शैलेन्द्र के नाम
‘रूपहले परदे पर चमकते हर्फ़’ सीरीज़ में आज हम याद करेंगे गीतकार शैलेन्द्र को, जिन्होंने सैकड़ों ऐसे गीत हमें दिए, जिन्हें भुलाए भुलाया नहीं जा सकता | शायद आपको मालूम हो कि हिन्दुस्तानी सिनेमा को सैकड़ों मानीखेज़ गीत देने वाले शैलेन्द्र ने कभी ‘सेंट्रल रेलवे’ में वेल्डिंग अपरेंटिस के तौर पर भी काम किया था | उसके बाद वे एक थिएटर से जुड़े और फिर वहाँ से इन्होंने सिनेमा जगत् की तरफ़ अपना रुख़ किया | ज़िन्दगी के तमाम रंग देखते-परखते हुए उन्होंने जो भी गीत लिखे, वो सब सच्चे गीत हैं, एक शायर के दिल की पुकार है|
हिन्दुस्तानी सिनेमा के गीतों में इन्होंने सबसे अहम् काम ये किया कि इन्होंने ‘हिंदी कविता परम्परा’ और ‘उर्दू शायरी परंपरा’ को एक जगह लाकर रखा | ‘मतुंगा रेलवे वर्कशॉप’ के अंतर्गत वेल्डिंग का काम करते हुए शैलेन्द्र अक्सर मुशायरों और कवि सम्मेलनों में जाया करते थे | लगभग इसी दौरान इन्होंने ‘आईपीटीए’ (इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन) से भी अपना नाता क़ायम किया और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के ‘सांस्कृतिक दल’ के साथ काम करना शुरू किया और आम लोगों के हक़ में गीत लिखने लगे|
‘हर ज़ोर-ज़ुल्म के टक्कर में, हड़ताल हमारा नारा है’ की गूँज आज भी सुनाई देती है, जिसे शैलेन्द्र साहब ने भी लिखा | बँटवारे के मद्देनज़र इन्होंने एक कविता ‘जलता है पंजाब’ के उन्वान से लिखी थी | इस कविता ने न सिर्फ़ इन्हें एक कवि के रूप में पहचान दिलाई, बल्कि सिनेमाई सफ़र का भी एक रास्ता बनी |
एक दफ़ा ‘आईपीटीए’ के एक जश्न में राज कपूर साहब ने गीतकार शैलेन्द्र को कविता पढ़ते सुना | इसी दौरान राज कपूर साहब अपनी ‘डायरेक्टोरियल डेब्यू’ फ़िल्म आग के लिए तैयार हो रहे थे | शैलेन्द्र साहब की कविता राज कपूर साहब को इतनी पसंद आई की उन्होंने उसी वक़्त उन्हें रू 500 देकर कविता के अधिकार (राइट्स) की बात की| यह रकम उन दिनों बहुत ज़ियादा थी | लेकिन फिर भी उस वक़्त शैलेन्द्र साहब ने मना कर दिया | बाद में ख़ुद शैलेन्द्र साहब को इस बात का एहसास हुआ कि राज कपूर साहब और उनकी जोड़ी मानीखेज़ हो सकती है | वे राज कपूर साहब से कंधे से कंधा मिला कर काम करने को राज़ी हुए | और आख़िर इनका सिनेमाई सफ़र शुरू हो ही गया|
गीतकार शलेन्द्र को राजकपूर साहब अक्सर कविराज या पुष्कर कह कर पुकारते थे | राज साहब- संगीतकार शंकर-जयकिशन साहब और गीतकार शैलेन्द्र की आपस में काफ़ी बनी और इसके ज़रिए हमें कई बेहतरीन नग़मे मिले | हम उन गीतों तक जाने से पहले एक नज़र शैलेन्द्र साहब की ज़िन्दगी पर भी डालते चलें|
शैलेन्द्र साहब समाज के उस हिस्से से आते थे, जहाँ से बाबासाहब भीमराव अम्बेडकर का भी ताल्लुक़ है | यानी वे दलित थे | हालाँकि वे लोगों के सामने अपनी इस पहचान को खुल कर नहीं बताते थे, और यह हाल तब था जब वे आईटीपीए और प्रगतिशील लेखक संघ के अहम् सदस्यों में थे | यह बात तब खुली जब शैलेन्द्र के बेटे ‘दिनेशशंकर’ ने शैलेन्द्र की कविता संग्रह – “अन्दर की आग” के नाम से निकाली | उन्होंने बताया कि शैलेन्द्र धुर्सिया जाति से त’अल्लुक़ रखते हैं और मोची हैं | अब सवाल ये तो बनता ही है कि आख़िर ऐसा क्यों था कि शैलेन्द्र अपनी यह पहचान सबसे छिपाते फिरते थे ? क्या सिनेमा में भी जाति-भेद जैसी चीज़ थी ? क्या बड़े-बड़े इदारों में भी जाति-पाति और भेद-भाव था?
