ज़बान और इश्क़ किसी तरह की पाबन्दियाँ पसन्द नहीं करते
उर्दू शाइरी के नए पाठकों को एक चीज़ जो गाहे-ब-गाहे परेशान करती है वो है नून (ن) , कि कहाँ नून ग़ुन्ना (जैसे आसमाँ) और कहाँ नून नातिक़ (जैसे आसमान) आयेगा।
यह मस्अला हिन्दी मूल शब्दों में नहीं है मसलन कान, उड़ान को ‘काँ’ या ‘उड़ाँ’ नहीं कहा जाता, लेकिन अरबी फ़ारसी मूल के शब्दों में यह मसला ज़रूर पेश आता है, और इन शब्दों के हिन्दी जमा(बहुवचन) या इज़ाफ़त में यह और ज़ियादा उलझ जाता है।
आसमान, गुलसितान, जान, दरून, आफ़रीन ज़मीन वग़ैरह अल्फ़ाज़, जिनके आख़िर में ‘नून’ और नून से पहले ‘हर्फ़-ए-इल्लत’ (‘आ’ ‘ई’ ‘ऊ’ वग़ैरह मात्राएँ ) हो, वह फ़ारसी में लिखे तो नून नातिक़ के साथ ही जाते हैं और उर्दू में भी पहले यही चलन था, मगर फ़ारसी में इसका उच्चारण नून नातिक़ और नून ग़ुन्ने के दरमियान की कोई आवाज़ होती है। उर्दू शाइरी में यह दोनों तरह इस्तिमाल हो सकते हैं यानी “न” को पूरी तरह ज़ाहिर करते हुये भी और सिर्फ़ नाक से आवाज़ निकालते हुये भी। यह शाइर की इच्छा पर है कि कहाँ हुस्न की वज्ह से या वज़्न की वज्ह से वो कौन सा नून इस्तिमाल करता है।
कुछ क़ायदा-साज़ों ने यह कहा कि ऐसे शब्द अगर मुजर्रद यानी अकेले और ख़ालिस आयें, यानी नून पर ही ख़त्म हों , बिना किसी इज़ाफ़त या जमा के, तो नून का इज़हार बहतर है। यह क़ायदा न समझ में ही आता है, न ही उस्तादों के यहाँ इसकी तसदीक़ होती है। हर शायर के यहाँ ख़ूब मिसालें भरी पड़ी हैं जहाँ ऐसे अलफ़ाज़ नून ग़ुन्ना से बँधे हैं बजाये नून नातिक़ के। यहाँ क्या मिसालें लिखूँ, इक़बाल के ”सारे जहाँ से अच्छा” को ही देख लीजिये।
अरबी इज़ाफ़त में अगर मुज़ाफ़ अलैह हो, यानी इज़ाफ़त का आख़री शब्द, तो नून नातिक़ के साथ लिखना जायज़ है, बल्कि बहतर है। जैसे अज़ीम-उश-शान, तफ़सीर-उल-क़ुरआन।
फ़ारसी इज़ाफ़त में अगर मुज़ाफ़ इलैह यानी इज़ाफ़त का दूसरा शब्द हो (मसलन गरदिश-ए-आसमान) या जुमला-ए-आतिफ़ा (जहाँ एक से ज़ियादा अलफ़ाज़ को ‘वाव’ लगा कर मिलाया जाता है) का आख़री हिस्सा हो, जैसे दिल-ओ-जान, तो क़ायदा तो यह भी है कि इसे नून ग़ुन्ना यानी चन्द्र बिंदु से लिखा जाये लेकिन उस्तादों के कलाम में इस क़ायदे के ख़िलाफ़ ख़ूब मिसालें मिलती हैं।
1– शह्र-ओ-कोहसार-ओ-बयाबान सभी हैं आबाद (मीर)
2– एक तो सुब्ह-ए-गुलिसतान में भी शाम करो (मीर)
3– दे जाम-ए-ख़ून मीर को गर मुँह वो धो चुका (मीर)
4– हम ने उसे हर ख़ार-ए-बयाबान में देखा (सौदा)
5– शरअ-ओ-आईन पर मदार नहीं (ग़ालिब)
6– सोज़ाँ है क़ल्ब-ए-ख़ाक जो ख़ून-ए-मुबीन से (जोश)
क़ायदे की मानें तो यहाँ गुलसिताँ, शरअ-ओ-आईँ, जाम-ए-ख़ूँ , ख़ून-ए-मुबीं और बयाबाँ होना चाहिये, लोकिन इस क़ायदे के ख़िलाफ़ इतनी मिसाले हैं कि इन्हें इसतिसना (अपवाद) भी नहीं कह सकते। हाँ यह ज़रूर है कि मीर और ग़ालिब के ज़माने में यह क़वाइद अभी तशकील ही पा रहे थे, इस लिये बाद के मोतबर शुअरा के यहाँ ऐसी मिसालें कम देखने को मिलती हैं जहाँ इज़ाफ़त में आख़री शब्द को नून नातिक़ बाँधा गया हो।
लेकिन अगर यही अलफ़ाज़ इज़ाफ़त में पहला हिस्सा यानी मुज़ाफ़ हैं (आसमान-ए-बुलंद) या इन अल्फ़ाज़ की हिन्दी जमा (जैसे आसमानों), या इनके बाद अत्फ़ का ‘वाव’ आये (जैसे आसमान-ओ-ज़मीन ) तो इन सूरतों में नून का इज़हार ज़रूरी ही है, ज़मीन-ए-सब्ज़ को ज़मीं-ए-सब्ज़ कहना दुरुस्त नहीं।
