दीवान और कुल्लियात का फ़र्क़
दीवान से मुराद किसी शाइर की किसी किताब में ग़ज़लों की ता’दाद से नहीं होती। या’नी दीवान ग़ज़लों की उस किताब को नहीं कहते, जिसमें सफ़हों की ता’दाद या उसकी मोटाई ज़ियादा हो बल्कि दीवान शाइर की उस किताब को कहते हैं, जिसमें बा-क़ाएदा किताब की पहली ग़ज़ल की रदीफ़ का (अगर किसी ग़ज़ल में रदीफ़ नहीं है, तो उसके क़ाफ़िए का) आख़िरी हर्फ़ अलिफ़ ‘अ’ (ا ) होता है और आख़िरी ग़ज़ल की रदीफ़ का आख़िरी हर्फ़ बड़ी ‘ये’ (ے) होता है।
कहने का मतलब है, कि पहली ग़ज़ल की रदीफ़ का आख़िरी हर्फ़ अलिफ़ ‘अ’ (ا) फिर वो तमाम ग़ज़लें जिनकी रदीफ़ का आख़िरी हर्फ़ अलिफ़ ‘अ’ (ا) है, उसके बा’द वो ग़ज़लें जिनकी रदीफ़ का आख़िरी हर्फ़ बे ‘ब’ (ب) है, फिर पे ‘प’ (پ), फिर से ‘स’ (ث) और इसी तरह से हर्फ़-ए-तहज्जी में हर्फ़ों की तरतीब को फ़ॉलो करते हुए आख़िर में वो तमाम ग़ज़लें जिनकी रदीफ़ के आख़िरी हर्फ़ बड़ी ‘ये’ (ے) पर ख़त्म होते हैं।
मुख़्तसर ये कि रदीफ़ के हर्फ़- ए-आख़िर की जानिब से ग़ज़लों का Alphabetical index, तरतीब या अनुक्रम दीवान कहलाता है। ये बात और है कि एडिटर जब किसी शाइर के उर्दू के दीवान को देवनागरी या दीगर ज़बानों में शाइअ करते हैं, तो क़ारईन (readers) की सहूलत के मुताबिक़ या तो उससे कुछ ग़ज़लें हटा लेते हैं या उनकी तरतीब बदल देते हैं।
मिसाल के तौर पर ग़ालिब के दीवान या’नी अस्ल ‘दीवान-ए-ग़ालिब’ में ग़ज़लों की तरतीब देखते हैं:
अलिफ़ ‘अ’ (ا) ग्रुप के हर्फ़ों पर ख़त्म वाली रदीफ़ों की ग़ज़लों में;
दीवान की पहली ग़ज़ल का मतलअ-
नक़्श फ़रियादी है किस की शोख़ी- ए- तहरीर का
काग़ज़ी है पैरहन हर पैकर- ए- तस्वीर का
दूसरी ग़ज़ल का मतलअ-
जुनूँ गर्म इन्तेज़ार- ओ- नाला बेताबी कमन्द आया
सुवैदा ता ब- लब ज़ंजीर से दूद- ए- सिपन्द आया
तीसरी ग़ज़ल का मतलअ-
आलम जहाँ ब- अर्ज़- ए- बिसात- ए- वजूद था
जूँ सुब्ह चाक- ए- जेब मुझे तार- ओ- पूद था
चौथी ग़ज़ल का मतलअ-
कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया
दिल कहाँ कि गुम कीजे हम ने मुद्दआ पाया
पाँचवीं ग़ज़ल का मतलअ-
दिल मिरा सोज़- ए- निहाँ से बे- मुहाबा जल गया
आतिश- ए- ख़ामोश की मानिन्द गोया जल गया
यहाँ हर एक ग़ज़ल की रदीफ़ ऐसी है, जिसका आख़िरी हर्फ़ अलिफ़ (ا) है।
पहली ग़ज़ल का आख़िरी लफ़्ज़ है ‘का’ (کا) या’नी काफ़ (ک) फिर अलिफ़ (ا), तो आख़िरी हर्फ़ हुआ अलिफ़ (ا), दूसरी का भी ‘का’ है इसी तरह से तीसरी, चौथी, पाँचवीं समेत दीवान में अलिफ़ (ا) रदीफ़ पर ख़त्म होने वाली कुछ 48 ग़ज़लें हैं।
