Yogesh Praveen

शान ए लखनऊ, जान ए लखनऊ

हर सम्त इक हुजूम-ए-निगारान-ए-लखनऊ
और मैं कि एक शोख़-ग़ज़ल-ए-ख़्वान-ए-लखनऊ

अब उस के बा’द सुब्ह है और सुब्ह-ए-नौ ‘मजाज़’
हम पर है ख़त्म शाम-ए-ग़रीबान-ए-लखनऊ

लखनऊ का हर फ़र्द अपने आप में अदब की पहचान है। मजाज़ पर ही यह शाम नहीं ख़त्म हुई, शायद हो भी नहीं सकती। तहज़ीब वो शह्र है जो किसी एक सूरज पर मुन्हसिर नहीं है, एक डूबा दूसरा उभरा, दूसरा डूबा तीसरा तुलू हुआ, कभी चाँद ने ज़िम्मेदारी संभाली तो कभी कई तारों ने मिल कर क़िस्मत उजाली।

पाकिस्तान में औरतों के हुक़ूक़ के लिए आवाज़ उठाने वालीं, उर्दू ज़बान की आलिम आरफ़ा सैय्यदा ज़हरा साहिबा का एक वीडियो है जिसमें वो लखनऊ के एक केले वाले से अपनी बातचीत के बारे में बताती हैं, वो उनसे पूछती हैं,

आज क्या भाव दीजिएगा?

-बिटिया आज तो तीन रुपये का भाव है।

ढाई में न दे दीजिएगा?

-बिटिया पौने तीन वाले तो अरमान ले के चले गए!

तो ये है लखनऊ की तहज़ीब। तहज़ीब, अदब, सलीक़ा एक दिन में बनाई जाने वाली शय नहीं हैं, सदियाँ लगती हैं तब जा कर ये सलीक़ा नवाबों और केले वालों में एक जैसा आता है, ऐसे में हर शख़्स की ज़िम्मेदारी बन जाती है कि ये तहज़ीब अपनी आने वाली नस्ल को सिखाए, फिर भी एक अकेला शख़्स कहाँ तक सिखाएगा!

इसीलिए कुछ लोग बीड़ा उठाते हैं इस तहज़ीब और तारीख़ को सब तक पहुँचाने का, उसे ज़िंदा रखने का, और ये काम करते हैं मुअर्रिख़ (Historian), मुअर्रिख़ का काम कितना अहम है ये बात हमें इस शे’र से पता लगती है,

हाल को मुस्तक़बिल की ख़ातिर जोड़ रखा है माज़ी से
तीर को जितना पीछे खींचो, उतना आगे जाता है

और ये काम कितनी ज़िम्मेदारी का है ये बात इस शे’र से,

हर मुअर्रिख़ को ये एहसास दिला दो अजमल
उसने माज़ी नहीं फ़रदा प क़लम रक्खा है

आपकी ज़बान, आपका लहजा, आपका नज़रिया, यह सब उस जगह के माज़ी का आईना तो होते ही हैं लेकिन यह ही वहाँ के लोगों का भविष्य भी तय करते हैं। तारीख़, तहज़ीब, अदब को एक बच्चे की तरह सम्भालना होता है। लखनऊ की बात करें तो इस बच्चे को लखनऊ में पाला, पोसा और बड़ा किया है जनाब योगेश प्रवीन ने!

योगेश प्रवीन लखनऊ का चलता फिरता एनसाइक्लोपीडिया भी कहे जाते थे।

कुछ लोग शहरों जैसे होते हैं या ये कह लीजिए वो अपनी जगह की ख़ुशबू अपने साथ रखते हैं। योगेश प्रवीन जी के बारे में कहा जाता था कि आपको लखनऊ के बारे में जो भी जानना हो, आप कभी भी योगेश जी से पूछ सकते हैं और वो बड़े इत्मीनान से आपको हर बात अच्छे से समझाते थे। इल्म इतना मगर शख़्सियत बेहद सरल! लखनऊ भी ऐसा ही है, अपनी तारीख़ और तहज़ीब से इतना अमीर मगर हर आदमी इसमें अपना घर पा ले ऐसा आसान!

