Ghalib Kaun Hai

जब मीर ने ग़ालिब के बारे में एक अजीब बात कही

पूछते हैं वो कि ‘ग़ालिब’ कौन है
कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या

अदबी तारीख़ में ऐसा कोई वक़्त और ऐसा कोई अहद नहीं गुज़रा जब ग़ालिब को शुमार किए बग़ैर उर्दू शाइरी पर कोई बात की जा सके। बहरहाल ग़ालिब पर आगे गुफ़्तगू करने से पहले ग़ालिब के इसी शे’र पर कुछ देर ठहर कर देख लेते हैं कि किस तरह से इस सवाल पर कि ‘ग़ालिब कौन है’ वो कितनी आसानी से ये उलझा हुआ जवाब देकर मुस्कुराए होंगे। ‘कोई बतलाओ’ कि ‘हम बतलाएँ क्या’? ग़ालिब कहते हैं कि:

कोई इन्हें बताओ कि ग़ालिब कौन है या हमें ही ये बतलाना पड़ेगा कि ग़ालिब कौन है। इसी शे’र में दूसरा पहलू यूँ भी कि,

कोई इन्हें बतलाओ कि ग़ालिब कौन है, अब हम उससे क्या बताएँ कि जो ग़ालिब ही से पूछ रहा हो कि ग़ालिब कौन है। बहुत ग़ौर करें तो इसी शे’र में ग़ालिब निराश हो कर ये कहते हुए भी नज़र आते हैं कि- ”वो हमसे पूछ रहे हैं कि ग़ालिब कौन है तो कोई हमीं को बतलाओ कि हम क्या बतलाएँ कि हम (ग़ालिब) कौन हैं। गो कि ग़ालिब के नाम का मक़ाम ही क्या है वर्ना किसी को यह पूछना ही कहाँ पड़ता कि ग़ालिब कौन है।

ग़ालिब का तज़्किरा निकालें तो ग़ालिब के दादा ‘मिर्ज़ा क़ौक़ान बेग ख़ान’, एक तुर्क थे, जो ‘सल्जूक़ सल्तनत’ के पतन के बाद समरक़न्द (उज़्बेकिस्तान) में जा बसे थे उसके बा’द अहमद शाह की हुकूमत के दौरान समरक़न्द से आकर हिन्दुस्तान में पहले लाहौर, दिल्ली फिर जयपुर के बाद आगरा में आकर रहने लगे थे। ग़ालिब के वालिद का नाम ‘मिर्ज़ा अब्दुल्लाह बेग ख़ान’ और उनकी माँ का नाम ‘इज़्ज़तुन-निसा बेगम’ था।

ग़ालिब ने ‘उर्दू’, ‘फ़ारसी’ और ‘अरबी’ का इल्म बहुत कम उम्र ही में हासिल कर लिए था और ‘टर्किश’ तो उनके घर में बोली जाने वाली ज़बान थी। ग़ालिब ग्यारह साल की उम्र से शे’र कहने लगे थे। एक वाक़िआ है कि जब ‘मीर तक़ी मीर’ की नज़र से ग़ालिब का कोई शे’र गुज़रा तो वो बोले कि ‘इसे अगर कोई अच्छा उस्ताद मिल जाए तो ये अच्छे शे’र कहने लगेगा वर्ना यह ऊल- जुलूल शाइरी करेगा।’ बावजूद इसके ग़ालिब ने (शाएद) कभी किसी उस्ताद या शाइर से अपने शे’र ठीक नहीं करवाए। हालाँकि ‘अल्ताफ़ हुसैन हाली’ नाम के (उर्दू शाइरी का एक अहम् नाम) ग़ालिब के एक शागिर्द ज़रूर थे।

ग़ालिब का शे’री सफ़र लगभग सूफ़ियाना और फ़लसफ़े का रहा लेकिन ऐसा भी नहीं है कि ग़ालिब महबूब से बोसा पाने की उम्मीद में या उसकी ज़ुल्फ़ों के पेच-ओ-ख़म से दो-चार न हुए हों और यूँ भी नहीं है कि वो अपनी शाइरी के हवाले से शरारती नहीं रहे हैं:

