ज़बान के भी पैर होते हैं
उर्दू ज़बान हमारे देश की ज़बान है इसकी ईजाद यहीं हुई और यह यहीं पली- बढ़ी यह बात और है कि आज़ादी के बाद यह पाकिस्तान की आधिकारिक ज़बान बन गयी। पाकिस्तान में लगभग डेढ़ करोड़ लोग इस ज़बान को बोलते- जानते हैं, वहीं हिन्दुस्तान में इसके बोलने- जानने वालों की तादाद लगभग साढ़े छह करोड़ है। उर्दू के कई नाम रहे कभी इसे हम हिन्दवी कहते थे, फिर रेख़्ता कहने लगे अब इसे हिन्दुतानी या उर्दू के नाम से जाना जाता है। उर्दू का डेवलपमेंट सन 711 के आस- पास शुरूअ हो चुका था लेकिन इसकी फ़ैसला कुन तरक़्क़ी दिल्ली सल्तनत (1206-1526) और मुगल साम्राज्य (1526-1858) के दौरान हुई। होते- होते उर्दू की भी तमाम शक्लें सामने आती रहीं।
उर्दू के सबसे बलन्द क़िले लखनऊ और दिल्ली में तामीर हुए। हिन्दवी के बाद यह दो शक्लों में तब्दील हुई जिनमें से एक हिन्दी के नाम से जानी गई जिसकी लिपि संस्कृत की लिपि यानी देवनागरी है और दूसरी उर्दू जिसकी लिपि फ़ारसी की लिपि है जिसे नस्तालीक़ कहा जाता है। क्या आप जानते हैं उर्दू नेपाल की एक रेजिस्टर्ड इलाक़ाई ज़बान है? दुनिया में सबसे ज़ियादा बोली जाने वाली ज़बानों की फ़ेहरिस्त में इसकी जगह इक्कीसवीं है।
शायद उर्दू ही दुनिया की एक ऐसी वाहिद ज़बान है जिसमें हम ख़ुशामदीद करते हुए ‘तशरीफ़ रखिए’ कह पाते हैं। उर्दू में संस्कृत, फ़ारसी और अरबी ज़बान का अच्छा ख़ासा असर रहा है और आज भी है। हिन्दुतान में हिन्दी के नाम पर बोली जाने वाली ज़बान भी उर्दू है। तमाम बहसें अपनी जगह लेकिन अगर मैं आपसे कहूँ कि ‘मेरे मकान में दस दीवारें और चार दरवाज़े हैं’ तो कौन कहेगा कि उर्दू है? जहाँ ‘मकान’ अरबी का और ‘दीवार’, ‘दरवाज़ा’ दोनों फ़ारसी के लफ़्ज़ हैं। ख़ुदा जाने ‘और’ ‘चार’ भी हिन्दी के लफ़्ज़ हैं कि नहीं। हिन्दी में यह बात शायद ऐसे कही जाएगी कि ‘मेरे भवन में दस भीतियाँ और चार द्वार हैं’।
बहरहाल अगर उर्दू में अरबी और फ़ारसी का असर रहा है तो ज़ाहिर सी बात है कि इसकी अदबी सल्तनत भी इन्हीं ज़बानों से मुतास्सिर होकर तमाम तख़्लीक़ी दिलों और दिमाग़ों पर हुकूमत कर रही होगी। मसलन ग़ज़ल ही को ले लें तो हिन्दुतान में सबसे पहले ग़ज़ल फ़ारसी में राइज हुई फिर होते- होते ये उर्दू की मशहूर और ख़ूबसूरत तरीन सिन्फ़ साबित हुई। ख़ुसरो के बाद दक्कन से होती हुई उर्दू ग़ज़ल को आगे ले जाने का काम ख़ुदा- ए- सुख़न मीर ने किया जिसके बाद न कभी ग़ज़ल ने पलट कर देखा न कभी उर्दू ने, लेकिन यहाँ हम ग़ज़ल के मुताल्लिक़ बात नहीं करेंगे वो फिर कभी।
उर्दू के हक़ में मैं इससे मुफ़ीद जुमला कुछ नहीं समझता कि उर्दू आम आदमी की ज़बान है। और आम आदमी के करोड़ों चेहरे करोड़ों मुँह हैं और जितने मुँह उतनी बातें।
‘जितने मुँह उतनी बातें’ से याद आया कि रेख़्ता के ब्लॉग पर इस उन्वान से एक आर्टिकल मौजूद है वक़्त निकाल कर उसे पढ़िएगा ज़रूर।
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अब इस आर्टिकल की जानिब आते हैं ज़बान के पैर होते हैं दुनिया में ऐसा बहुत कुछ है जो चल रहा है, चलता चला आ रहा है लेकिन उनके पैर नहीं दिखाई पड़ते। इस मौज़ूअ के हवाले से सबसे बड़ी मिसाल वक़्त है। आपने कभी वक़्त के पैर देखे? क्या कभी इसे ठहरा हुआ देखा (देखा होगा लेकिन मैं यहाँ दिलजले आशिक़ की बात नहीं कर रहा) । हू- ब- हू मसअला ज़बान के साथ भी है यह चलती जाती है इसका रूप- रंग बदलता जाता है लेकिन इसके पैर दिखाई नहीं देते।
