डिप्रेशन में शायरी कैसे काम आती है
शायर कैफ़ भोपाली साहब फ़रमाते हैं –
ज़िन्दगी शायद इसी का नाम है,
दूरियाँ, मजबूरियाँ, तन्हाईयाँ
ज़िन्दगी हमारे सामने कई रूप और कई रंगों के साथ मौजूद है | आज कुछ ऐसे हालात बनते जा रहे हैं कि कहीं भी कोई उम्मीद की रौशनी नज़र नहीं आती | मुस्तक़बिल किसी ज़र्द दरीचे के उस पार का अँधेरा लगता है | चारों तरफ़ से ऐसी ख़बरें हमें घेर रही हैं, जिसमें सिर्फ़ और सिर्फ़ मायूसी है, उदासी है, दुःख है | इन दिनों हम कुछ ऐसे हालात में जी रहे हैं, जहाँ न मुल्क की सियासत ही सही मालूम होती है और न ही रोज़ी का कोई रास्ता साफ़ नज़र आता है | सब कुछ धूंधलके में है, हमारे चारों सम्त मायूसी का घना कोहरा छाया हुआ है | कोई भी ऐसा शख्स जिसके अन्दर ज़रा सी भी इंसानियत मौजूद है, वो इन बातों से परेशान न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता है | ये नामुमकिन है कि हम दूसरों का दुःख देख कर परेशान न हों, मायूस न हों |
लेकिन हमें ये बात ज़हन में रखनी ज़रूरी है कि एक सिक्के का एक ही पहलू है, दोनों नहीं |
हमने तो अतीत में दुखों का वो दरिया पार किया है, जिसके किनारे तक नज़र नहीं आते थे | उन शामों और रातों को उम्मीद की सहर में तब्दील किया है, जिनमें एक जुगनू भी नहीं होता था | हमने ऐसे ज़र्द मौसमों में वो ख़ूबसूरत फूल खिलाए हैं, जो दुनिया को आज भी महका रहे हैं| बहुत दूर न जा कर अगर केवल ब्रिटिश हुकूमत की ही तरफ़ एक नज़र करें तो ऐसे कितनों की मिसालें हमारे सामने मौजूद होंगी।
मशहूर जर्मन अदीब ब्रेख़्त कहता है,
“क्या ज़ुल्मतों के दौर में भी गीत गाए जाएँगे,
हाँ ज़ुल्मतों के दौर के ही गीत गाए जाएँगे”
ब्रेख़्त ने चाहे जिस भी वक़्त के लिए ये बात कही हो, लेकिन ये बात हमें गहरे से गहरे अँधेरे में रौशनी की उम्मीद देती है | लफ़्ज़ों, गीतों, ग़ज़लों और कहानियों के सहारे हमने बहुत कठिन वक़्त गुज़ारा है |
कभी कभी इंसान, अपनी ज़िन्दगी से, अपने लोगों से इतना मायूस हो जाता है कि वो ख़ुदकुशी का रास्ता भी इख्तियार करने से बाज़ नहीं आता | जबकि हमें ये समझना चाहिए, अगर ज़िन्दगी नागवार होती जा रही है, बुरी होती रही है, तो हम उस बुराई की मुख़ालिफ़त करें न कि ज़िन्दगी की | ज़िन्दगी के खिलाफ़ जा कर हाथ बस अंत आएगा, बस मौत और इस तरह सैकड़ों-हज़ारों जानें जाने के बाद वो बुराई उस समाज में, उस निज़ाम में जस की तस बनी रहेगी | इसीलिए ऐसे ज़ुल्मतों के दौर में हमें हार नहीं माननी है, बल्कि इसी दौर के गीत गाते हुए रौशनी की तरफ़ जाना है | और ऐसे कई गीत वक़्त दर वक़्त कई शो’रा ने गाए और अवाम को जीने का हौसला दिया |
