शिव को बिरहा का सुल्तान क्यों कहते हैं?
किसी भी शाइर के हवाले से गुफ़्तगू करने का सबसे आसान तरीक़ा ये है कि आप उसकी उस ख़ुसूसियत के हवाले से उस शायर की शिनाख़्त करें जो उसकी शाइरी को दूसरों से अलग करती है। हालाँकि ये तरीक़ा-ए-कार उस रुसवा करने से कुछ कम तो नहीं, मगर ज़ियादा-तर शाइरों के मुताले के लिए ये तरीक़ा बेहद कारगर साबित होता है। रूमानियत, अपनी तहज़ीब-ओ-रवायत की ग़ैर-मामूली समझ और उसे अपनी तख़्लीक़ात में सँजोए रखने की सलाहियत, क़ुदरत और उसके तमाम अनासिर से मुहब्बत, जवाँ-मर्गी और क़ुनूतियत; इनमें से किसी एक जुज़ का होना भी एक शाइर को बेहद मक़बूल और कई बरसों तक बाइस-ए-अज़कार बनाए रखता है। शिव में इन तमाम मौज़ूआत से सिवा भी बहुत कुछ मौजूद है।
शिव की पैदाइश बड़ा पिंड लोहतियाँ, सियालकोट में 23 जुलाई 1936 को हुई थी, जो कि अब पाकिस्तान में है। तक़्सीम के बाद वो अपने ख़ानदान के साथ हिंन्दोस्तान आ गए और बटाला में क़याम-पज़ीर हो गए। उन्होंने अपनी शुरूआती तालीम बटाला में ही हासिल की। उनके बचपन के इन वाक़िआत ने शिव के अंदर के शाइर को तामीर किया। हिजरत के दुख के साथ-साथ पंजाब के गाँवों की ज़िंदगी, क़िस्से-कहानियों की रवायत, उनके आस-पास की औरतों की ज़िंदगी ने उनकी ज़हनी साख़्त को तराशा। ये सब चीज़ें उनकी शाइरी में जगह-जगह दिखाई भी देती हैं। शिव की ज़बान ठेठ पंजाबी है और उनकी शाइरी में नज़र आने वाले इस्तिआरे भी तमाम गाँव की ज़िंदगी की तरफ़ झुकाव रखते हैं, उनकी शाइरी में पंजाबी सूफ़ी शाइरों की गूँज सुनाई देती है लेकिन इससे ये मुराद बिलकुल नहीं है कि उन्हें आलमी अदब से शग़फ़ नहीं था। शिव ने उर्दू के साथ-साथ रूसी और दीगर ममालिक के अदब को ग़ौर से पढ़ा था। शिव का ‘मेरे निंदक’ उन्वान का मज़मून इसकी दलील है।
उनकी शाइरी में तख़य्युल के इस दर्जा बुलंद है कि नज़्म ख़ुद-ब-ख़ुद तजरीदी से तजसीमी रंग इख़्तियार कर लेती है। मसलन ‘रात चानणी मैं टुराँ’ से ये बंद देखें:
गलिए गलिए चानण सुत्ते
मैं किस गलिए आवाँ
जिंदे मेरिए
[गलिए – गली, चानण – रौशनी, सुत्ते – सोए हुए, आवाँ – आऊँ, जिंदे मेरिए – मेरी जान]
चाँदनी को सोया हुआ तसव्वुर करना कोई नई बात नहीं है। लेकिन जिस तरह शिव ने इसी मज़मून को आगे बढ़ाते हुए ये लिखा है कि हर गली में रौशनी सोई हुई है, मैं उसे बिना छुए (बिना जगाए) गली किस तरह पार करूँ, हैरत-अंगेज़ है (इसकी वज़ाहत उन्होंने आगे नज़्म में की है)। चाँदनी के बारे में कुछ न कह कर भी कितना कुछ बयान किया गया है और क्या-क्या तस्वीरें इससे अख़ज़ की जा सकती हैं। चाँदनी किस क़दर थकी हुई है जो गलियों में सो रही है? या चाँदनी भी मुफ़लिस है जो सड़कों के अलावा कोई आराम-गाह उसे नसीब नहीं? और अगर हम चानण को चाँदनी से ताबीर न करके महज़ रौशनी से ताबीर करें (जो कि उसके अस्ल मआनी हैं) तो मआनी का एक और दफ़्तर हमारे आगे खुल जाता है। सो रही रौशनियों से मुराद मद्धम जल रहे बल्बों से हो सकती है। इस बात की भी कोई दलील नहीं दी जा सकती कि सड़क पर सोने वाले मुफ़लिस लोगों को ही रौशनी का इस्तिआरा न दिया गया हो। शिव की कुल शाइरी इस तरह के हुस्न से भरी हुई है। जिंदू दे बागीं का पहला बंद मुलाहिज़ा करें:
जिंदू दे बागीं
दरदाँ दा बूटड़ा
गीताँ दा मिरग चरे
हिजराँ दी वाउ
वगे अद्ध-रैणी
कोई कोई पत्त किरे
[दरदाँ – दर्दों, दा – का, गीताँ – गीतों, मिरग – हिरण, हिजराँ – हिज्र, वाउ – हवा, वगे – बहे, अद्ध-रैणी – आधी रात, पत्त – पत्ता, किरे – गिरे]
ज़िंदगी के बाग़ में दर्द का पौधा है और एक गीतों का हिरण चरता है। हिज्र की हवा आधी रात बहती है, और कोई पत्ता टूट कर गिरता है। इस मंज़र की ख़ूबसूरती के बारे में मेरा कुछ भी कहना मुम्किन नहीं। हिज्र हर ज़बान की शाइरी का रवायती मौज़ू रहा है, हिज्र-ओ-विसाल के हवाले से लाखों शेर कहे जा चुके हैं; इसके बावजूद शिव को ही ‘बिरहा दा सुल्तान’ का लक़ब क्यों दिया गया। इस पर बात करने से पहले ये सवाल लाज़िम है कि हिज्र क्या है? हिज्र एक हालत है, या वाक़िआ है या जज़्बा है?
