Sahir-Ludhianvi Blog

साहिर लुधियानवी: नग़्मों में ज़िंदगी

जब 8 मार्च 1921 में अब्दुल हई जब लुधियाना में पैदा हुए तब लुधियाना बड़ा शहर नहीं था। लुधियाना में मुस्लिम तब्क़े की तादाद हिन्दू और सिख तब्क़े के मुक़ाबले में बे-हद कम थी। और अब्दुल के दोस्तों में अक्सर हिन्दू और सिख दोस्त शुमार होते थे जो फ़ारसी रस्म-उल-ख़त में लिखी जाने वाली पंजाबी बोलते थे। अब्दुल भी गुरुमुखी और फ़ारसी रस्म- उल-ख़त के साथ- साथ पंजाबी और उर्दू ज़बान का ख़ासा इल्म रखते थे। फ़िर्क़ा-परस्ती के नाम-ओ-निशान से दूर- दूर तक वास्ता न रखने वाले लुधियाना ने अब्दुल को जज़्बात और एहसास का एक ख़ुश-नुमा माहौल मुहैया कराया। और उनका तख़्लीक़ी ज़ेहन शाइरी की जानिब राग़िब होने लगा। उनके वालिद का नाम चौधरी फ़ज़्ल मुहम्मद था।

औरत को सिर्फ़ एक जिस्म की नज़र से देखने वाले अब्दुल फ़ज़्ल ने कुल बारह शादियाँ कीं। जब चौधरी फ़ज़ल ने अपने बारहवें निकाह को अंजाम दिया तब अब्दुल की माँ सरदार बेगम सुर्ख़ सेंड स्टोन हवेली का ऐश-ओ-आराम छोड़ कर अब्दुल के साथ अपने मायके चली आईं। उन्होंने ज़मीन-जाएदाद बेच कर अय्याशी करने वाले चौधरी फ़ज़्ल पर मुक़द्दमा दायर कर दिया जो तेरह सालों तक चला और आख़िरश अदालत का फ़ैसला बेगम के हक़ में आया लेकिन चौधरी ने ज़मीन की ख़रीद-फ़रोख़्त करने वाले तमाम माफ़िए बेगम के पीछे लगा दिए। धमकियाँ यहाँ तक दी गईं कि अब्दुल को चौधरी के हवाले कर दिया जाए वर्ना उसे क़त्ल कर दिया जाएगा। इस सब के बावजूद बेगम ने हार नहीं मानी और डट कर मुश्किलों का सामना किया। नतीजतन अब्दुल के ज़ेहन में इन तमाम वाक़िआत का गहरा असर पड़ा और होते-होते अब्दुल हई साहिर लुधियानवी हो गए।

साहिर उस वक़्त के वाहिद ऐसे शाइर थे जिन्होंने न सिर्फ़ ज़मीन- दारी और जागीर- दारी की रिवायत की मज़म्मत की बल्कि ‘जागीर’ उन्वान से एक नज़्म लिखने के बाद अपने बाप से हमेशा-हमेशा के लिए रिश्ता तोड़ लिया।

अब्दुल हई उर्फ़ साहिर लुधियानवी के ख़ानदान में दूर-दूर तक शेर-ओ-शाइरी की रिवायत का नाम-ओ-निशान नहीं मिलता फिर भी उस्ताद फ़ैयाज़ हरियाणवी की पनाह में साहिर तक़रीबन पन्द्रह-सोलह की उम्र ही से शाइरी करने लगे थे। स्कूल के ही दिनों में साहिर को फ़ारसी, उर्दू की सैकड़ों ग़ज़लें और नज़्में हिफ़्ज़ थीं। साहिर अपने दोस्तों को अक्सर ग़ालिब, मीर, सौदा, इक़बाल और फ़िराक़ गोरखपुरी की शाइरी सुनाया करते थे।

कॉलेज में पढ़ते हुए कॉलेज से शाए होने वाले रिसाले में उनकी नज़्में शाए होने लगीं। अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ चोरी-छुपे छपने वाले ‘कीर्ति लहर’ रिसाले में भी उनकी नज़्में छपीं और देखते-देखते साहिर उर्दू अदबी दुनिया के नुमाइन्दा सितारे कहलाने लगे जिनके बग़ैर मुशाइरों को मुकम्मल नहीं माना जाने लगा।

सन 1943 में साहिर लाहौर में जा बसे जहाँ रह कर उन्होंने ‘तल्ख़ियाँ’ नाम से अपना पहला पहला शे’री मज्मूआ पूरा किया जिसे 1945 में उर्दू के एक नामी-गिरामी पब्लिशर ने शाए किया। तल्ख़ियाँ ने ख़ूब सुर्ख़ियाँ बटोरीं और उन्हें ‘अदब- ए-लतीफ़’ और ‘शाहकार’ जैसे नामी रिसालों का मुदीर बना दिया गया। इसी साल जब हैदराबाद में तमाम तरक़्क़ी- पसन्द शोरा की एक क़ौमी कॉन्फ़्रेंस हुई तब वहाँ साहिर ने अपनी मक़बूल नज़्म उर्दू की ‘इंक़लाबी शाइरी’ पढ़ी और हुआ यूँ कि उनके चाहने वाले रात भर बारहा उन्हें ही सुनने की ज़िद करते रहे।

