
दिल के मौसम: अज़रा नक़्वी की शायरी
अज़रा नक़वी उर्दू अदब में एक जानी-पहचानी आवाज़ का नाम है। वो एक शायरा होने के अलावा तर्जुमा निगार और कहानी कार भी हैं। उन्होंने जदीद अरबी अदब के फ़िक्शन और नॉन फ़िक्शन दोनों को उर्दू में तर्जुमा किया है। बहरकैफ़ वो ग़ज़ल और नज़्म दोनों असनाफ़ में मलका रखती हैं। उन्होंने बड़ी उम्दा और एक नई कैफ़ियत से भरी हुई नज़्मों को तख़लीक़ किया है। उनकी आज़ाद नज़्मों में ख़ूबसूरत अल्फ़ाज़ का इन्तिख़ाब और नज़्म का मजमूई तअस्सुर अपना सा रंग रखता है। यहाँ कई क़िस्म के रंग हैं जिनमें ज़ाती तजरिबों ने एक नई सूरत पैदा कर दी है। बाहर से अंदर की जानिब आने की एक सई के दौरान आप एक-एक तस्वीर को बनते देखते हैं। इन नज़्मों में हिंदुस्तान है और बैरून-ए-हिंद भी, एक औरत है और उसकी यादों के एल्बम भी, तहज़ीब है और उसके हवाले से पैदा शुदा ख़दशात भी। वो अपनी एक नज़्म “दुआ” में अजीब तक़ाज़ा करती हैं कि उन्हें जितने भी लफ़्ज़ दिए जाएँ उनमें किसी भी मानी पर इब्हाम का गुज़र न हो और हर लफ़्ज़ जज़्बे से भरा हो, गोया कि जज़्बा मानी की सूरत इख़्तियार कर ले और इस तरह ये सूरत ऐसी साफ़-शफ़्फ़ाफ़ होनी चाहिए जो आइने की तरह क़ारी को उसमें अपनी शक्ल की अस्ल से मिलवाए और नज़्म की तरसील मुकम्मल हो जाए।
लफ़्ज़ और मानी के हवाले से शायर बहुत सोचता है और इन नज़्मों में भी लफ़्ज़ की बार-बार बदलती मानवी सूरतें उसे बेचैन करती हैं और वो जिंदगी में लफ़्ज़ की अहमियत और मानी की माहियत को जानने और समझने में सरगर्दां नज़र आता है। इन नज़्मों में मौसम हैं, जंगल है, पानी है, ख़्वाब हैं, मंज़र हैं, रंग हैं, अंधेरा है, उजाला है, रात है और कहानी भी और अजनबी शहर है, जिंदगी है और फ़ितरत है जो बहुत सुकून देने वाली सहेली की तरह बारहा शायर को अपनी गोद में पनाह देती है और वो तख़लीक़ का कोई नया ख़्वाब ले आती है।
मेरी शायरी, गीत-संगीत, सब “दिल के मौसम”
चाहने चाहे जाने की ख़्वाहिश में रिश्तों की संगीनियाँ
मोहब्बत में डूबी हुई अधखिली ज़र्द कलियाँ
बुज़ुर्गों से पाई हुई सब दुआएँ,
ख़ज़ाना है मेरा,
धनक रंग मुझमें समाए हुए हैं
-धनक रंग
यहाँ आप देखिए कि ये “दिल के मौसम” जो अब फ़र्द की ज़िंदगी में उसके मन में उपजने वाले संचारी भावों की तरह बनते-बिगड़ते रहते हैं, शायर ने अपने कमाल-ए-फ़न से स्थायी भावों के रूप में पेश किए हैं।
एक शायर और शख़्स की जिंदगी और शख़्सियत के जितने भी बुनियादी हवाले हो सकते हैं, तमाम यहाँ मौजूद हैं और उसकी दुनिया के ये रंग दरअस्ल एक इस्तिआरे की तरह तस्वीर में दाख़िल होते हैं, एक क़ाबिल-ए-फ़हम-ओ-तफ़हीम मॉडर्न पेंटिंग। जहाँ तरसील या इब्लाग़ का कोई मसअला दरपेश नहीं।
