क्या हुआ जब एक बार होली और मुहर्रम एक ही महीने में पड़ गए
लखनऊ की होली के क्या कहने साहब! होली क्या है हिन्दुस्तान की कौमी यकजहती की आबरू है। जो ये मानते हैं कि होली सिर्फ़ हिंदुओं का त्योहार है वो होली के दिन पुराने लखनऊ के किसी भी मोहल्ले में जाकर देख लें,पहचानना मुश्किल हो जाएगा रंग में डूबा कौन सा चेहरा हिंदू है कौन सा मुसलमान।
शहर के दिल चौक की मशहूर होली की बारात आज़ादी के ज़माने से हिंदू-मुस्लिम मिलकर निकालते हैं। लखनऊ की साझी होली की पहचान बन चुकी ये बारात चौक, विक्टोरिया स्ट्रीट, अकबरी गेट और राजा बाज़ार जैसे मुस्लिम बहुल इलाक़ों से होकर निकलती है।
बारात में मुसलमान न सिर्फ़ रंग खेलते, नाचते-गाते आगे बढ़ते हैं बल्कि मुस्लिम घरों की छतों से रंग-गुलाल और फूलों की बरसात भी होती है। और ये सिर्फ़ एक दो साल की ख़ुशफ़हमी नहीं है। इस तरह की मिली-जुली होली लखनऊ पिछले सैकड़ों सालों से मनाता आ रहा है।
लखनऊ का ये सद्भाव अस्ल में यहां के नवाबों की देन है। उनके वक़्त में मोहर्रम और होली हिंदू-मुस्लिम मिलकर मनाते थे। इस बात की गवाही लखनऊ की उर्दू शायरी भी देती है।
जहां प्यारे साहब रशीद, नानक चंद नानक, छन्नू लाल दिलगीर, कृष्ण बिहारी नूर जैसे हिंदू शायरों के लिखे मर्सिये आज भी मोहर्रम की मजलिसों की जान हैं, वहीं लखनऊ के मुस्लिम शायरों ने भी लखनऊ की होली का बयान अपनी शायरी में खूब किया है।
ख़ुदा-ए-सुख़न मीर तकी मीर की लखनऊ से बेज़ारी के चर्चे सबने सुन रखे हैं लेकिन इस शहर की होली के वो भी दीवाने थे। मीर जब दिल्ली से लखनऊ आए और उन्होंने तत्कालीन नवाब आसफ़ुद्दौला को रंगों में सराबोर होली खेलते देखा तो उनकी तबीयत भी रंगीन हो गई, और उन्होंने पूरी मस्नवी नवाब आसफ़ुद्दौला की होली पर लिख डाली।
होली खेलें आसफ़ुद्दौला वज़ीर,
रंग सौबत से अजब हैं खुर्दोपीर
दस्ता-दस्ता रंग में भीगे जवां
जैसे गुलदस्ता थे जूओं पर रवां
कुमकुमे जो मारते भरकर गुलाल
जिसके लगता आन कर फिर मेंहदी लाल
बाद के बरसों में तो मीर को लखनऊ की होली ने इस क़दर मस्त किया कि इसका रंग जब तब उनके अश्आर में झमकता रहा।
आओ साथी बहार फिर आई
होली में कितनी शादियां लाई
जिस तरफ देखो मार्का सा है
शहर है या कोई तमाशा है
फिर लबालब है आब-ए-रंग
और उड़े है गुलाल किस-किस ढंग
थाल भर-भर अबीर लाते हैं
गुल की पत्ती मिला उड़ाते हैं
नवाब आसफ़ुद्दौला के दौर के ही एक दूसरे शाइर शेर अली अफ़सोस ने भी अपने वक़्त की होली को शाइरी का पैकर अता किया है। उनके कलाम से एक मुख़्तसर सा टुकड़ा मुलाहिज़ा फरमाएं…
बुझी है ये होली पड़ा है ये खेल
हर एक तरफ़ है रंग की रेल पेल
बजाती है कोई खड़ी तालियां
मज़े से है देती कोई गलियां