योगेश जी की लिखी किताबों में दास्तान ए अवध, ताजदार ए अवध, बहार ए अवध, आपका लखनऊ, दास्तान ए लखनऊ शामिल हैं, कुल मिलाकर उन्होंने तीस के क़रीब किताबें लिखीं।

योगेश प्रवीन की ताजदारे अवध के बारे में अमृतलाल नागर ने लिखा था कि यह सत्यासत्य की दुर्गम पहाड़ियों के बीच कठिन शोध का परिणाम है।

योगेश जी के इल्म से मुतास्सिर हो कर उन से सिर्फ़ अवाम ही नहीं बॉलीवुड के लोग भी सलाह लेने आया करते थे, बीच सत्तर के दशक में शशि कपूर और श्याम बेनेगल अपनी फ़िल्म जुनून के लिए योगेश जी से मशविरा करने आये थे। ये उस वक़्त की बात है जब शशि कपूर सुपर स्टार हुआ करते थे और श्याम बेनेगल बेहतरीन डायरेक्टर के रूप में जाने जाते थे।

जुनून फ़िल्म रस्किन बॉन्ड के नॉवेल A flight of pigeons पर आधारित है, ये नावेल 1857 के हिंदुस्तान पर है, यूँ ये नॉवेल ग़दर पर है मगर इसके केंद्र में एक प्रेम कहानी है।

फ़िल्म जुनून ने बहुत सारे नेशनल अवार्ड्स जीते।

इसके अलावा योगेश जी से उमराव जान (नयी वाली ऐश्वर्या राय के साथ और पुरानी रेखा जी के साथ) दोनों फ़िल्मों के लिए सुझाव लिए गए।

उन्हें लखनऊ नामा के लिए नेशनल अवॉर्ड दिया गया, साल 2000 में उन्हें उत्तर प्रदेश रत्न से सम्मानित किया गया।

अवार्ड्स तो उनके पास बहुत हैं जिनमें पद्मश्री भी शामिल है लेकिन उनकी ज़िंदगी देखकर ये सवाल ज़रूर उठता है कि ये सब आख़िर शुरू कहाँ से हुआ, क्या वज्ह होगी कि इस प्यारे से शख़्स ने अपनी तमाम मोहब्बत लखनऊ के नाम कर दी?

योगेश जी ने एक बातचीत में कहा है कि वे एक बार हैदराबाद में एक प्रदर्शनी देखने गए, वहाँ लखनऊ को जिस तरह दिखाया गया था वो उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं आया, लखनऊ को सिर्फ़ एक अय्याशी का गढ़ बना कर प्रचलित किया जा रहा था, यहाँ के सामाजिक इतिहास का कोई ज़िक्र नहीं था, यहाँ के संघर्ष की दास्ताँ सुनाने वाला कोई नहीं था, तब से योगेश जी ने ये दास्ताँ सुनाना शुरू किया जिसके किरदार सिर्फ़ राजा महाराजा ही नहीं, अवाम भी थे, और उनकी दास्ताँ ज़माने ने सुनी, इस बात को भी एक लखनउआ शाइर, साक़िब “लखनवी” ने क्या ख़ूब कहा है,

ज़माना बड़े शौक़ से सुन रहा था
हमीं सो गए दास्ताँ कहते कहते

आज योगेश प्रवीन दास्ताँ कहते कहते सो ज़रूर गए हैं लेकिन जागने और जगाने के लिए अपनी किताबें, अपना काम हमें दे गए हैं, और तो और अपनी विरासत भी बेहद क़ाबिल दास्तानगो हिमांशु बाजपेयी को सम्भला गए हैं, योगेश जी के लफ़्ज़ों में,

“मेरी क़लम की ख़ुशबू का सच्चा उत्तराधिकारी हिमांशु बाजपेयी है”

उन्हीं हिमांशु बाजपेयी की क़लम की ख़ुशबू योगेश जी के क़दमों को छूते हुए आप तक इस हिमांशु की इस नज़्म की शक्ल में पहुँचा रही हूँ,

नज़्र-ए-योगेश प्रवीन ! नज़्र-ए-लखनऊ

लखनऊ मेरे वतन ! ये तुझको आख़िर क्या हुआ
तेरा चेहरा दिख रहा है दर्द में डूबा हुआ

शहरे दिल-आवेज़ तेरी ये उदासी किसलिए?
ज़र्द रंगत किसलिए ये बदहवासी किसलिए ?

यूँ भला पागल हुई फिरती है तेरी शाम क्यों?
छिन के आख़िर रह गया है सब्र क्यों,आराम क्यों?

बोल!वहशी हो गए तेरे सलीक़ामंद क्यों?
ग़फलतों में खो दिया “योगेश” सा फ़र्ज़न्द क्यों?

तेरे कूचों में भला ये हू का आलम किसलिए?
जानेमन मुझको बता तो दे कि ये ग़म किसलिए?

कौन है जिसने तेरी अज़मत को आख़िर कम किया?
माथे को बख़्शी शिकन और आंखों को पुरनम किया?

जो भी हो, वो जाएगा..जाएगा आख़िर एक दिन!
अपना दिन ऐ दिलनशीं !आएगा आख़िर एक दिन

लखनऊ! तुझ पर बहार ए नौ दोबारा आएगी
बारिशें होंगी मुहब्बत की,घटा फिर छाएगी

मैं दुआ गो हूँ कि फूल उम्मीद के फिर से खिलें
तेरी गलियों में फरिश्तों के पते फिर से मिलें