जंगल के कट जाने का असर हमारी फ़िज़ाई बल्कि माहौलियाती सेहत पर तो पड़ ही रहा है और ये वो हक़ीक़त है जो अब बहुत ख़तरनाक रूप धार चुकी है, लेकिन एक इंसान के दिल-ओ-दिमाग़ और नफ़्सियात पर क्या असर पड़ता है और किस तरह हम भी एक जंगल की तरह अंदर ही अंदर कटते जाते हैं, ये एक बुनियादी पहलू नज़र वालों के लिए है। इस नज़्म में ख़्वाब-ख़्वाब मंज़र में हवाओं की सिंफ़नी है, चाँद बादल में, और झील चाँदनी की बांहों में वॉल्त्ज़ करती है, धीमी-धीमी सी ख़ुश्बू और मस्त डार हिरनें और बेलें रक़्स करती हैं, बा-वक़ार दरख़्त वॉयलिन संभाले, पत्ते तालियाँ बजाते, जुगनुओं की झिलमिल और राजहंस हैं, परिंदों की आहटें बसेरों में पायलें बजाती थीं लेकिन नींद खुलने के बाद का मंज़र शख़्स और शायर दोनों को एक अज़ीयत से दोचार करता है और,
अपने बंद कमरे में आँख जो खुली देखा
शहर की कसाफ़त से मुज़महिल सा सूरज फिर
एक और नए दिन की धूल लेके आया था
टीवी वाले कमरे में सुब्ह का ख़बरनामा इत्तिला देता था
एक और जंगल को काटकर निकालेंगे रास्ता तरक़्क़ी का
-ख़्वाब-जंगल
दूर परदेस में एक आसाइशों से भरी ज़िंदगी के बारे में हर शख़्स का ख़याल यही होता होगा कि एक बड़ा सा घर होगा, चारों तरफ़ ऐश की फ़रावानी और मसर्रत की नदियाँ बहती होंगी, ख़ुशी और सुकून ग़ालिब के जाम-ए-सिफ़ाल की तरह बार-बार टूटने पर बाज़ार से जब चाहे ख़रीद कर लाए जा सकते होंगे, हालांकि ये एक वाहिमे से बढ़कर कुछ भी नहीं। यहाँ शायर ने इंसानी रूह को एक कैफ़ियत-ए-सुरूर से सरशारी का लुत्फ़ दिलाकर एक ऐसे जहान-ए-कर्ब से गुज़ारा है जिसमें सिवाए हसरत, महरूमी और मसनूईपन के कुछ भी नहीं।
मुझको मसहूर किए देता है, बर्फ़ पर फैली हुई चाँद की किरनों का तिलिस्म
और बहुत दूर वहाँ माउंट रॉयल पे चमकता है निशान-ए-ईसा
मुंजमिद पानी के उस पार नज़र आता है
झिलमिलाता हुआ आबाद जज़ीरा रौशन
जगमगाता हुआ मंज़र सारा
जागती आँखों का इक ख़्वाब नज़र आता है
-ख़्वाब दर ख़्वाब
और यहाँ से शुरू होती है वो वुजूदी बेचैनी जिसमें मिट्टी की पुकार का बड़ा अहम रोल होता है। फिर तो बस क़दम उस बे-राह की सम्त में दौड़ पड़ते हैं जहाँ कि घर, शहर, और अपना मुल्क वाक़े होता है, और वो रौशनियाँ जिन्हें रौशन ही रूह बल्कि वुजूद की तारीकी मिटाने के लिए किया गया था और यहाँ तक कि सब एक तड़पन, एक क़िस्म की बेकली और एहसास की सतह पर एक ऐसी नाचारगी की नज़्र हो जाता है जो सारे वसाइल होने के बाद भी नहीं दूर होती।
