फ़िराक़ गोरखपुरी होने का मतलब
फ़िराक़ गोरखपुरी पिछली सदी के सबसे जीनियस शायर हैं। फ़िराक़ से पहले जीनियस लफ़्ज़ के मुसतहिक़ ग़ालिब नज़र आते हैं। ग़ालिब और फ़िराक़ में एक बात और कॉमन है। वो है इन दोनों की नस्र। अगर आप इन दोनों की नस्र पढ़ें तो थोड़ी देर को ही सही, आपका ईमान इनकी शायरी से हिल जाएगा और आप इन्हें शायर से अच्छा नस्र निगार मानने पर मजबूर हो जाएंगे। ग़ालिब के यहां जो फ़लसफ़ा है उसका सर-चश्मा ग़ालिब से पहले की फारसी शायरी है। जबकि फ़िराक़ के फ़लसफ़े की रोशनी अंग्रेज़ी साहित्य और हिंदुस्तानी दर्शन से हासिल हुई है।
एक सवाल ज़हन में उभरता है कि हम फ़िराक़ को क्यों पढ़ें? इस सवाल का मेरे पास जवाब यह है कि अगर आप रिवायत की पगडंडियों को न छोड़ते हुए जदीद रास्तों की तलाश में निकलना चाहते हैं तो फ़िराक़ इस सिलसिले का पहला पुल साबित होते हैं। इस मरहले में हमारे लिए यह लाज़िम है कि हम फ़िराक़ को पढ़ें और बार-बार पढ़ें। फ़िराक़ के यहां आलमी अदब, ख़ासतौर पर अंग्रेज़ी अदब और भारतीय दर्शन आपस में ऐसे घुल मिल गए हैं कि हमें एहसास ही नहीं होता कि हम दूसरी ज़बानों में भारतीय दर्शन पढ़ रहे हैं या भारतीय दर्शन में दूसरी ज़बानों का अदब दर आया है। फ़िराक़ ने शायरी की रवायती ज़बान को जहां आसान किया है वहीं ख़याल की की परतें और ज़्यादा पेचीदा कर दी हैं-
बहुत दिनों में मोहब्बत को ये हुआ मा’लूम
जो तेरे हिज्र में गुज़री वो रात रात हुई
ज़िंदगी क्या है आज इसे ऐ दोस्त
सोच लें और उदास हो जाएँ
मैं हूँ दिल है तन्हाई है
तुम भी होते अच्छा होता
इन अशआर की ज़बान देखें और ख़याल की परतें देखें। ज़बान ऐसी सादा है कि जैसे बात मुंह से निकलती है और गुमां होता है कि इतनी आसान बात तो कोई भी शेर गढ़ने वाला कह दे, मगर ख़याल ऐसा पेचीदा कि जितना सोचें उतनी पेचीदगी में इज़ाफ़ा हो। यही फ़िराक़ का जीनियस है।
अपने हम-अस्त्रों इक़बाल, फ़ानी, हसरत, असग़र, जिगर, यगाना, जोश, फ़ैज़ जैसे बड़े और बा-कमाल शायरों की शायरी पर बात करते हुए और मुतास्सिर होते हुए भी अपनी ज़हानत, इल्मियत और मुताले के बल पर अपनी सोच और बयान का हैरतअंगेज़ जहाने-शेर तैयार करने और उस पर ग़ुरूर करने के सलीक़े ने फ़िराक़ को नायाब कर दिया है।
फ़िराक़ ने रात, ज़िन्दगी और इंतज़ार से क्या क्या काम लिया है और क्या क्या रंग भरे हैं। देखने से ताल्लुक़ रखता है –
तेरे आने की क्या उमीद मगर
कैसे कह दूँ कि इंतिज़ार नहीं
कोई आया न आएगा लेकिन
क्या करें गर न इंतिज़ार करें
ग़रज़ कि काट दिए ज़िंदगी के दिन ऐ दोस्त
वो तेरी याद में हों या तुझे भुलाने में
इसी खंडर में कहीं कुछ दिए हैं टूटे हुए
इन्हीं से काम चलाओ बड़ी उदास है रात
मौत का भी इलाज हो शायद
ज़िंदगी का कोई इलाज नहीं
ज़िंदगी क्या है आज इसे ऐ दोस्त
सोच लें और उदास हो जाएँ