लगाती है कोई किसी के गुलाल
किसी के कोई दौड़ मलती है गाल
उड़े थे अबीरो गुलाल इस क़दर
किसी की न आती थी सूरत नज़र
सआदत यार ख़ाँ ‘रंगीन’ जो कि रेख़्ती की शाइरी के लिए मशहूर और बदनाम दोनों हैं, उन्होंने होली की मस्ती पर भी कम नहीं लिखा। लखनऊ की होली उनके मिज़ाज से बहुत मिलती थी। नमूना मुलाहिज़ा हो…
भरके पिचकारियों में रंगीन रंग
नाजनीं को खिलायी होली संग
बादल आए हैं घिर गुलाल के लाल
कुछ किसी का नहीं किसी को ख्याल
चलती है दो तरफ से पिचकारी
मह बरसता है रंग का भारी
हर खड़ी है कोई भर के पिचकारी
और किसी ने किसी को जा मारी
भर के पिचकारी वो जो है चालाक
मारती है किसी को दूर से ताक
किसने भर के रंग का तसला
हाथ से है किसी का मुंह मसला
और मुट्ठी में अपने भरके गुलाल
डालकर रंग मुंह किया है लाल
जिसके बालों में पड़ गया है अबीर
बड़बड़ाती है वो हो दिलगीर
जिसने डाला है हौज में जिसको
वो यह कहती है कोस कर उसको
ये हंसी तेरी भाड़ में जाए
तुझको होली न दूसरी आए
लखनऊ स्कूल के सबसे बड़े उस्तादों में एक ख़्वाजा हैदर अली ‘आतिश’ भी अपने शहर की होली से मुतअस्सिर हुए बग़ैर नहीं रह सके…..
होली शहीद-ए-नाज़ के खूं से भी खेलिए
रंग इसमें है गुलाल का बू है अबीर की
लखनऊ की तारीख़ में जो शख़्स होली के सबसे बड़े दीवाने के तौर पर मशहूर है उसका नाम है वाजिद अली शाह ‘अख़्तर’ जिसे आज तक उसका शहर जान-ए-आलम कहकर ख़िताब करता है।
वाजिद अली शाह की होली को लेकर लखनऊ में मशहूर किस्सों में एक किस्सा ये भी सुनाई देता है कि एक दफ़ा होली मोहर्रम के महीने में पड़ गई। ”पहले आप” की तहज़ीब वाले लखनऊ में हिंदुओं ने फ़ैसला किया कि इस बार वे होली नहीं मनाएंगे। जबकि मुसलमानों का मानना था कि जैसे मोहर्रम को हिंदू अपना मानते हैं वैसे ही होली हम भी मनाते हैं इसलिए मोहर्रम की वजह से होली न टाली जाए, लिहाज़ा कोई और रास्ता निकलना चाहिए। वाजिद अली शाह ने एक ही दिन में होली खेले जाने का और मातम का अलग-अलग वक़्त तय किया, इस तरह पूरा लखनऊ होली और अज़ादारी दोनों में शरीक हुआ। ऐतिहासिक रूप से पता नहीं ये घटना कितनी सच्ची है लेकिन अपनी मिली-जुली तहज़ीब में यकीन रखने वाला हर लखनवी इसे पूरे ईमान से तस्लीम (स्वीकार) करता है।
उर्दू के एक और बड़े शायर इंशा अल्लाह खां इंशा ने भी नवाब सादत अली ख़ाँ के होली खेलने की तारीफ़ गद्य और शाइरी दोनो में की है। इंशा लिखते हैं, ‘जो शख़्स भी इस बात से गुमान करता है कि मैं उनकी खुशामद कर रहा हूं तो उसके लिए होली के ज़माने में बिल-ख़ुसूस हुज़ूर की ख़िदमत में हाज़िर होना शर्त है कि वो ख़ुद देख ले कि राजा इंद्र परियों के दरमियान ज़ियादा ख़ुश मालूम होते हैं या वली अहद हूरों के दरमियान.’