1945 में साहिर को ‘आज़ादी की राह पर’ नग़्मे लिखने के लिए मदऊ किया गया गया जिसमें राज कपूर बतौर नायक काम कर रहे थे। इस फ़िल्म में साहिर ने कुल चार नग़्मे लिखे मगर फ़िल्म की रिलीज़ की तारीख़ टलती रही और 15 अगस्त 1947 आ गया। हिन्दुस्तान आज़ाद भी हुआ और दो मुल्कों में तक़्सीम भी हो गया। पूरा मुल्क क़ौमी फ़सादात से दो-चार हो रहा था। उन दिनों साहिर की माँ दिल्ली में थीं। वो मुम्बई से दिल्ली पहुँचे और अपनी माँ को ढूँढने लगे। मालूम हुआ कि उनकी माँ को रिफ़्यूजी कैंप में भेज कर लाहौर के लिए रवाना कर दिया था। कुछ दोस्तों की मदद से जिनमें प्रकाश पंडित भी थे, उन्हें ख़बर लगी कि उनकी माँ लाहौर में सही-सलामत हैं। दो महीने बीतने के बाद अक्टूबर 1947 में साहिर अपनी माँ से मिलने लाहौर गए और डेढ़ साल तक वहीं रहे। हालाँकि वहाँ उनका जी नहीं लगा। उन्होंने जब वहाँ साम्यवाद को बढ़ावा देने वाले विवादास्पद बयान दिए, तो पाकिस्तान सरकार की जानिब से उनकी गिरफ़्तारी का वारंट जारी किया गया। 1949 में, तक़्सीम के बाद साहिर वापस गुपचुप लाहौर से दिल्ली भाग आए। और दिल्ली में उन्हें ‘प्रीतलड़ी’ नाम के अदबी रिसाले के मुदीर के तौर पर काम मिल गया। साल भर दिल्ली में आर्थिक तंगी के साथ दिन गुज़ारने के बाद साहिर ने फिर मुम्बई की जानिब रुख़ किया और ‘चन्दा मामा दूर के’ जैसा मशहूर नग़्मा लिखने वाले नग़्मा-निगार और संगीतकार प्रेम धवन के घर पहुँच गए। वहाँ प्रेम धवन और कृशन चन्दर की मदद से उन्हें 1951 में ‘नौजवान’ नाम की फ़िल्म के लिए नग़्मे लिखने का काम हासिल हुआ। सचिन देव बर्मन की धुन, साहिर की लिरिक्स  और लता जी की आवाज़ ने ऐसा कमाल कर दिखाया कि फ़िल्म का नग़्मा ‘ठंडी हवाएँ लहरा के आएँ’ आज तक भुलाया नहीं जा सका। इसके बाद साहिर ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। ‘आज़ादी की राह’ से ले कर ‘लक्ष्मी’ तक साहिर ने कुल 113 फ़िल्मों में गीत लिखे। कहा जाता है कि साहिर ही ऐसे इकलौते नग़्मा- निगार थे जो उस वक़्त संगीतकारों से एक रुपया ज़ियादा मेहनताना लिया करते थे।

मशहूर नग़्मा-निगार गुलज़ार कहते हैं कि फ़िल्मी गाने जब हिट होते हैं यानी हर ख़ास-ओ-आम में मशहूर होते हैं तो उसकी वज्ह ‘धुन; होती है और अल्फ़ाज़ का नम्बर दूसरा होता है। कभी-कभी तीसरा भी, जब आवाज़ लता, किशोर या रफ़ी जैसे गायकों की हो। अल्फ़ाज़ धुन की लगाम का काम करते हैं और दौड़ाने वाली ‘धुन’ होती है। लेकिन ये शरफ़ सिर्फ़ दो शाइरों को हासिल है कि गाने उनके अल्फ़ाज़ की वज्ह से, उनकी शाइरी की वज्ह से ‘हिट’ हुए। पहले पंडित प्रदीप और दूसरे साहिर।

1955 में शाए हुई साहिर की एक तवील नज़्म परछाइयाँ के मुतअल्लिक़ मशहूर शायर अली सरदार जाफ़री ने दीबाचा लिखा, जिसमें उन्होंने लिखा कि नज़्म में हर दो तस्वीरों के बीच तख़य्युली जस्त है, जिसे पढ़ने वाला शाइर के साथ शरीक हो जाता है। तस्वीरों का ये सिलसिला कामयाब मुहब्बत के दिलकश लम्हों तक पहुँच कर ख़त्म हो जाता है और बहर की तब्दीली के साथ एक नए मंज़र की शुरुआत होती है, जो आस- पास की ज़िन्दगी, जंग, क़हत और इफ़्लास के सैलाब में डूब जाती है। आम ज़िन्दगी की तस्वीर जो एक सैलाब की सी कैफ़ियत के साथ उभरती थी, अब ख़त्म हुई, तो मरकज़ी किरदार यानी लुटे हुए फ़नकार की महबूबा की दर्दनाक तस्वीर का सिलसिला शुरू हो जाता है। नज़्म की पहली बहर फिर वापस आ जाती है और तसव्वुरात की परछाइयाँ भयानक हो कर ज़ेहन के पर्दे से गुज़रने लगती हैं और उस मंज़िल पर पहुँच कर ख़त्म हो जाती हैं, जहाँ किसी का कोई नहीं। सब अकेले हैं। उन्होंने आख़िर में लिखा कि साहिर ने इस नज़्म के ज़रीए उर्दू की तवील नज़्मों और अम्न-ए-आलम के अदब में ख़ूब- सूरत इज़ाफ़ा किया है।

हालाँकि अमृता प्रीतम को साहिर से इश्क़ था मगर साहिर तमाम उम्र कुँआरे रहे और उनसठ की उम्र में 25 अक्टूबर 1980 को हर्ट अटैक आने की वज्ह से उनकी मौत हो गई।  

वो अफ़्साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन
उसे इक ख़ूब- सूरत मोड़ दे कर छोड़ना अच्छा