फ़िराक़ ने अपने वक़्त से आगे की ज़बान में शायरी करके यह साबित किया कि फ़िराक़ का रंग, फ़िराक़ का ही रंग है। उसमें किसी दूसरे रंग की मिलावट नहीं है। फ़िराक़ ने जिस ज़बान को अपने शेरी इज़हार का ज़रिया बनाया वो ज़बान न उन्हें अपने हम अस्रों के और न अपने से पहले के सबसे ज़हीन शायर ग़ालिब के क़रीब करती है बल्कि उन्हें ख़ुदा-ए-सुख़न मीर के क़रीब करती है। देखिए –
हम से क्या हो सका मोहब्बत में
ख़ैर तुम ने तो बेवफ़ाई की
अब तो उन की याद भी आती नहीं
कितनी तन्हा हो गईं तन्हाइयाँ
कौन ये ले रहा है अंगड़ाई
आसमानों को नींद आती है
फ़िराक़ के फ़लसफ़े और उनकी दरवेशी के असली दर्शन उनकी ग़ज़लों में नहीं बल्कि उनकी रुबाइयात में होते हैं। हर सिन्फ़ में हर शायर ख़ुद का इज़्हार नहीं कर सकता। हर सिन्फ़ का अलग मिज़ाज होता है। रुबाई कहते हुए फ़िराक़ बिल्कुल जुदा शायर नज़र आते हैं। यह रंग उनके आध्यात्म और दर्शन को बयान करता हुआ रंग है-
पनघट पे गगरियाँ छलकने का ये रंग
पानी हचकोले ले के भरता है तरंग
काँधों पे सरों पे दोनों हाथों में कलस
मद अँखड़ियों में सीनों में भरपूर उमंग
जब किरनें हिमालिया की चोटी गूँधें
सोए हुए आबशार आँखें खोलें
जब कंचन नीर सी झलकती हो फ़ज़ा
ऐसे में काश तिरी आहट पाएँ
हर जल्वे से इक दर्स-ए-नुमू लेता हूँ
लबरेज़ कई जाम-ओ-सुबू लेता हूँ
पड़ती है जब आँख तुझ पर ऐ जान-ए-बहार
संगीत की सरहदों को छू लेता हूँ
महताब में सुर्ख़ अनार जैसे छूटे
या क़ौस-ए-क़ुज़ह लचक के जैसे टूटे
वो क़द है कि भैरवीं सुनाए जब सुब्ह
गुलज़ार-ए-इश्क़ से नर्म कोंपल फूटे
पाते जाना है और न खोते जाना
हँसते जाना है और न रोते जाना
अव्वल और आख़िरी पयाम-ए-तहज़ीब
इंसान को इंसान है होते जाना
यह भारतीय दर्शन है। इसमें किसी दूसरी तहज़ीब का कोई अक्स दिखाई नहीं देता। इसमें असरार की ऐसी परतें हैं कि दिल खिंचता हुआ महसूस होता है। रुबाई वाले फ़िराक़ ग़ज़ल वाले फ़िराक़ से ज़्यादा बड़े शायर नज़र आते हैं। मगर अगले ही पल यह नज़रिया भी तब्दील करने का जी चाहता है जब फ़िराक़ की नस्र से गुज़रना होता है। नस्र और तनक़ीद वाले फ़िराक़ अपने वक़्त के नक़्क़ादो को हैरान करते हुए दिखाई देते हैं। कुल्लियाते-मीर में हर बड़े नक़्क़ाद ने मीर साहब को समझने और उनको समझाने में, उनकी शायरी और शख़्सियत के राज़ पाने में अपनी सारी हुनरमन्दी ख़र्च कर दी है और अपनी तन्क़ीदी बसीरत का लोहा मनवाया है, मगर फ़िराक़ ने मीर साहब के लिए जिस अक़ीदत का इज़हार किया है और जिस नियाज़मन्दी से मीर साहब की शायरी के असरात को क़ुबूल किया है, उसकी कोई मिसाल नहीं मिलती। फ़िराक़ ने ग़ज़ल के बारे में जितना लिखा है, सिर्फ़ वो ही उन्हें आलमी अदब में आला मक़ाम दिलाने के लिए काफ़ी है।
फ़िराक़ मेरी नज़र में वो नाम है कि जिसे अगर हटा दिया जाए तो शायरी में रिवायत और जदीदियत का रिश्ता तो कमज़ोर होगा ही, साथ ही साथ शायरी को समझने और उस पर बात करने की तरबियत भी कहीं गुम हो जाएगी।
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