्सान जब तक जिंदा रहता है अपनी ज़रूरतों के बोझ तले दबा रहता है और अपनों का ख़याल रखने, घर चलाने की फ़िक्र उसे फ़रार होने की इजाज़त नहीं देती। हम सबकी तरह रऊफ़ रज़ा साहब भी इसी बोझ के तले दबे थे मगर जो बात उन्हें ख़ास बनाती है वो ये है कि वो हमें आस-पास की आम-सी दिखने वाली घटनाओं पर ग़ौर करने के लिए मज्बूर करते हैं और दुनिया को देखने के लिए एक नई क़िस्म की बीनाई अता करते हैं।

बारिश अच्छी है लेकिन
छत पर एक कबूतर है

इस शेर को पढ़ते हुए एक अजीब सी कैफ़ीयत हमारे ज़ेहन पर तारी हो जाती है जो हमें ये एहसास दिलाती है कि मौसम और मिज़ाज को ख़ुशनुमा बनाने वाली बारिश किसी मुफ़्लिस के बे-अमाँ होने के दर्द को भी उभार सकती है और उभारती आई भी है। किसी मज्बूर, किसी मुफ़्लिस और आम-आदमी की चिंताओं और परीशानियों को रऊफ़ साहब ने कुछ इस तरह से शाइरी में पिरोया है जो न केवल शाइरी की रवायती अल्फ़ाज़ की बंदिशों को तोड़ती है बल्कि उनके हुस्न में इज़ाफ़ा भी करती है। चंद शे’र देखिए:

दुःख-दर्द तो गाते हुए गुल-बूटे हैं उसके
सूरज से बड़ी होती है मजदूर की डफ़ली

चुपके से मेरी मेज़ पे आ जाती है अक्सर
लहराती हुई तख़्ती, वो इस्कूल की घंटी

शाइर न हुए होते उसे भूल भी जाते
दिन-रात चला लेते ख़राबात की चक्की

रऊफ़ साहब की शाइरी मद्धम आँच पे पकने वाली शाइरी है, जिसकी ख़ुश्बू पढ़ने और सुनने-वालों के अंदर तक उतर उनके हवास को मुअत्तर कर देती है। उनके पास बहुत शोर करने वाले शेर नहीं है बल्कि ऐसे शेर हैं जो धीरे-धीरे खुलते हैं और पढ़ने वालों के लिए मआनी का एक नया दरवाज़ा खोलते हैं। उनकी ग़ज़लों के मिसरे बिल्कुल सीधे हैं, बिल्कुल गुफ़्तुगू की तरह आसान और दरिया के पानी की तरह रवाँ।

रौशनी होने लगी है मुझमें
कोई शय टूट रही है मुझमें

मेरे चेहरे से अयाँ कुछ भी नहीं
ये कमी है तो कमी है मुझमें

बात ये है कि बयाँ कैसे करूँ
एक औरत भी छुपी है मुझमें

इसके अलावा ज़बान के इस्तेमाल का बेहतरीन नमूना भी उनके यहाँ देखने को मिलता है। उनकी इक शाहकार ग़ज़ल में उन्होंने अल्फ़ाज़ और ज़बान को जिस तरह से बरता है वो देखने लायक़ है। ग़ज़ल देखिए:

हमरक़्स एहतियात ज़रा देर की है बस
ये महफ़िल-ए-हयात ज़रा देर की है बस

कैसे महक उठे हैं मिरे ज़ख़्म क्या कहूँ
फूलों से मैंने बात ज़रा देर की है बस

मैंने कहा मैं रात के जोबन पे हूँ निसार
उसने कहा ये रात ज़रा देर की है बस

मैं जी उठा मैं मर गया दोबारा जी उठा
ये सारी वारदात ज़रा देर की है बस

कुछ और इन्तिज़ार कि फिर वस्ल-वस्ल है
क़िस्मत ने तेरे साथ ज़रा देर की है बस

इतना ही नहीं, उनके अशआर में बच्चों का एक ख़ास किरदार है और उनकी मौजूदगी ने एक अलग क़िस्म की हलचल पैदा की हैं।

बच्चों की छेड़-छाड़ से सहमी हुई ज़मीं
छोटी सी एक प्लेट में रक्खी हुई ज़मीं

मेरी क़लंदरी मेरे बच्चों में आ गई
गुलज़ार हो गई मेरी सींची हुई ज़मीं

वो तो बच्चों की पतंगों ने उसे घेर लिया
वरना चुपके से निकल जाती बहार आई हुई

बच्चों में उनकी दिलचस्पी सिर्फ़ शाइरी तक ही सीमित नहीं थी बल्कि अपने आस-पास के नए लिखने-पढ़ने वालों से बड़े ख़ुलूस से मिलते थे और उनकी ख़ूब हौसला-अफ़ज़ाई करते थे।

रऊफ़ रज़ा साहब का जन्म अप्रैल 1954 को उत्तर प्रदेश के अमरोहा में हुआ लेकिन इसके एक साल बाद ही उनका पूरा कुनबा पुरानी दिल्ली आ गया और यहीं का होकर रह गया| रऊफ़ रज़ा का बचपन ग़ालिब और दाग़ की गलियों में खेलते हुए बीता और उनकी तालीम अलीगढ़ और आगरा में हुई। साल 1975 से उनकी शाइरी का सफ़र शुरूअ’ हुआ और उसके बाद वो शाइरी के चाहने वालों के दिलों में छाते चले गए। 90 के दशक में उनकी शाइरी का पहला मज्मूआ “दस्तकें मेरी” शाया हुआ। उनकी शाइरी का दूसरा मज्मूआ उनके इंतिक़ाल के बाद “ये शाइरी है” के नाम से शाया हुआ। उनकी ग़ज़लें “सरहद के आर-पार की शाइरी” के ज़रीए पहली बार देवनागरी में शाइरी के चाहने वालों के लिए दस्तयाब हुई। 02 दिसंबर 2016 को रऊफ़ साहब का अचानक इस फ़ानी दुनिया से चले जाना अदब के साथ ही नए लिखने-पढ़ने वालों के लिए एक बड़ा ज़ाती नुक़सान है।

रऊफ़ साहब को याद करते हुए जनाब फ़रहत एहसास साहब के लफ़्ज़ थे- “मौत ने अपना काम कर दिया अब ज़िन्दगी को अपना काम करने दीजिए। रऊफ़ की मौत का जो मुझे दुख है वो ये है कि उन्हें भरी बहार में उठाया गया। इस वक़्त वो अपनी शायरी के उरूज पर थे और ख़ूब ग़ज़लें कह रहे थे। ख़ैर, इस बात को यहीं रोक देना ठीक है वरना बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी”। इसलिए अपनी बात को रऊफ़ रज़ा साहब के इस शेर के साथ यहीं रोकता हूँ कि:

यूँही हँसते हुए छोड़ेंगे ग़ज़ल की महफ़िल
एक आँसू से ज़ियादा कोई रोने का नहीं।