उनके बेटे दिनेश शंकर शैलेन्द्र अक्सर ये सोचते हैं कि जबकि सारा हिन्दुस्तान शैलेन्द्र के गीत गुनगुनाते थकता नहीं था, फिर ऐसी क्या कमी थी जिसकी वजह से शैलेन्द्र को कोई राष्ट्रीय या राज्य-स्तर का कोई पुरस्कार नहीं मिला | कहीं ऐसा तो नहीं था कि फिल्मों से जुड़ने की वजह से अकादमियों ने उन्हें एक कवि के रूप में नकार दिया था? हालाँकि हिंदी के जाने-माने आलोचक का तो मानना है की संत रविदास के बाद शैलेन्द्र ही महान दलित-कवि हुए हैं|
आपको शायद पता हो कि मथुरा के धौली- प्याऊ में इनके नाम पर एक रास्ते का नाम भी रखा गया है, जिसे “गीतकार-जनकवि शैलेन्द्र मार्ग” कहा जाता है | और इसमें कोई दो राए नहीं कि शैलेंद्र ने अपने लेखन में किसी जन-कवि से कम की भूमिका निभाई हो | अपनी मकबूलियत के बाद भी वे हमेशा आम लोगों के कवि बने रहे | इस सिलसिले से याद आता है सन् 1954 में आई फ़िल्म ‘बूट पॉलिश’ | इस फ़िल्म के लिए उन्होंने गाना लिखा, ‘ठहर ज़रा ओ जाने वाले’ | इसमें एक जगह वे कहते हैं, ‘मेहनत की एक रुखी रोटी, हाँ भाई हाँ रे/ और मुफ़त की दूध मलाई, ना भाई ना रे’’ इन्हीं मिसरों से हम समझ सकते हैं कि ग़ुरबत में भी ख़ुद्दारी और ईमानदारी क्या चीज़ है|
शैलेन्द्र साहब के पास ‘टाइटल सॉंग’ लिखने की ख़ास समझ, शैली और हुनर था | वो इस काम के लिए काफ़ी जाने जाते थे | सबसे पहले तो याद आता है फ़िल्म ‘प्यार हुआ इक़रार हुआ’ | इसका ‘टाइटल सॉंग’ जिसमें राजकपूर और नरगिस एक छाते के नीचे, मुहब्बत से एक-दूसरे को तकते हुए, ये मंज़र आज भी आशिक़ों के लिए ख़्वाब से कम नहीं |
शैलेन्द्र का लिखा गीत ‘मेरा जूता है जापानी’ कौन भुला सकता है ! श्री 420 का ये गाना फ़िल्म में राजकपूर साहब के किरदार के लिए कितना अहम् था यह देखने वाले आसानी से समझ सकते हैं | इसी गाने में वो सियासतदानों, राजकुमारों, नेताओं के बारे में कहते हैं,
होंगे राजे राजकुंवर हम
बिगड़े दिल शहज़ादे
हम सिंघासन पर जा बैठें
जब जब करें इरादे
जम्हूरियत तो नाम भी इसी का है, कि हुकूमत जनता के ज़रिए बनाई गई और जनता के लिए हो | राष्ट्रकवि दिनकर ने भी कहा- ‘सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है’
सन् 1958 में आई फ़िल्म ‘मधुमति’ के लिए इन्होंने लिखा “सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं/ हमें डर है हम खो न जाए कहीं’”|
गीत में क़ुदरत के करिश्मे को वो कुछ इस तरह से बयान करते हैं |
ये कौन हँसता है फूलों में छिप कर
बहार बेचैन है किसकी धुन पर
कहीं गुनगुन, कहीं रुनझन
कि जैसे नाचे ज़मीं ….
शायर क़ुदरत के राज़ को ढूँढता नज़र आता है|
इसी फ़िल्म से दो साल बाद सन् 1960 में आई फ़िल्म ‘काला बाज़ार’ में देवआनंद के लिए इन्होंने गीत लिखा ‘खोया-खोया चाँद खुला आसमाँ’ जिसे आज भी बार-बार ‘रिक्रिएट’ या यों कहें नए रूप में बनाया जाता है | हालाँकि मोहम्मद रफ़ी साहब की आवाज़ के मुक़ाबिल कोई भी वर्शन नहीं आता | इसके अलावे शैलेन्द्र ने हमें ‘गाता रहे मेरा दिल’, ‘जीना इसी का नाम है’, ‘सब कुछ सीखा हमने’, ‘हर दिल जो प्यार करेगा’ जैसे बेहतरीन नग़मे दिए |
अपने वक़्त के दूसरे गीतकारों-शायरों में भी शैलेन्द्र की बहुत इज़्ज़त थी | साल 1963 में जब साहिर लुधियानवी साहब को फ़िल्मफेयर अवार्ड के लिए चुना गया तो उन्होंने कहा कि उनसे बेहतर गीत शैलेन्द्र ने फ़िल्म बंदिनी के लिए लिखा है- ‘मत रो मेरे लाल तेरे बहुतेरे’ और उन्होंने अवार्ड लेने से इनकार कर दिया |
फिल्मों में गीत लिखने के साथ-साथ इन्होंने एक बार फ़िल्म निर्माण करने की भी कोशिश की | मशहूर हिंदी साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास ‘मारे गए गुलफ़ाम’ पर ‘तीसरी क़सम’ बनाई | इसमें राजकपूर साहब और अदाकारा वहीदा रहमान बतौर अदाकार काम कर रहे थे | फ़िल्म तात्कालिक रूप से कामयाब नहीं रही और वे काफी क़र्ज़ में डूब गए | कई लोगों का मानना है कि इसी फ़िल्म की नाकामयाबी की वजह से शैलेन्द्र मानसिक रूप से टूट गए और उनकी मौत हो गई | लेकिन उसकी बेटी अमला शैलेन्द्र इसे ग़लत बताती हैं |
शायद ज़ियादा शराबनोशी की वजह से वो लीवर सिरोसिस के शिकार हुए और महज़ 43 साल की उम्र में उसी दिन इस दुनिया को अलविदा कहा, जिस दिन राजकपूर की यौम ए पैदाइश मनाई जाती है और वो दिन था 14 दिसम्बर 1966|
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