किताबें तन्हा भी करती हैं और तन्हाई से बचाती भी हैं
किताबों से परे ज़िन्दगी का तसव्वुर करना भी तसव्वुर के सिवा और क्या है। बल्कि महसूस करके देखा जाए तो किताबों का एक-एक सफ़्हा न जाने कितनी ज़िन्दगियों से लिपटा हुआ होता है। तन्हाई में घुटता हुआ इंसान किताबों के साथ जीना सीख ले तो फिर वो इस दुनिया का नहीं रह जाता। किताब में तहरीर एक-एक लफ़्ज़ हमसे गुफ़्तगू करता है, एक-एक किरदार किताब से निकल कर हमारे सामने आ कर हमारे साथ जीने लगता है, ये न हुआ तो हम उनके साथ जीने लगते हैं। मैंने किताबों से सीखा कि ज़िन्दगी को हयात भी कहते हैं। मुझे किताबों ने ही बताया कि आसमान, आसमाँ, फ़लक, गगन सब एक हैं।
किताबों ने मुझे बताया कि तबस्सुम चाहे किसी लड़के का नाम न हो लेकिन है वो मुअन्नस नहीं। किताबों को पढ़ते-पढ़ते ही मुझ पर खुला कि ”language is courage the ability to conceive a thought to speak it, and by doing so, make it true” सलमान रुश्दी
या’नी ‘भाषा साहस है, किसी सोच को पाने की, उसे प्रस्तुत कर सकने की क्षमता है। आप ऐसा करके साबित कर सकते हैं कि यह ऐसा ही है।
और ये भाषा है क्या? भाषा वो ज़रीआ है जिसकी वज्ह से मुँह में ज़बान रखने वाला शख़्स गूंगा नहीं रहता । और जो गूंगा है वो तो गूंगा है ही लेकिन गूंगा भी अपने तअस्सुरात का इज़हार करने के हज़ारों तरीक़े किताबों से सीख सकता है।
ज़िन्दगी हो कि ज़िन्दगी से जुड़ा आपका कोई हुनर सबकी बुनियादें किताबों के अन्दर बोई जा चुकी हैं। किताबों के अन्दर मंज़िलों तक पहुँचने के लिए ख़्वाबों की ता’बीरें मिलती हैं। अगर आपकी मंज़िल शाइरी है तो उसकी राह किताबों से होकर जाती है और आपकी मंज़िल आपके मुतालए के उस ओर खड़ी आपका इन्तेज़ार कर रही होती है। दौर-ए-जदीद में उमूमन लोगों का रुझान शाइरी की जानिब होता है, ख़ासकर ग़ज़ल जो कि इन दिनों कितने ज़ेहनों पर क़ाबिज़ होकर उन्हें दीवानगी की हद तक ले आई है । मैं किसी की बात क्या करूँ, मैं ख़ुद भी इंजीनियरिंग का स्टूडेंट था लेकिन शाइरी ने मुझे इंजीनियर बनने नहीं दिया। कोई वक़्त था जब शाइरी से आसान कुछ नहीं लगता था और एक ये वक़्त है जब मुझे शाइरी से मुश्किल कुछ नहीं लगता । हालाँकि मैं Marilyn Manson की बात ‘music is the strongest form of magic’ या’नी ‘संगीत जादू का सबसे मज़्बूत रूप है’ से इत्तेफ़ाक़ रखते हुए यह भी कहना चाहूँगा कि शाइरी भी किसी जादू से कम नहीं है। इससे ज़ाहिर है कि ये आसान भी नहीं है। मेरे अज़ीज़ दोस्त महेन्द्र सानी कहा करते हैं कि ‘शाइरी अच्छे दिनों में बुरे दिनों की याद है’ मैं उनकी बात में इज़ाफ़ा करते हुए कहना चाहूँगा कि शाइरी मौजूद में माज़ी का इज़हार है। शाइरी के ज़रीए मौजूद में मौजूद का इज़हार एक उम्र के तजरबे और मश्क़ के बा’द ही मुमकिन हो पाता है। अगर हम चाहते हैं कि ये वाक़िआ हमारे शे’री सफ़र के दौरान जल्द-अज़-जल्द घटे तो हमारे नज़्दीक सिवाए मुतालए के कोई और चारा नहीं रह जाता । मसलन अगर मैंने ये कहा है कि अच्छी शाइरी की तमाम राहें मुतालए से होकर जाती हैं, तो मैंने कुछ ग़लत नहीं कहा है ।
मेरा ज़ाती तजरबा है कि बग़ैर पढ़े आप बहुत दिनों तक शाइरी नहीं कर सकते। अच्छी शाइरी तो बिल्कुल भी नहीं कर सकते। इसका बाइस ये है कि आप अपनी उम्र के 20- 22 सालों के तजरबे को 20-22 ग़ज़लों तक ही बयान कर सकते हैं। उसके बाद आपकी सोच अपने आप को दोहराती है और बारहा आप एक ही ज़ाविए से या एक ही मौज़ूअ पर शे’र कहते रह जाते हैं। इस सच से कौन ना-वाक़िफ़ है कि बेश्तर लोगों की ज़िन्दगी में शाइरी की इब्तेदा इश्क़ में पड़कर होती है जो कि उस शाइर की शुरूआती बल्कि अगर उसे उसकी सबसे ख़राब शाइरी में शुमार किया जाए तो भी ज़ियादती नहीं। इश्क़ कामयाब हुआ तो बेहतर वर्ना इश्क़ के आख़िरी मरहले हिज्र तक आते-आते उस नौ-मश्क़ शाइर के अन्दर उसका शे’री शऊर कुछ बेहतर हो चुका होता है लेकिन वो हमेशा बना रहेगा या और बेहतर होता जाएगा ये ज़रूरी नहीं।
तो इसका चारा क्या?