अरबी का एक लफ़्ज़ है ‘ग़ज़ब’ जिसके मआनी दैवीय प्रकोप के हैं लेकिन ज़बान की रफ़्तार ने इसके मआनी को ऐसा बदला कि हम इसे तारीफ़ के माना में इस्तेमाल करने लगे मसलन ‘आज तो आप ग़ज़ब लग रहे हैं’। क़ह्र लफ़्ज़ के साथ भी यही ज़ियादती हुई जो कि नागवार नहीं गुज़रनी चाहिए ये ज़बान की अपनी फ़ितरत है। क़ह्र के मआनी प्रलय या प्रकोप के हैं लेकिन इसका इस्तेमाल भी अब ग़ज़ब के जदीद माना में होने लगा है- ‘आप काले शूट में क़ह्र ढा रहे हैं’। ऐन मुमकिन है कि भयंकर लफ़्ज़ भी आने वाले वक़्त में तारीफ़ के माना में बोला जा सकता है, आज भी यह राइज हो चला है कि हम कहने लगे हैं ‘वो लड़की बहुत भयंकर ख़ूब- सूरत है’। अब वो लड़की भयंकर है कि ख़ूबसूरत ये तो बोलने वाला ही जाने।
क्या आप जानते हैं- दुरुस्त के माना में बोला जाने वाला लफ़्ज़ ‘सही’ (सही- ग़लत वाला ) सही नहीं बल्कि ‘सहीह’ है और ये अरबी का लफ़्ज़ है जो हिन्दी बोलने वालों में ‘सही’ के इमला के साथ राइज है लेकिन उर्दू में इसका इमला अब भी ‘सहीह’ (صحیح) है।
‘वबाल’ लफ़्ज़ अरबी का लफ़्ज़ है जिसके मआनी बोझ, मुसीबत, संकट या परेशानी के हैं लेकिन हिन्दी बोलने का दावा करने वाले कितने लोग जानते होंगे कि ये उर्दू तक का लफ़्ज़ नहीं है लेकिन हिन्दी अख़बारों से लेकर न्यूज़ चैनलों तक यह लफ़्ज़ ‘बवाल’ के इमला पर राइज है और धड़ल्ले से बोला और लिखा जा रहा है।
एक दिलचस्प लफ़्ज़ है ‘बर्बरता-पूर्ण’ आपने ये लफ़्ज़ भी अख़बारों या न्यूज़ चैनलों के ज़रीए सुना होगा जो कि अरबी के लफ़्ज़ ‘बर्बरियत’ से बना है। उर्दू में बोला जाने वाला आम फ़ह्म लफ़्ज़ ‘मेम्बरान’ भी आपने कहीं न कहीं सुना ही होगा जो इंग्लिश के मेम्बर लफ़्ज़ से बना है।
नए लफ़्ज़ बनते जाएँ तो क्या बुरा है लेकिन बने- बनाए अल्फ़ाज़ का इमला बिगाड़ना कहाँ तक जाइज़ है इसका फ़ैसला आप ही करें तो बेहतर मसलन मुझे निडर, निडरता या बर्बरता- पूर्ण बोलना या लिखना बहुत सुन्दर और सार्थक लगता है लेकिन वबाल को बवाल लिखना कुछ तकलीफ़ देह है।
यहाँ एक सवाल पैदा होता है कि उर्दू ने भी नीरश को नीरस बनाया तो देश को देस तो इसका सीधा सा जवाब ये है कि उर्दू आम आदमी की ज़बान है और इसमें लोक भाषाओं का भी भरपूर असर रहा है जहाँ उमूमन लोकगीतों में शीन यानी ‘श’ की ध्वनि बहुत कम सुनने को मिलती है।
साथिया फ़िल्म में गुलज़ार साहब के लिखे तमाम नग़मों में से एक- ‘छलका-छलका रे’ जिसे संगीत बद्ध किया है ए. आर. रहमान साहब ने। इस नग़मे को गुलज़ार साहब ने उर्दू में लिखने के साथ- साथ लोक गीत की सूरत में भी ढालने की कोशिश की है और ये किससे छुपा है कि जब भी रहमान साहब हिन्दी (किसी भी ज़बान की) फिल्मों के नग़मे कम्पोज़ करते हैं तब एहतियातन वहाँ नग़मा- निगार भी मौजूद होता है तो ये कैसे मुमकिन है कि किसी नग़मे में विष को बिस और होश को होस गाया जाए? दरअस्ल बात ये है कि उन्होंने उसे उर्दू के साथ- साथ लोक गीत की सूरत में ढालने की भी कोशिश थी और जैसा कि मैंने इस आर्टिकल में पहले भी अर्ज़ किया है कि उर्दू में लोक भाषाओं का भी भरपूर असर रहा है और है।
वो दो मिसरे हैं,
“चिकनी माटी ‘बिस’ आँगन की
सुध- बुध खोई ‘होस’ उड़ाए”
बहरहाल ज़बान के पैर नहीं होते मगर वो चलती जाती है उसे चलते जाने दें।
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