जो उन्हें नहीं जानते उन्हें ज़रूर जानना चाहिए
ये बात सुनकर दुख होता है कि जिन लोगों को शायरी में दिलचस्पी नहीं है या फिर कम है वो शकील बदायुनी साहब को सिर्फ़ फ़िल्मी गानों के हवाले से ही जानते हैं। जब कि ऐसा नहीं होना चाहिए शकील साहब एक बहुत बेहतरीन शायर भी थे। उनका तरन्नुम और अंदाज़ दूसरे शायरों से मुनफ़रिद था। बिला-शुबा ये बात कही जा सकती है कि अगर शकील साहब फ़िल्मी दुनिया के लिए गाने न लिखते तो भी उनकी शायरी में इतना दम था कि जो उन्हें मक़बूल बना सके और उन्होंने एक उम्र तक अपनी शायरी से मक़बूलियत हासिल भी की, ये बात बताते हुए मुझे ख़ुशी होती है कि बदायूँ की मिट्टी एक तवील वक़्त से कई महान लोगों को पैदा कर रही है, जिनमें इस्मत चुगताई, आल-ए-अहमद सरूर, ग़ुलाम मुस्तफ़ा ख़ान और ख़ुद शकील साहब भी शामिल हैं, इस मिट्टी का रिश्ता उर्दू से भी बहुत गहरा है।
‛‛शकील बदायुनी’’ साहब 3 अगस्त 1916 को उत्तर प्रदेश के जिला बदायूँ में पैदा हुए। उनके वालिद साहब का नाम जमाल अहमद ‛‛सोख़्ता’’ था, जोकि एक स्कॉलर थे और शायरी भी किया करते थे। शकील साहब के चचा ‛‛ज़िया-उल-क़ादरी’’ भी शाइर थे शुरू में उनकी शायरी का शकील साहब पर काफ़ी असर हुआ। अपनी छोटी उम्र से ही शकील साहब ने शायरी में दिलचस्पी दिखाई। धीरे धीरे उन्हें शायरी के रंग अपनी तरफ़ माइल करने लगे। जिसके बाद वो शायरी करने लगे और अपने चचा से इस्लाह भी ले लिया करते। शकील साहब ने अपनी पहली ग़ज़ल 13 साल की उम्र में कही जोकि बाद में अच्छे रिसाले में भी छपी।
मैट्रिक की पढ़ाई पूरी करने के बाद शकील साहब आगे की पढ़ाई के लिए अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी गए वहाँ वो आर्ट्स के तालिबे इल्म थे। वहीं उनकी मुलाक़ात अश्क बिजौनरी साहब से हुई जोकि शाइर भी थे। शकील साहब उनसे भी इस्लाह लेते थे। धीरे धीरे अब शकील साहब मक़बूल होते जा रहे थे। कॉलेज के प्रोग्राम में भी उन्हें शायरी पढ़ने के लिए बुलाया जाता इसी के साथ साथ वो शहर में कहीं मुशायरे में भी बुलाए जाते। अपनी बी-ए की पढ़ाई पूरी करने के बाद वो वापस बदायूँ गए। वहीं उनकी किसी रिश्तेदार की बेटी से शादी भी हो गई, कुछ साल बाद उनके वालिद साहब का निधन हो गया। जिसके बाद उन्हें दिल्ली आना पड़ा। यहाँ आने के बाद उन्होंने यहाँ वहाँ काम भी किया, कहा जाता है कि बाद में वो ग़ालिबन सरकारी नौकरी भी करने लगे लेकिन वो उस वक़्त तक मक़बूल शायर हो चुके थे। जिससे लोग उन्हें मुशायरो में भी बुलाते, ये मुशायरे का सिलसिला धीरे धीरे काफ़ी बढ़ने लगा जिसके चलते उन्होंने काम छोड़ दिया और शायरी पर पूरा वक़्त दिया इधर उधर मुशायरों में शिरकत करने लगे। शकील साहब को इसी दौरान बम्बई के किसी मुशायरे का बुलावा आया जिसके बाद वो बम्बई गए उसी मुशायरे में नौशाद और ए-आर कारदार साहब भी आए हुए थे, वहाँ शकील साहब की ग़ज़लों ने सभी शोअरा से अलग मक़बूलियत और दाद हासिल की। उस मुशायरे में पढ़ी एक ग़ज़ल से कुछ अशआर देखें:-
मिरी ज़िंदगी पे न मुस्कुरा मुझे ज़िंदगी का अलम नहीं
जिसे तेरे ग़म से हो वास्ता वो ख़िज़ाँ बहार से कम नहीं
मुझे रास आए ख़ुदा करे यही इश्तिबाह की साअतें
उन्हें एतिबार-ए-वफ़ा तो है मुझे ऐतबार-ए-सितम नहीं
वही कारवाँ वही रास्ते वही ज़िंदगी वही मरहले
मगर अपने अपने मक़ाम पर कभी तुम नहीं कभी हम नहीं