ऐसे ही इन अलफ़ाज़ का जब हिन्दी जमा/बहुवचन बनाया जाये तो भी ‘नून’ पूरी तरह ज़ाहिर होगा, यानी आसमाँ की जमा आसमानों होगी, आसमाों नहीं।
कुछ अपवाद जो कि मेरी नज़र में आते हैं वो हैं मजनूँ, ख़िज़ाँ, कहकशाँ
ख़िज़ाँ या ख़िज़ान, यानी पतझड़ का मौसम, इसकी हिन्दी जमा/बहुवचन ख़िज़ानों, या ख़िज़ानें होनी चाहिये, क़ायदा तो यही है, जैसे मुसहफ़ी का यह शेर,
ज़हे किल्क-ए-सनअत, कि जिसने ज़मीं पर
बहारें बनायीं, ख़िज़ानें निकालीं
लेकिन शायद ऐसा करने से ख़िज़ाना/ख़ज़ाना (यानी दौलत सोना चाँदी रुपये पैसे का अम्बार) की जमा से मुशाबहत होती है, इसलिये यह चलन से बाहर होता गया और ख़िज़ान यानी पतझड़ की जमा ख़िज़ाओं या ख़िज़ाएँ इस्तिमाल की जाने लगी। अब चलन में यही है कि ख़िज़ाना/ख़ज़ाना(दौलत का अम्बार) की जमा ख़ज़ानों या ख़ज़ाने नून के ऐलान के साथ और ख़िज़ाँ/ख़िज़ान (पतझड़) की जमा ख़िज़ाओं या ख़िज़ाएँ नून ग़ुन्ना के साथ।
कहकशाँ लफ़्ज़ के साथ भी यही हुआ, जाने क्यूँ उसकी हिन्दी जमा में नून ग़ुन्ना आ गया। वरना सही यही है कि उसकी जमा कहकशानों है, कहकशाओं नहीं।
जौन का शेर है,
सुना है काहकशानों में रोज़-ओ-शब ही नहीं
तो फिर तुम अपनी ज़बाँ क्यूँ जलाने लगते हो
यहाँ जौन ने नून का ऐलान किया है, जो कि क़ायदे के ऐतबार से दुरुस्त है, लेकिन ज़ियादा-तर के यहाँ यह नून ग़ुन्ना से ही लिखा जाने लगा है।
एक वज्ह शायद यह भी है कि हमारे रोज़ मर्रा में हम इस लफ़्ज़ को नून ग़ुन्ना के साथ ही बोलते हैं, नून का ऐलान नहीं करते। हम ख़िज़ाँ और कहकशाँ ही बोलते हैं, ख़िज़ान और कहकशान नहीं बोलते, इसलिये नून के इज़हार के साथ इसकी जमा हमारी समाअत को दुरुस्त मालूम न देगी। जबकि दूसरे नून पर ख़्त्म होने वाले अल्फ़ाज़ को हम नून के ऐलान के याथ बोलते हैं, जैसे
आज आसमान साफ़ है (आसमाँ नहीं बोलते)
मेरी जान निकल गयी (जाँ नहीं बोलते)
एक और अपवाद है मजनूँ, यह नून के इज़हार के बिना भी इन सूरतों में इस्तिमाल हो सकता है, यानी मजनूनों के बजाये मजनुओं या मजनून-ओ-लैला के बजाये ‘मजनूँ-ओ-लैला’ भी कहा जा सकता है बल्कि नून ग़ुन्ने के साथ ही बहतर है।
वज्ह इसकी यह है कि नाम (proper noun) के साथ यह उसूल नहीं चलते, हालाँकि मजनूँ का नाम क़ैस था लेकिन लैला के इश्क़ में मजनून (जुनूनी पागल) होने की वज्ह से उर्फ़-ए-आम में वो मजनूँ कहलाने लगा, और यह सिफ़त उसकी ज़ात के साथ और उसकी ज़ात इस सिफ़त के साथ ऐसी मुलहिक़ हुई कि एक दूसरे के पर्याय बन गये।
अगर पागलों की बात होगी तो मजनून या मजनूनों कहना बहतर है, अगर आशिक़ों की बात हो तो मजनूँ या मजनुओं कहना बहतर।
ज़बान और इश्क़ किसी तरह की पाबन्दियाँ पसन्द नहीं करते, कितनी अजीब बात है कि लफ़्ज़ ‘मजनूँ’ पागल के अर्थ में है, क़ैस इश्क़ में पागल हुआ तो उसे मजनून या मजनूँ बोलने लगे, लेकिन जज़बा-ए-इश्क़ इस क़दर ग़ालिब और ज़ाहिर था कि क़ैस की वज्ह से इस लफ़्ज़ में रफ़ता रफ़ता इश्क़ का मफ़हूम समाता चला गया और डिक्शनरी बग़लें झाँकते रह गई।
बहरहाल, तो क़ायदा यह कि अगर यह अलफ़ाज़ अकेले हों तो चाहे नून ग़ुन्ना के साथ चाहे नून नातिक़ के साथ इसतिमाल किये जा सकते हैं, मगर बाक़ी जो सूरतें बताई हैं जिनमें इन अलफ़ाज़ के बाद में कुछ जोड़ा जाये वहां नून का इज़हार करना ही दुरुस्त है।
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