अड़तालीसवीं ग़ज़ल का मतलअ-
इशरत- ए- क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
आख़िरी लफ़्ज़ ‘ना’ (نا) या’नी नून (ن) फिर अलिफ़ (ا)
बे ‘ब’ (ب) ग्रुप के हर्फ़ों पर ख़त्म वाली रदीफ़ों की ग़ज़लों में;
पहली और दीवान की उंचासवीं ग़ज़ल का मतलअ-
फिर हुआ वक़्त कि हो बाल-कुशा मौज- ए- शराब
दे बत- ए- मय को दिल- ओ- दस्त- ए- शना मौज- ए- शराब
इस ग़ज़ल की रदीफ़ है शराब (شراب) या’नी शीन ‘श’ (ش) फिर रे ‘र’ (ر) फिर अलिफ़ (ا) और आख़िर में बे ‘ब’ (ب), तो आख़िरी हर्फ़ हुआ बे ‘ब’ (ب) या’नी हर्फ़- ए- तहज्जी का दूसरा हर्फ़।
पचासवीं ग़ज़ल का मतलअ शाएद अभी तक शाइअ नहीं हुआ है लिहाज़ा उसका शे’र, जिसकी रदीफ़ ते ‘त’ (ت) पर ख़त्म होती है:
अफ़्सोस कि दन्दाँ का किया रिज़्क़ फ़लक ने
जिन लोगों की थी दर- ख़ुर- ए- अक़्द- ए- गुहर अंगुश्त
अंगुश्त (انگشت)- अलिफ़ ‘अ’ (ا), नून ‘न’ (आधा) (ن), शीन ‘श’ (ش) फिर ते ‘त’ (ت)
दीवान- ए- ग़ालिब में ते ‘त’ (ت) पर ख़त्म होने वाली कुल 4 ग़ज़लें हैं।
ते ‘त’ (ت) पर ख़त्म होने वाली चौथी और दीवान की तिरपनवीं ग़ज़ल का मतलअ:
आमद- ए- ख़त से हुआ है सर्द जो बाज़ार- ए- दोस्त
दूद- ए- शम- ए- कुश्ता था शायद ख़त- ए- रुख़्सार- ए- दोस्त
आप देख सकते हैं, कि यहाँ रदीफ़ का आख़िरी लफ़्ज़ ‘दोस्त’ और उसका आख़िरी हर्फ़ ते या’नी ‘त’ (ت) है।
जीम ‘ज’ (ج) ग्रुप के हर्फ़ों पर ख़त्म वाली रदीफ़ों की ग़ज़लों में-
पहली और दीवान की चौवनवीं ग़ज़ल का मतलअ:
गुलशन में बन्द- ओ- बस्त ब- रंग- ए- दिगर है आज
क़ुमरी का तौक़ हल्क़ा- ए- बैरून- ए- दर है आज
इस मतले की रदीफ़ का आख़िरी लफ़्ज़ ‘आज’ (آج) और आख़िरी हर्फ़ जीम ‘ज’ (ج) है।
आख़िरी और दीवान की छप्पनवीं ग़ज़ल का मतलअ:
नफ़स न अंजुमन- ए- आरज़ू से बाहर खींच
अगर शराब नहीं इन्तेज़ार- ए- साग़र खींच
इस मतले की रदीफ़ ‘खींच’ (کھینچ) है जिसका आख़िरी हर्फ़ चे ‘च’ (چ) है।
दाल ‘द’ (د) ग्रुप के हर्फ़ों पर ख़त्म होने वाली रदीफ़ों की ग़ज़लों में-
पहली और दीवान की सन्तावनवीं ग़ज़ल का मतलअ:
हुस्न ग़म्ज़े की कशाकश से छुटा मेरे बा’द
बारे आराम से हैं अहल- ए- जफ़ा मेरे बा’द
ज़ाहिर है इस मतले की रदीफ़ ‘मेरे बा’द’ का आख़िरी लफ़्ज़ ‘बाद’ (بعد) और उसका आख़िरी हर्फ़ दाल ‘द’ (د) है।
दूसरी और दीवान की अन्ठावनवीं ग़ज़ल का मतलअ:
बला से हैं जो ये पेश- ए- नज़र दर- ओ- दीवार
निगाह- ए- शौक़ को हैं बाल- ओ- पर दर- ओ- दीवार