इसका चारा है किताबों की जानिब रुख़ करना जो लाज़िम भी है और मजबूरी भी। हमें पढ़ना इसीलिए भी चाहिए कि हम हर क़िस्म के शाइर की शाइरी को नज़दीक से समझ सकें। उनके शे’र बनाने के तरीक़े को समझ सकें । हम पर खुल सके कि ग़ालिब ने-
दिल-ए नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है
में दिल-ए-नादाँ ही क्यों लिखा ‘क़ल्ब-ए-नादाँ’ क्यों नहीं लिखा जब कि क़ल्ब का मआनी भी दिल है।
ग़ालिब क्यों आदमी और इंसान में फ़र्क़ करते थे?
बस कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना
ज़बान और उसका इस्तेमाल हम एक लुग़त भर के भरोसे तो नहीं सीख सकते । सो भी हमें पढ़ना चाहिए ताकि हम जान सकें कि कैसे किस लफ़्ज़ को कहाँ इस्तेमाल किया जाता है।
दिल-ए-सीमाब-‘सिफ़त’ फिर तुझे ज़हमत दूँगा
दूर-उफ़्तादा ज़मीनों की मसाफ़त दूँगा
सलीम कौसर
तुझ लब की ‘सिफ़त’ ला’ल-ए-बदख़्शाँ सूँ कहूँगा
जादू हैं तिरे नैन ग़ज़ालाँ सूँ कहूँगा
वली मोहम्मद वली
अब ये ‘सिफ़त’ जहाँ में नायाब हो गई है
मलमल बदन पे उस के कम- ख़्वाब हो गई है
उबैद सिद्दीक़ी
आप इन तीनों अशआर में सिफ़त लफ़्ज़ (जिसके मआनी ‘तारीफ़, गुण, वस्फ़, प्रभाव, या तासीर’ के होते हैं) पर ग़ौर कीजिये कि तीनों अशआर में सिफ़त लफ़्ज़ का तीन तरह से इस्ते’माल हुआ है।
अब अगर आपके ज़ेहन में ये सवाल धमक पड़ा है कि क्या और कैसे पढ़ना है, तो मेरा जवाब यही है कि दुनिया में सब कुछ पढ़ने के लिए ही लिखा गया है। शाइरी पढ़ना तो ज़रूरी है ही साथ-साथ कहानी, उपन्यास भी अगर आप पढ़ेंगे तो भी आपके इल्म में इज़ाफ़ा ही होगा और वह इसी लिए क्यों कि कहानी या उपन्यास एक नहीं बल्कि कई किरदारों के बनने-बिगड़ने के अमल को समझने में हमारी मदद करते हैं। हम उन्हें पढ़कर अपनी ज़िन्दगी के आगे की ज़िन्दगी का तजरबा हासिल कर पाते हैं। जब भी कोई नया शाइर पढ़ें तो पहले पढ़े जा चुके शाइर को ज़ेहन में रखते हुए पढ़ें कि इसमें और उसमें क्या फ़र्क़ है? कैसे ये दोनों शाइर एक दूसरे से जुदा हैं। अगर आप मुतालए में नए हैं, तो पढ़ते वक़्त ये भूलकर पढ़ें कि आप भी कुछ लिख लेते हैं। पढ़ते-पढ़ते हममें अक्सर और अचानक ऐसा अहसास पैदा होता है कि अब शाएद लिखा जा सकता है, लेकिन उस वक़्त का लिखा आपको सिर्फ़ उसी वक़्त ही अच्छा लगेगा। ऐन मुमकिन है कि आने वाले कुछ दिनों या महीनों में आप उस लिखे हुए को फेंकना ही मुनासिब समझें । लिहाज़ा हमें पढ़ते वक़्त लिखने से बचना है। शाइर का चुनाव आप अपनी समझ के हिसाब से करें। शाइरी से शाइर की ज़ाती ज़िन्दगी समझने की कोशिश करने के बजाए उनकी शाइरी में मौजूद मफ़हूम और मौज़ूअ को समझने की कोशिश करें। हर एक लफ़्ज़ को बारीकी से पढ़ें और सोचें की अगर लिखे गए लफ़्ज़ की जगह कोई और लफ़्ज़ होता तो शे’र कैसा होता? शे’र के सतही मआनी के इलावा उसमें निहाँ तमाम पहलू कुरेदने की कोशिश करें।
आपके अन्दर छुपे शाइर को चुप-चाप अपना काम करने दें।
अमीर इमाम का शे’र है
आते-आते इश्क़ करने का हुनर आ जाएगा
रफ़्ता- रफ़्ता ज़िन्दगी आसान होती जाएगी
इसे यूँ समझिये कि-
आते-आते शे’र कहने का हुनर आ जाएगा
रफ़्ता-रफ़्ता शाइरी आसान होती जाएगी
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