हिज्र दो मोहब्बत करने वाले लोगों के दूर हो जाने के वाक़िए का नाम है, या उस अज़ाब का नाम है जो उन दोनों पर उतरता है, या फिर ये हिज्र इन दोनों से अलग किसी और ही बला का नाम है। शिव की एक ख़ूबी ये भी है कि शिव की शाइरी में ‘बिरहा’ (हिज्र) अपने आप में एक अलाहिदा शय (Separate Entity) है। ये हिज्र उस शख़्स से अलग एक वजूद रखता है, जो हिज्र में है। कहीं हिज्र ख़ुद अज़ीम है तो कहीं हिज्र आशिक़ के अज़्मत इख़्तियार कर लेने का रास्ता बनता हुआ नज़र आता है। कहीं हिज्र ज़ख़्म में पड़ने वाला कीड़ा बन कर आशिक़ को शदीद तकलीफ़ देता है, तो कहीं ये हिज्र ब-ख़ुद सुल्तान है। शिव ने अपनी एक नज़्म में लिखा भी है, ‘मैथों मेरा बिरहा वड्डा’ यानी ‘मेरा हिज्र मुझ से बड़ा है।’ इसी तसलसुल में शिव की एक नज़्म ‘बिरहड़ा’ का ज़िक्र करना लाज़िम है:
लोकी पूजण रब्ब,
मैं तेरा बिरहड़ा
सानूँ सौ मक्केयाँ दा हज्ज
वे तेरा बिरहड़ा
[लोकी – लोग, पूजण – पूजें, सानूँ – हमें, दा – का, बिरहड़ा – हिज्र]
आगे शिव कहते हैं:
लोकी कैण मैं सूरज बण्या
लोकी कैण मैं रौशन होया
सानूँ केही ला गया अग्ग
वे तेरा बिरहड़ा
[ कैण – कहें, बण्या – बना, होया – हुआ, केही – कैसी, अग्ग – आग]
एक और बंद देखें:
पिच्छे मेरे, मेरा साया
अग्गे मेरे, मेरा न्हेरा
किते जाए न बाहीं छड्ड
वे तेरा बिरहड़ा
[पिच्छे – पीछे, अग्गे – आगे, न्हेरा – अँधेरा, बाहीं – बाँह, छड्ड – छोड़]
मेरे पीछे मेरा साया है, और मेरे आगे मेरा अँधेरा है। कहीं इस मुश्किल में तुम्हारा हिज्र मेरा साथ न छोड़ जाए। इस बंद को यूँ भी समझा जा सकता है कि तुम्हारा हिज्र मेरा हाथ छोड़ कर नहीं जाता। इसी नज़्म में हिज्र की इतनी शक्लें आ गईं हैं कि शिव ‘बिरहा दा सुल्तान’ कहलाने के मुस्तहिक़ नज़र आते हैं। ग़ालिबन उनका ये लक़ब उन्हीं की नज़्म ‘बिरहा’ से लिया गया है जो कुछ यूँ शुरू होती है:
बिरहा बिरहा आखिए
बिरहा तूँ सुल्तान
जिस तन बिरहा न उपजे
सो तन जान मसान
[आखिए – पुकारिए, कहिए]
बिरहा शिव की शाइरी के उस इंतिख़ाब का भी उनवान है जो उनकी बीवी अरुण बटालवी ने शिव के इंतिक़ाल के बाद शिव की याद में किया था। अगर शिव के मजमूआत की बात करें तो शिव के 9 मजमूए तब तक शाया हो चुके थे जब शिव हयात थे। शिव की मौत के बाद दो मजमूए और शाया हुए, ‘अलविदा’ और ‘सागर ते कणियाँ’। शिव का पहला गीत जो हमें मिलता है, वो ‘हाए नी अज्ज अंबर लिस्से लिस्से’ है जो ‘प्रीतम’ नाम के एक रिसाले में दिसंबर, 1957 के शुमारे में शाया हुआ था। यानी शिव का तख़्लीक़ी सफ़र महज़ 17 बरसों का है, लेकिन जब हम शिव के काम को तफ़्सील से देखते हैं तो ये एहसास होता है कि इनमें से हर एक को तख़्लीक़ करने में एक उम्र भी सर्फ़ हो जाए तो कोई हैरानी की बात नहीं है; मसलन ‘लूणा’।