“सिर्फ़ शब भर के लिए” एक बड़ी एहसास अफ़ज़ा और इनफॉर्मेटिव नज़्म है, दरअस्ल एक वाक़िए के पसमंज़र पर लिखी गई इस नज़्म में शायर अपनी पूरी ज़ात और साइकी के साथ दाख़िल होता है, यहाँ दुआ है, उम्मीद है, सदी के ख़त्म पर बड़ी उम्मीदें वाबस्ता हैं, ज़मीं का हाल-अहवाल ऐसी नाज़ुक सतह पर शायर दरयाफ़्त करता नज़र आता है कि जी चाहता है उसकी आवाज़ से सुर मिलाकर उसकी सौत-ओ-सदा को ख़लाओं की अज़ीम मौसीक़ी में ढाल कर लहन की सूरत ख़ुदा-ए-पाक के हुज़ूर में पेश किया जाए।
मेरी मजबूर-ओ-परेशाँ, मेरी महबूब हसीं दिलकश-ओ-महजूर ज़मीं
मुंतज़िर रहती है हर चौदहवीं शब
रात भर के लिए जब उसका मुक़द्दर बदले
रात भर के लिए जब नूर का झरना जागे
सिर्फ़ शब भर के लिए
अपने हर दुख का मुदावा कर ले
शायद आ जाए किसी बेकस-ओ-मजबूर को इक बार यक़ीं
इतनी सफ़्फ़ाक नहीं है दुनिया
“किरची-किरची आईना” निसाई जज़्बात-ओ-एहसासात से मुज़य्यन एक बहुत बा-मानी नज़्म है जिसमें एक ऐसी औरत की ज़िंदगी और शिकस्त का बयान है जो अपना सब कुछ खो चुकी है और उसके दिल में दर्द का अथाह समुंदर है जो एक मोहब्बत आमेज़ जज़्बे की शक्ल में उसकी आख़िरी दौलत के तौर पर बाक़ी है
इस नज़्म में बयान की सादगी में बला की फ़नकारी है और पढ़ने से तअल्लुक़ रखती है कि बाज़ औक़ात कोई मिसरा, कोई जुमला आपको दर्द की गहराई का पता देता है।
मेरे पास नहीं था कुछ भी
बस एक जज़्बा, दर्द को छूने और समझने वाला जज़्बा
प्यार ख़ज़ाना था जो मेरा
सो मैंने वो भिक्षा दे दी
“ख़्वाबज़ार” एक बहुत ख़ूबसूरत और बेहतरीन नज़्म है जिसमें शायर ने अपने ख़्वाब (जो दरअस्ल अपनी निजी बातों, बचपन और ग़रीब-उल-वतनी के ज़िक्र से भरे हुए हैं) अबवाब की तरह छोटे-छोटे नज़्म-पारों की शक्ल में देखे यानी लिखे हैं। यहाँ हम देखते हैं कि बादल, सात समुंदर, दरिया, जंगल, मुल्क, नगर, परबत, सीमाएँ सब दूरी के तिलिस्म से पैदाशुदा ख़्वाब हैं जिनमें अपनी ज़मीन से बेतहाशा मोहब्बत का बयान बड़ी तासीर से किया गया है।
“डरती हूँ मैं खो जाऊँगी
ऊँचाई से गिर जाऊँगी
मूरत बन कर किसी ताक़ में रह जाऊँगी”
“भाई की क्रिकेट का बल्ला
बाजी के आँचल की बेल
आँख खुले तो सारा कमरा झिलमिल-झिलमिल करता है
याद धनक,मिट्टी की ख़ुश्बू
अम्मी-अब्बू वाले ख़्वाब”
“कहीं दूर से आए मुसाफ़िर
जल्दी वापस जाना है
गले लगा लूँ, छूना चाहूँ, जाने कहाँ खो जाते हैं
आँख खुले
तो दिल रुक जाए, हाथ बढ़ा रह जाता है”
ये तहरीर मोहतरमा अज़रा नक़वी साहिबा के शेरी-मजमूए “दिल के मौसम” से उनकी नज़्मों पर लिखी गई है।
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