इस मतले की रदीफ़ ‘दर- ओ- दीवार है’, जिसका आख़िरी लफ़्ज़ दीवार (دیوار) और दीवार का आख़िरी हर्फ़ रे ‘र’ (ر) है।
तीसरी और दीवान की छियासठवीं ग़ज़ल का मतलअ:
लाज़िम था कि देखो मिरा रस्ता कोई दिन और
तन्हा गए क्यूँ अब रहो तन्हा कोई दिन और
इस मतले की रदीफ़ ‘कोई दिन और’ का आख़िरी लफ़्ज़ ‘और’ (اور) है। ज़ाहिर है ‘कोई दिन और’ का भी आख़िरी हर्फ़ रे ‘र’ (ر) है और रे ‘दाल’ ग्रुप के हर्फ़ों में चौथे नम्बर का हर्फ़ है।
आख़िरी और दीवान की इकहत्तरवीं ग़ज़ल का मतलअ:
न गुल- ए- नग़्मा हूँ न पर्दा- ए- साज़
मैं हूँ अपनी शिकस्त की आवाज़
इस मतले में रदीफ़ नहीं है लिहाज़ा इसके क़ाफ़िए का आख़िरी हर्फ़ देखा जाएगा जो, कि ज़े ‘ज़’ (ز) है और ज़े, ‘दाल’ ग्रुप के हर्फ़ों में छटवें नम्बर का हर्फ़ है।
सीन ‘स’ (س) ग्रुप के हर्फ़ों पर ख़त्म वाली रदीफ़ों की ग़ज़लों में-
पहली और किताब की बहत्तरवीं ग़ज़ल का मतलअ कहीं शाइअ नहीं हुआ है लिहाज़ा उसका एक शे’र:
मुज़्दा ऐ ज़ौक़- ए- असीरी कि नज़र आता है
दाम- ए- ख़ाली क़फ़स- ए- मुर्ग़- ए- गिरफ़्तार के पास
ग़ज़ल के बाक़ी के अशआर को मद्द- ए- नज़र रखते हुए मा’लूम होता है, कि इसकी रदीफ़ ‘के पास’ है और के पास का आख़िरी लफ़्ज़ ‘पास’ (پاس) है और पास का आख़िरी हर्फ़ सीन ‘स’ (س) है।
दूसरी और किताब की तिहत्तरवीं ग़ज़ल का मतलअ भी कहीं शाइअ नहीं हुआ है लिहाज़ा उसका भी एक शे’र:
न लेवे गर ख़स- ए- जौहर तरावत सब्ज़ा- ए- ख़त से
लगाए ख़ाना- ए- आईना में रू- ए- निगार आतिश
इस ग़ज़ल के भी बाक़ी के अशआर देखने पर मा’लूम होता है, कि इसका रदीफ़ ‘आतिश’ (آتش) है, जिसका हर्फ़- ए- आख़िर शीन ‘श’ (ش) है और शीन, सीन ग्रुप के हुरूफ़ में दूसरे नम्बर का हर्फ़ है।
ऐन ‘अ’ (ع) ग्रुप के हर्फ़ों पर ख़त्म वाली रदीफ़ों की ग़ज़लों में-
पहली और दीवान की चौहत्तरवीं ग़ज़ल का मतला:
जादा- ए- रह ख़ुर को वक़्त- ए- शाम है तार- ए- शुआअ
चर्ख़ वा करता है माह- ए- नौ से आग़ोश- ए- विदाअ
इस मतले में रदीफ़ नहीं है, लिहाज़ा इसके भी क़ाफ़िए का आख़िरी हर्फ़ देखा जाएगा जो, कि शुआअ (شعاع) या विदाअ (وداع) में ऐन ‘अ’ (ع) है।
दूसरी और दीवान की तिरासी नम्बर की ग़ज़ल के बग़ैर मतले के फ़क़त दो ही शे’र पढ़ने को मिलते हैं। वो दोनों शे’र:
मुझ को दयार- ए- ग़ैर में मारा वतन से दूर
रख ली मिरे ख़ुदा ने मिरी बेकसी की शर्म
वो हल्क़ा- हा- ए- ज़ुल्फ़ कमीं में हैं या ख़ुदा
रख लीजो मेरे दावा- ए- वारस्तगी की शर्म