लूणा एक ‘महाकव्य’ यानी Epic है जिसमें ‘लूणा’ का क़िस्सा शिव ने अज़-सर-ए-नौ सुनाया है। ‘लूणा’ जो आम तौर पे एक मनफ़ी (Negative) किरदार के तौर पे पेश की जाती रही थी, उसके इंसानी और मोहब्बत के पहलू को शिव ने सामने रखा। रवायती क़िस्से के मुताबिक़ लूणा की शादी सियालकोट के महाराज से होती है लेकिन वो महाराज के बेटे पूरण से मुहब्बत करने लगती है। जब पूरण लूणा में किसी तरह की दिलचस्पी ज़ाहिर नहीं करता तो लूणा महाराज से झूठी शिकायत कर देती है और महाराज पूरण को एक कुँए में गिरा देने की सज़ा दे देते हैं लेकिन एक साधू उसे बचा लेते हैं और पूरण भी एक साधू बन जाता है। जब लूणा की कोई औलाद नहीं होती तो वो एक साधू के आश्रम जाती है और पूरण को पहचान कर नदामत का इज़हार करती है। आख़िर में लूणा को औलाद हो जाती है। शिव ने लूणा के किरदार को इंसान की सत्ह पर देखने और दिखाने की कोशिश की है। समाज के एक निचले तबक़े की लड़की जिसकी शादी उसकी उम्र से दुगनी उम्र के एक शख़्स से बिना उसकी मर्ज़ी के कर दी गई हो, शिव की इस तख़्लीक़ का मर्कज़ी किरदार बन कर उभरी है।
लूणा के लिए शिव को साहित्य अकादमी अवार्ड से भी नवाज़ा गया। आज तक शिव साहित्य अकादमी अवार्ड हासिल करने वाले सबसे कम उम्र के अदीब हैं जिन्हें महज़ 32 बरस की उम्र में इस ख़िताब से नवाज़ा गया था। अरुण बटालवी ने ब-तौर एडिटर शिव की शाइरी का जब दूसरा इंतिख़ाब किया तो उसमें डॉ० हरचरन सिंह ने अपने मज़्मून में एक क़ाबिल-ए-ग़ौर बात लिखी है। वो लिखते हैं :
वो (शिव) जनता का कवि है। वो लाखों पंजाबियों के लिए लिखता था। उसने चंद लोगों को ख़श करने के लिए किसी का ख़ारिजी असर क़ुबूल करके दिमाग़ी कलाबज़ियाँ नहीं दिखाईं बल्कि ज़िंदगी के अज़ली ग़म को गाया।
शिव अस्ल मायनों में जनता का कवि है। शिव की कविता आज लोकगीत का दर्जा इख़्तियार कर चुकी है, और ये शिव के आम लोगों का शाइर होने के हक़ में सबसे बड़ी दलील है। मैं कंडयाली थोर वे सजणा, या इक्क मेरी अक्ख काशनी जैसे गीत आज भी पंजाब की फ़िज़ाओं में उसी तरह घुले-मिले हुए हैं।
शिव 1972 में गुरपाल पुरी के बुलाने पर इंगलैंड गए। वहाँ बहुत से लोग उनसे मिलने आते और रात भर शराब के दौर चलते थे। वो बहुत कम सोते और फिर से उठ कर शराब-नोशी का सिलसिला शुरू हो जाता। उनका बी.बी.सी (BBC) के साथ मशहूर इंटरव्यू भी इसी इंगलैंड दौरे का है। शिव जब इंगलैंड से वापिस आए तो हद से ज़ियादा शराब-नोशी के बाइस उनकी तबीअत बेहद ख़राब हो चुकी थी। उनके इलाज में घर की माली हालत बेहद ख़राब होने की वज्ह से वो अपने ससुराल यानी कीरी मंगयाल, गुरदासपुर आ गए। उनकी तबीअत बिगड़ती चली गई और वो आख़िर 6 मई 1973 को महज़ 36 साल की उम्र में इंतिक़ाल फ़रमा गए। उनकी शाइरी को पढ़ के ऐसा लगता है जैसे उन्हें कहीं न कहीं इस बात का अंदेशा भी था। जैसा कि वो कहते हैं:
असाँ ताँ जोबन रुत्ते मरना
मुड़ जाणा असाँ भरे-भराए
हिजर तेरे दी कर परकरमा
असाँ ताँ जोबन रुत्ते मरना
[असाँ – हम(ने), जोबन – जवानी, रुत्ते – मौसम (में), मुड़ जाणा – लौट जाना, हिजर – हिज्र, परकरमा – परिक्रमा]
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