Ghazal aur Nazm

ग़ज़ल बड़ी या नज़्म

एक बड़ी मशहूर बहस ग़ज़ल बड़ी कि नज़्म? लेकिन क्या ये बहस और ये मुवाज़ना दोनों ही किसी मतलब के हैं। कुछ लोग मानते हैं कि नज़्म, ग़ज़ल से बेहतर सिन्फ़ है क्यूँकि इस में बजाए ग़ज़ल के नए मौज़ूआ’त पैदा करने के मज़ीद इम्कानात हैं। उनका मानना है कि ग़ज़ल में एक सदी से कोई नया काम नहीं हो रहा है। वही पुरानी बातें, वही पुराने मज़्मून या’नी मान के चलें कि मीर (चलिए मीर के अलावा आप जिसे आख़िरी ग़ज़ल-गो समझते हैं वो) के दीवान के बा’द तमाम ग़ज़ल चर्बा है। बल्कि कहने को तो यहाँ भी कह दिया जाता है कि पाबन्द नज़्म और आज़ाद नज़्म से बेहतर इम्कानात नस्री नज़्म में हैं।

इस मज़्मून पर आगे बढ़ने से पहले नस्री नज़्म पर मुख़्तसर गुफ़्तगू कर लेते हैं।

नस्री नज़्म की ईजाद उर्दू अदब में बिल्कुल नई है। ग़ज़ल के साथ-साथ सफ़र कर रहीं तमाम तरह की पाबन्द नज़्मों के बा’द आई आज़ाद नज़्म फिर आई नस्री नज़्म।

किसी नई सिन्फ़ की ईजाद कोई बुरा अ’मल नहीं लेकिन उसकी ईजाद की ठीक-ठाक वजूहात भी हमारे नज़्दीक होना लाज़मी है। अगर नस्री नज़्म में भी उन्हीं मौजूआ’त को नज़्म किया जाएगा जो ग़ज़ल वग़ैरह में होते चले आए हैं तो इस सिन्फ़ का होना न होना एक सा है लेकिन अगर नस्री में ऐसे मौज़ूअ’ या ऐसे ख़यालात नज़्म किए जा रहे हैं या जाएँगे जिनको किसी शे’र की सूरत देना ना-मुम्किन है तब हम कह सकते हैं कि नस्री नज़्म की ईजाद कामयाब रही बहरहाल मेरा अपना मानना है कि पूरे उर्दू अदब (पद्य) में ग़ज़ल से बड़ी कोई विधा नहीं है। मज़्मून पिरोने से लेकर ख़यालात बयान करने की जो आज़ादी ग़ज़ल में है वह दीगर किसी सिन्फ़-ए-सुख़न में नहीं है। बल्कि नज़्म का सिलसिला ही ग़ज़ल से शुरू होता है।

लेकिन वह कैसे?

जैसा कि मैं ने इस तहरीर की इब्तिदा में अर्ज़ किया है कि ग़ज़ल के साथ-साथ जो सिन्फ़ भर-पूर वजूद में थी वह पाबन्द नज़्म थी और पाबन्द नज़्म की जितनी भी किस्में हैं जैसे-

मस्नवीः– (एक बड़ा खण्ड काव्य जिसमें एक दास्तान बयान की जाती है।)
क़सीदाः– (जिसमें किसी की ता’रीफ़ या मज़म्मत की जाती है।)
मर्सियाः– (मातम ज़ाहिर करने के लिए लिखा जाता है।)
नौहाः– (यह भी शोक व्यक्त करने के लिए लिखा जाता है।)
सहराः– (शादियों में पढ़ा जाता है।)

(पाबन्द नज़्म की और भी जितनी विधाएँ चाहे वह मुसद्दस हो या मुख़म्मस सबकी क़वाइ’द और ढाँचा ग़ज़ल से ही मिलता-जुलता है।)

आज़ाद नज़्म तो इन सब के बा’द बहुत बा’द लग-भग 1928 के आस-पास सहूलत और एक नए अमल के तौर पर आई।

नज़्म की बुनियादी शर्त होती है एक ही मौज़ूअ’ को बयान करना लेकिन क्या ग़ज़ल में ऐसा है? नहीं बिल्कुल नहीं। ग़ज़ल के तमाम अशआ’र अपने आप में मुख़्तलिफ़ मौज़ूअ’ पर होते हैं और क़ाबिल-ए-ग़ौर बात यह है कि ग़ज़ल का हर शे’र अपने आप में एक मुकम्मल नज़्म होता है या’नी कोई भी ग़ज़ल कम-अज़-कम पाँच मुख़्तलिफ़ नज़्मों का इज्तिमा’ है, तो फिर नज़्म बड़ी कैसे हुई?

एक तय-शुद बह्र, क़ाफ़िए, रदीफ़ (के अलावा भी तमाम तरह) की पाबन्दी निभाते हुए दो मिस्रों में बात कहना मुश्किल है या बहुत कम पाबन्दियों के साथ एक बात को सहूलत के हिसाब से कितने भी मिस्रों में कहना?

चलिए यह मान भी लिया जाए कि नज़्म बड़ी है और इसी लिए कि उस में बहुत कुछ नया कहने की गुंजाइश है तो कोई यह कैसे समझे कि जो शायर ग़ज़ल के लिए नए मौज़ूआ’त नहीं तलाश कर पा रहा है वह नज़्म के लिए इस कार-ए-दुश्वार को कैसे अंजाम देगा?