क्या ख़ूब तुम ने ग़ैर को बोसा नहीं दिया
बस चुप रहो हमारे भी मुँह में ज़बान है

ग़ालिब अपने महबूब से नाराज़गी दर्ज कराते हुए तंज़ कसते हुए कहते हैं कि बहुत अच्छी बात है कि तुमने ग़ैर को बोसा नहीं दिया लेकिन चुप रहो कि हक़ीक़त मुझे भी मा’लूम है।

कहा तुम ने कि क्यूँ हो ग़ैर के मिलने में रुस्वाई
बजा कहते हो सच कहते हो फिर कहियो कि हाँ क्यूँ हो

यहाँ भी ग़ालिब मासूमियत से रूठते हुए अपनी माशूक़ा से कहते हैं कि तुमने ठीक ही कहा है, सच ही कहा है कि ग़ैर से मिलने पर रुस्वाई (बदनामी) की क्या बात है लेकिन यही बात ज़रा (फिर से कहियो) दोबारा कहो।

ग़ालिब की तमाम उम्र हादिसों और अज़ाब से घिरी रही एक तरफ़ जहाँ उनकी सात औलादें बोल पाने की मामूली उम्र से क़ब्ल ही मौत के आग़ोश में चली गईं, वहीं वो तंगी-ए-हालात का शिकवा करते हुए यूँ कहते हैं:

गिला है शौक़ को दिल में भी तंगी-ए-जा का
गुहर में महव हुआ इज़्तिराब दरिया का

या’नी ग़ालिब के शौक़ को (लालसा, उत्कंठा, उत्साह, इच्छा, प्रेम) को दिल में भी जगह के कम होने का अफ़सोस है कि ज़रा से मोती में तमाम नदी की बेचैनी समा गई है। इस तमाम शे’र में सबसे अहम् और क़ाबिल-ए-ग़ौर लफ़्ज़ है ‘भी’ (दिल में भी) गो कि दिल तो वो समन्दर है जहाँ दुनिया भर के सुख-दुःख, बेचैनियाँ, अफ़सोस, हैरतें उम्र भर आसानी से अपनी जगह बनाते हुए हमेशा के लिए क़ाबिज़ बने रहते हैं और ग़ालिब की बेचैनियों की हद ने उनके दिल की जगह को ला-महदूद से महदूद पर ला कर खड़ा कर दिया है।

‘असद’ ज़िन्दानी-ए-तासीर-ए-उल्फ़त-हा-ए-ख़ूबाँ हूँ
ख़म-ए-दस्त-ए-नवाज़िश हो गया है तौक़ गर्दन में

ग़ालिब कहते हैं कि मैं हसीनाओं के इश्क़ के असर का क़ैदी हूँ और यूँ कि मेरी जानिब बढ़ने वाला उनका ए दस्त-ए-नवाज़िश का घेरा गले में फन्दे की मानिन्द हो गया है।

ग़ालिब के हवाले से धीरे-धीरे शाएद हम पर ये खुल रहा है कि न ही शाइर की कोई तयशुदा ज़बान होती है न शाइर का कोई रंग कोई रस होता है बल्कि रस तो उसकी शाइरी का होता है। अपनी मुश्किल ज़बान के लिए मशहूर ग़ालिब ने आसान और आम ज़बान में शे’र कहने से भी कभी गुरेज़ नहीं किया।

वो कहते हैं:

मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूँ

आसान ज़बान और आसान मफ़्हूम कि जब भी जी चाहे तो मुझपर मेहरबान होकर मुझे कभी भी क़रीब बुला लेना। मैं कोई गुज़रा हुआ वक़्त नहीं हूँ जो दोबारा लौटकर नहीं आ सकता।

लेकिन ग़ालिब की इस आसानी में भी कोई कम दुश्वारी नहीं गुज़रती। जब वो कहते हैं:

गई वो बात कि हो गुफ़्तुगू तो क्यूँकर हो
कहे से कुछ न हुआ फिर कहो तो क्यूँकर हो

एक नज़रिए से देखें तो ग़ालिब ये कह रहे हैं कि वो दिन गए जब हम सोचते थे कि उनसे बात किस लिए की जाए जब कि बारहा बात करने से कुछ हासिल भी नहीं होता। इसी शे’र में एक पहलू यह भी निकलता है कि वो दिन तो बीत गए जब हम सोचा करते थे कि उनसे बात कैसे हो लेकिन अब जब उनसे बात होती है तो भी किसी भी बात का कोई भी मतलब नहीं निकलता है। तीसरा पहलू भी इसी शे’र में निहाँ है कि ‘गई वो बात’ या’नी ख़ैर जाने दो, मैं नहीं कहता कि उनसे मैं बात क्यूँ लेकिन यह बताओ कि उनसे बात करके अगर कुछ न हुआ तो बात करने का फ़ाएदा ही क्या है।