इन दोनों अशआर से मा’लूम पड़ता है, कि इनका रदीफ़ ‘की शर्म’ (کی شرم) है। की शर्म का आख़िरी लफ़्ज़ शर्म (شرم) और शर्म का आख़िरी हर्फ़ मीम ‘म’ (م) है, जो कि ऐन ‘अ’ (ع) ग्रुप के हुरूफ़ में आठवें नम्बर का हर्फ़ है।
आख़िरी और दीवान की एक सौ सोलहवीं ग़ज़ल का मतलअ:
ग़ुंचा- ए- ना- शगुफ़्ता को दूर से मत दिखा कि यूँ
बोसे को पूछता हूँ मैं मुँह से मुझे बता कि यूँ
इस मतले का रदीफ़ ‘कि यूँ’ (کہ یوں) है जिसका आख़िरी हर्फ़ हिन्दी के मुताबिक़ अनुस्वार और उर्दू के मुताबिक़ नून ग़ुन्ना (ں) जिसे यहाँ नून (ن) के तौर पर देखा जाएगा जो, कि ऐन ‘अ’ (ع) ग्रुप का आख़िरी हर्फ़ है।
वाओ ‘व’ (و) ग्रुप के हर्फ़ों पर ख़त्म होने वाली रदीफ़ों की ग़ज़लों में-
पहली और दीवान की एक सौ सत्रहवीं ग़ज़ल का मतलअ:
हसद से दिल अगर अफ़्सुर्दा है गर्म- ए- तमाशा हो
कि चश्म- ए- तंग शायद कसरत- ए- नज़्ज़ारा से वा हो
इस मतले की रदीफ़ लफ़्ज़ ‘हो’ (ہو) है जिसका पहला हर्फ़ छोटी हे ‘ह’ (ہ) और आख़िरी हर्फ़ वाओ ‘व’ (و) है।
वाओ ‘व’ (و) ग्रुप के हर्फ़ों पर ख़त्म होने वाली रदीफ़ों की ग़ज़लों में आख़िरी और दीवान की भी आख़िरी ग़ज़ल का मतलअ:
नवेद-ए-अम्न है बे-दाद-ए-दोस्त जाँ के लिए
रही न तर्ज़-ए-सितम कोई आसमाँ के लिए
इस मतले की रदीफ़ ‘के लिए’ (کے لئے) है जिसका आख़िरी लफ़्ज़ लिए (لئے) और लिए का आख़िरी हर्फ़ बड़ी ए (ے) जो न केवल वाओ ‘व’ (و) ग्रुप के हरूफ़ का आख़िरी हर्फ़ है बल्कि हर्फ़- ए- तहज्जी का भी आख़िरी हर्फ़ है।
नोट- इस तरतीब में तमाम हुरूफ़ ऐसे भी थे जिन पर ख़त्म होने वाली ग़ज़लें दीवान में नहीं मिलती हैं इसकी दो वज्ह हैं। एक ये कि ग़ालिब का बहुत सारा कलाम अभी या तो पूरा-पूरा बरामद नहीं हुआ है और हुआ है तो शाइअ नहीं हुआ है। दूसरी वज्ह अहम् है और वो ये कि हर एक हर्फ़ पर ख़त्म होने वाली रदीफ़ ज़रूरी नहीं कि शाइर के मिज़ाज के मुताबिक़ हो, लिहाज़ा बाज़ दफ़आ ऐसा ही होता है, कि उन पर ग़ज़लें नहीं कही जा सकती हैं।
मज्मूआ: मज्मूआ दीवान को नहीं कहते बल्कि काव्य संग्रह (Poetry collection) को कहते हैं, जिसमें रदीफ़ में हरूफ़ की तरतीब की कोई शर्त नहीं होती।
कुल्लियात: शाइर के समग्र साहित्य संग्रह (Composite literature collection) को कहते हैं। या’नी जब शाइर के कुल जमअ कलाम को एक किताब की शक्ल दी जाती है, जिसमें उसकी ग़ज़लें, नज़्में, रुबाइयाँ, मसनवी, मर्सिए, क़तआत और मुख़्तलिफ़ अशआर मिला कर सब कुछ शाइअ होता है, तो इस को कुल्लियात कहा जाता है।
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