शायरी में होली का बयान इंशा इस तरह करते हैं…
संग होली में हुज़ूर अपने जो लावें हर रात
कन्हैया बनें और सर पे धर लेवें मुकुट
गोपियां दौड़ पड़े ढ़ूंढे कदम की छैयां
बांसुरी धुन में दिखा देवें वही जमना तट
गागरे लेवें उठा और ये कहती जावें
देख तो होली जो बज़्म होती है पनघट
लखनऊ में नवाबी उजड़ने के बाद भी मुसलमानों का होली खेलना और होली पर शायरी करना पहले की तरह ही जारी रहा। स्वतंत्रता सेनानी और अज़ीम शायर हसरत मोहानी जिनका रकाबगंज स्थित मज़ार आज पूरी तरह गुमनाम है, उन्होंने भी होली पर खूब शायरी की है।
मोसे छेड़ करत नंदलाल
लिए ठाड़े अबीर गुलाल
ढीठ भई जिनकी बरजोरी
औरन पर रंग डाल डाल
शायर-ए-इंकलाब जोश मलीहाबादी की शायरी भी होली के रंगों से शराबोर है, आमतौर पर अपनी नज़्मों और ग़ज़लों के लिए मशहूर जोश ने कई गीत भी लिखे हैं जिनमें होली का ज़िक्र कुछ यूं मिलता है…
गोकुल बन में बरसा रंग
बाजा हर घर में मिरदंग
खुद से खुला हर इक जूड़ा
हर इक गोपी मुस्काई
हिरदै में बदरी छाई
अपने तंज़ो मिज़ाह (हास्य-व्यंग्य) के लिए मशहूर साग़र ख़य्यामी और उनके भाई नाज़िर ख़य्यामी भी होली की मस्ती के मतवाले थे। दोनों होली पर दोस्ताना महफ़िलें भी सजाते थे। सागर साहब की होली-ठिठोली मुलाहिज़ा हो…
छाई हैं हर इक सिम्त जो होली की बहारें
पिचकारियां ताने वो हसीनों की कतारें
हैं हाथ हिना रंग तो रंगीन फुवारें
इक दिल से भला आरती किस-किस की उतारें
चंदन से बदन आबे गुले शोख से नम हैं
सौ दिल हों अगर पास तो इस बज़्म से कम हैं
कृष्ण के वियोग में तड़पती राधा की होली का जो बयान बासित बिसवानी ने किया है वो ग़ौर करने लायक है…
होली तन मन फूंक रही है दूर सखी गिरधारी है
दिल भी टुकड़े-टुकड़े है और ज़ख़्म-ए-जिगर भी कारी है
हाय अकेली खेल रही हूं सारी डूबी सारी है
खून-ए-तमन्ना रंग बना है आंखों की पिचकारी है
जाफ़र अली ख़ाँ असर जो कि मशहूर आलोचक और लखनवी ज़बान के माहिर थे, जिन्होंने मजाज़ लखनवी को उर्दू के कीट्स का ख़िताब दिया था, उन्होंने भी एक मस्नवी बहार-ए-सुख़न लखनऊ की होली पर लिखी है. इसका एक अंश देखिए…
साजन ने फिर मुरली सुनायी
साथ अबीर और गुलाल लगायी
रंग भरी मारूं पिचकारी
देख सखी मैं दूंगी गारी
होली में दूंगी आग सखी री
हिल मिल खेलें फाग सखी री
यहाँ तो लखनऊ के सिर्फ़ चंद मुसलमान शाइरों के होली के रंग में डूबे कलाम दिए गए हैं। वास्तव में इस शहर के अनगिनत मुस्लिम शायरों ने होली पर अपनी शाइरी के ज़रिये न सिर्फ़ लखनऊ की होली की महानता बयान की है बल्कि पूरी दुनिया को धार्मिक सद्भाव का संदेश भी दिया है।
अंत में, नाज़िर ख़य्यामी के इस पैग़ाम के साथ आप सभी को होली मुबारक!
ईमां को ईमां से मिलाओ
इरफां को इरफां से मिलाओ
इंसां को इंसां से मिलाओ
गीता को कुरआं से मिलाओ
दैर-ओ-हरम में हो न जंग
होली खेलो हमरे संग!
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, किस्सागोई करते हैं और लखनऊ की सांस्कृतिक विरासत के जानकार भी हैं. फ़िलहाल वर्धा विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं।)
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