नश्व-ओ-नुमा है अस्ल से ‘ग़ालिब’ फ़ुरूअ को
ख़ामोशी ही से निकले है जो बात चाहिए

फ़ुरूअ‘ – शाख़.
नश्व-ओ-नुमा‘ – विकास, उन्नति, परवरिश

ग़ालिब के इस आसान शे’र में भी कितना बड़ा फ़लसफ़ा छुपा हुआ है।

वो कहते हैं कि शजर की शाख़ों का विकास उनकी परवरिश शजर की अस्ल या’नी जड़ों के ज़रीए होती है, वो जड़ें जो दिखाई नहीं देतीं हू ब-हू हर आवाज़ की बुनियाद ख़ामोशी होती है.

ग़ालिब से वाबस्ता एक आदत बहुत मशहूर है कि एक तो वो शराब बहुत पीते थे और दूसरा यूँ कि वो मस्जिद नहीं जाते थे। एक दफ़आ जब ग़ालिब मस्जिद के ज़ीने चढ़ ही रहे थे कि उनके घर उनके एक शागिर्द पहुँचे, जानकारी मिली कि ग़ालिब नमाज़ अदा करने मस्जिद की जानिब गए हैं। ग़ालिब मस्जिद के भीतर पहुँचते कि उससे क़ब्ल शागिर्द वहाँ पहुँच गए और दूर ही से उन्हें शराब की बोतल दिखाते हुए आवाज़ लगाते हैं, बोतल देखते ही ग़ालिब उलटे पाँव मस्जिद से पलटने लगे कि मस्जिद के ज़ाहिद ने शागिर्द से कहा कि ”मियाँ ग़ालिब अभी तो मस्जिद आए थे कि तुमने यह शुगूफ़ा छोड़ दिया” ग़ालिब ने मुस्कुराते हुए अर्ज़ किया कि ”मस्जिद की सीढ़ियाँ चढ़ने भर से जब दुआ क़ुबूल हो गई तो अल्लाह को बेजा परेशान करना ठीक नहीं”।

नफ़स न अंजुमन-ए-आरज़ू से बाहर खींच
अगर शराब नहीं इंतिज़ार-ए-साग़र खींच

आरज़ूओं (आकाँक्षा) की मज्लिस उनके मज्मे से एक नफ़स एक साँस भी बाहर न खींच, अगर खींचने के लिए शराब मयस्सर नहीं है, तो बेहतर है कि उसका इन्तज़ार खींच। इस शे’र से मा’लूम पड़ता है कि ग़ालिब की आरज़ू और अंजुमन-ए-आरज़ू एक शराब ही है कि अगर शराब नहीं तो उन्हें शराब का इन्तज़ार करना गवारा है बजाए इसके कि वो शराब पीने की तमन्ना न करें।

वही ग़ालिब यह भी कहते हैं कि:

तोड़ बैठे जब कि हम जाम-ओ-सुबू फिर हमको क्या
आसमाँ से बादा-ए-गुल्फ़ाम गो बरसा करे

जब हम शराब और शराब की सुराही तोड़ ही बैठे तो हमको क्या, अगर आसमाँ से शराब बरसती है, बरसती है तो बरसती रहे।

दम-ए-वापसीं बर-सर-ए-राह है
अज़ीज़ो अब अल्लाह ही अल्लाह है

शराब और जुए की लत के सबब लोग उन्हें काफ़िर पुकारने से भी गुरेज़ नहीं करते हैं लेकिन पढ़ने में आता है कि मरते वक़्त यह शे’र ग़ालिब की ज़बान पर था।

ज़िन्दगी का बाक़ी सफ़र अब आख़िरी एक साँस का है कि अब चार-सू जो दिखाई पड़ता है वो अल्लाह है!! अल्लाह ही अल्लाह है।

ग़ालिब अब हमारे दरमियाँ नहीं हैं लेकिन उन्हें याद करने के लिए वो हमारी जानिब से भी शे’र कहते हुए सुनाई पड़ते हैं:

‘हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया पर याद आता है
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता’

वाक़ई!!

कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़-ए-बयाँ और