मुशायरा ख़त्म होने के बाद नौशाद साहब उनसे मिले और अपनी आने वाली किसी फ़िल्म में गाने लिखने के लिए शकील साहब को ऑफ़र दिया। हैरानी की बात ये है कि नौशाद और ए-आर कारदार साहब से जिगर मुरादाबादी ने शकील साहब के बारे में ज़िक्र किया था इसी लिए नौशाद और ए-आर कारदार साहब उन्हें सुनने के लिए मुशायरे में आए थे बहरहाल शकील साहब ने ख़ुशी ख़ुशी फ़िल्म में गाने लिखने के ऑफ़र को एक्सेप्ट किया। उन्होंने अपना पहला गाना फ़िल्म ‛‛दर्द’’ के लिए लिखा। गाना देखें:-
फ़िल्म:- दर्द
संगीतकार:- नौशाद
गीतकार:- शकील बदायुनी
जी चाहता है मुँह भी न देखूँ बहार का
आँखों में रंग भर के तिरे इंतज़ार का
अफ़्साना लिख रही हूँ दिल-ए-बे-क़रार का
आँखों में रंग भर के तिरे इंतज़ार का
इस गाने ने इंतिहाई कामयाबी हासिल की, कहा जाता है कि इस गाने की रॉयलिटी पूरी फ़िल्म पर लगाए गए पैसों के बराबर ही थी। इस गाने की मक़बूलियत के बाद बॉलीवुड में शकील बदायुनी और नौशाद साहब की जोड़ी बन गई। हर अदाकार और निर्देशक, गुलूकार अब उनके साथ काम करना के लिए अप्प्रोच करने लगा। इसी के अगले साल फ़िल्म ‛‛बाबुल’’ में भी उन्होंने फिर से संगीतकार नौशाद के साथ काम किया। जिसके गाने पहली फ़िल्म की तरह ही इंतिहाई कामयाब रहे। उसी फ़िल्म से एक गाना देखें:-
फ़िल्म:- बाबुल
संगीतकार:- नौशाद
गीतकार:- शकील बदायुनी
न सोचा था ये, दिल लगाने से पहले
कि टूटेगा दिल मुस्कुराने से पहले
अगर ग़म उठाना था किस्मत में अपनी
ख़ुशी क्यों मिली ग़म उठाने से पहले
न सोचा था ये, दिल लगाने से पहले
कि टूटेगा दिल मुस्कुराने से पहले
इस फ़िल्म के बाद अगली फ़िल्म भी शकील साहब की नौशाद साहब के साथ ही थी। जिसमें उन्हें गाने लिखने का मौक़ा मिला। ये फ़िल्म थी ‛‛आन’’ फ़िल्म को लोगों ने ख़ास पसंद नहीं किया हाँ लेकिन शकील साहब के क़लम से निकला हर गाना ख़ूब मक़बूल हुआ। कहा जाता है कि इस गानों की मक़बूलियत के बाद बॉलीवुड में शकील साहब की डिमांड की जाने लगी। इसी फ़िल्म से एक गाना देखें:-
फ़िल्म:- आन
संगीतकार:- नौशाद
गीतकार:- शकील बदायुनी
दिल को हुआ तुम से प्यार
अब है तुम्हे इख़्तियार
चाहे बना दो चाहे मिटा दो
टकरा गया तुमसे दिल ही तो है
रोए न ये क्यों घायल ही तो है
वो प्यार से नफ़रत करते है
हम हैं कि उन्हीं पर मरते है
अब कैसे निभे मुश्किल ही तो है
टकरा गया तुम से दिल ही तो है
शकील साहब की ज़िंदगी में दो फ़िल्में माइलस्टोन साबित हुईं जिनमें एक थी ‛‛दर्द’’ और दूसरी थी ‛‛मुग़ले-आज़म’’ शकील साहब ने यूँ तो सभी संगीतकारों के साथ काम किया मगर नौशाद साहब ऐसे थे जिनसे शकील साहब की पहले फ़िल्म से सुपरहिट जोड़ी रही। उनके लिखे गाने अब हर लोगों को अपना दीवाना बना चुके थे। शकील साहब ने 1960-1962 के दौर में अपना अलग ही मक़ाम बना लिया हर गाना हिट ज़्यादातर फ़िल्में भी हिट। उन सभी गानों या फ़िल्मों का ज़िक्र हम अलग से किसी मज़मून में करेंगे।
शकील साहब ने दर्ज़नों फ़िल्मों के लिए गाने लिखे, जिनमें चंद नाम ये हैं।
01:- दर्द
02:- आन
03:- दीदार
04:- बाबुल
05:- बैजू बावरा
06:- अमर
07:- धूल का फूल
08:- उड़न खटोला
09:- मदर इंडिया
10:- कोहिनूर
11:- गंगा जमुना
12:- लीडर
13:- मेरे मेहबूब
14:- चौदहवीं का चाँद
15:- बीस साल बाद
16:- बिन बादल बरसात
17:- जान पहचान
18:- साहिब बीवी और ग़ुलाम
19:- राम और श्याम
20:- मुग़ले आज़म
उन्हें कई पुरस्कारों से नवाज़ा गया, जिनमें चंद नाम ये हैं।
1:- Filmfare Best Lyricist Award (1961)
2:- Filmfare Best Lyricist Award (1962)
3:- Filmfare Best Lyricist Award (1963)
20 अप्रैल 1970 को शकील बदायुनी साहब ने हम सभी को अलविदा कह दिया।
शकील बदायुनी साहब की शायरी पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।
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