शायरी का हमारी ज़िन्दगी में जो अहम् किरदार है उससे हम सभी वाकिफ़ हैं| आमतौर पर हम रूहानी और इश्क़िया शायरी की तरफ़ ज़ियादा राग़िब होते हैं पर अगर अपने दुखों में उसी दुःख के इर्द-गिर्द रची कोई शायरी पढ़ी होगी, तो आपने ये पाया होगा कि कहीं न कहीं वो शेर, वो नज़्म हमें एक हौसला, एक रौशनी दे जाती है | यही शायरी की ख़ूबसूरती है |
मिसाल के तौर पर जब हाकिमों ने अवाम पर क़हर बरसाया तो फैज़ ने कहा – “हम देखेंगे!” और ये नज़्म ने सत्ता से मायूस अवाम में वो जान फूँकी कि इनक़िलाब आया | इसी तरह जब हम किसी ज़ाती दुःख से गुज़र रहे हों, और आस-पास कोई न हो, कोई भी न हो तो हमें एक दफ़ा उस शायरी की तरफ़ उस तख्लीक़ की तरफ़ ज़रूर माइल होना चाहिए जो हममें वापस एक उम्मीद से भर दे|
दुःखों की घड़ी में शायरी हमें टूटने-बिखरने से बचाती है और अगर हम पहले से टूट चुके हों तो हमारा सिर सहलाते हुए उम्मीद का दामन हमारे हाथ में रख देती है | हमें संभाले रखती है | यही काम करते हुए अल्लामा इक़बाल कहते हैं,
हमारा काम सिर्फ़ सफ़र करते रहना है | आगे और भी कई रास्ते हैं, कई मज़िलें हैं | एक-दो छूट भी गईं ,खो भी गईं तो क्या हुआ !
इसी तरह से शायर साहिर लुधियानवी साहब कहते हैं कि चाहे कितना भी बुरा मौसम किसी पौद का सर-गुज़श्त हो, जो फूल खिलने की चाह में डटे हुए हैं, जो वाकई खिलना चाहते हैं, उन्हें कोई नहीं रोक सकेगा, शेर देखिए,
और फिर दुनिया को बेहतर बनाना और बेहतर बनाए रखना कोई आसान काम थोड़ी है | ये तो कोई ऐसा शख्स ही कर सकता है, जो किसी भी क़िस्म की मुसीबत का सामना करने से ज़रा भी न कतराए,
ये तो कुछ भी नहीं, दुनिया को बेहतर बनाने में आगे और भी कई चीज़ों का कई मसाइल का सामना करना पड़ेगा, और इसका एहसास शायर एजाज़ रहमानी साहब इस तरह दिलाते हैं,
ग़मों की धूप है, तो ढलेगी भी | बस इस कड़ी धूप में चलते हुए एक बार अपने दिल की सुनिए जो मंज़िल की तरफ़ कितनी उम्मीद से देख रहा है,
शायर मजरूह सुल्तानपुरी साहब फ़रमाते हैं,
यही तो ज़िन्दगी की निशानी है कि रक़्स करने वाला पाँव की ज़ंजीर न देखे | जीने वाला बस दुःख में ही उलझ कर न रह जाए, बल्कि उसके बाद के भले दिनों को भी भाँप सके |
आज के मुश्किल वक़्त से लड़ते रहिए और जीते रहिए, फिर एक दिन आप ख़ुद को शायर अमीर क़ज़लबाश का शेर दोहराते पाएँगे कि
इस तरह शायरी का दामन थामे हम कठिन से कठिन वक़्त में, चाहे वो समाजी हो या ज़ाती ,जी सकते हैं, और जीते रहेंगे| जीने में मरने से ज़ियादा हिम्मत की ज़रुरत होती है तो जिस काम में ज़ियादा हिम्मत की ज़रुरत हो, वो काम ही बेहतर है उस काम को करना ही इंसान होने की अलामत है |
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