“हिंदुस्तान की हर ज़बान को एक गोपीचंद नारंग चाहिए।” कमलेश्वर
प्रोफ़ेसर गोपीचंद नारंग साहब का जाना किसी बड़ी शख़्सियत के जाने से ज़्यादा बड़ा सानिहा इसलिए है कि गोपीचंद नारंग सिर्फ़ बड़ी शख्सियत नहीं थे बल्कि वो जिस तहज़ीब के अलम-बरदार थे वो उनके साथ चली गई है। वो तहज़ीब बहुत तेज़ी से ख़त्म होती जा रही है। वो तहज़ीब सिर्फ उर्दू ज़बान की तहज़ीब नहीं है बल्कि हिंदुस्तान की हर ज़बान की तहज़ीब है। वो हिंदुस्तानी तहज़ीब है। लहजे की ऐसी नरमी वाली शख़्सियत जिस के कारनामे पहाड़ जैसे हों फिर भी उसकी टहनियां इतनी लचकदार हों! तसव्वुर से बालातर है। अमूमन ऐसा देखा जाता है जैसे-जैसे कोई शख़्स बड़ा होता जाता है। वैसे-वैसे उसमें अपने बड़े होने का ग़ुरूर भी बढ़ता चला जाता है। ज़्यादातर लोग इस ग़ुरुर को इन्किसार में बदल नहीं पाते सिर्फ़ बदलने का दिखावा करते हैं और अक्सर उनका यह झूठ बेनक़ाब हो जाता है। मगर गोपीचंद नारंग जिस तहज़ीब के अलम-बरदार थे वहां यह मुमकिन नहीं था कि उनकी किसी बात, उनके किसी रवय्ये से लम्हा भर को भी कभी ऐसा नहीं लगा कि वो अपने बड़े होने के ग़ुरूर में हैं। उनकी शख्सियत का यह बहुत नुमायां पहलू था वो अपनी ज़िंदगी के आख़िरी बरसों में भी गुफ़्तगू करते हुए इन्किसार और लहजे की नर्मी से सामने वाले को अपना मुरीद कर देते थे।
गोपीचंद नारंग साहब ने जो लिखा है, उस पर बात करना तो वाकई सूरज को चराग़ दिखाने के बराबर है, लेकिन उनकी गुफ़्तगू, उनकी तक़रीर सुनते हुए फ़राज़ का मिसरा बार-बार ज़हन में आता है –
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
और यह ख़्याल आते ही दूसरा मिसरा ख़्वाहिश में तब्दील हो जाता था –
ये बात है तो चलो बात करके देखते हैं
मगर ऐसी शख़्सियात से बाते नहीं की जातीं, उन्हें सिर्फ़ सुना जाता है। उन जैसी शाइस्ता और शगुफ़्ता उर्दू बोलने वाला अब कहां होगा कि वो जब पाकिस्तान जाते, पाकिस्तानी अदीब और अवाम उन पर यह इल्ज़ाम लगाते कि उन्होंने हमारी उर्दू ख़राब कर दी है। क्योंकि उन जैसी उर्दू वहां भी किसी को नसीब नहीं थी। नारंग साहब का इन्किसार का यह आलम था कि अपने आख़िरी लम्हों तक वो अपने आपको उर्दू का सिपाही, उर्दू का तालिब इल्म ही कहते रहे। चाहे साहित्य अकैडमी अवॉर्ड हो, पद्म भूषण हो, चाहे हिंदुस्तान और पाकिस्तान के सद्र से मिले हुए एज़ाज़ात हों यानी कोई भी सम्मान हो, ऐसा लगता है कि नारंग साहब को नवाज़ने के बाद सम्मान का ही वक़ार बढ़ा है।
प्रोफ़ेसर गोपीचंद नारंग जैसा अदीब, मुक़र्रिर, मुहक़्क़िक़, नक़्क़ाद और दानिशवर आइन्दा उर्दू जबान को मयस्सर नहीं होगा। नारंग साहब उर्दू के साथ जो सियासी ज़ियादती हुई उसके लिए हमेशा दुखी रहते थे। नारंग साहब कहते थे कि उर्दू को जो मार नसीब हुई है वो हिंदुस्तान की किसी ज़बान को नसीब नहीं हुई। तहरीके-आज़ादी में उर्दू का सबसे बड़ा रोल होने के बावजूद आज़ादी के बाद इस ज़बान को जो मज़हबी चोग़ा पहनाया गया, उसने इस सैकुलर ज़बान का बड़ा नुक़सान किया। नारंग साहब उर्दू को आज़ादी से पहले इस बर्रे-सग़ीर पर हुकूमत करने वाली ज़बान मानते थे और बाद में भी जुनूबी एशिया की बड़ी ज़बानों में से एक मानते थे। नारंग साहब कहते थे कि ज़बान का समाज होता है ज़बान का, मज़हब नहीं होता। इसलिए जब कोई समाज किसी ज़बान को बोलता है तो वो ज़बान उस समाज की ज़बान कहलाती है। किसी भी मज़हब की कोई ज़बान नहीं होती और न ही किसी ज़बान का कोई मज़हब होता है। नारंग साहब उर्दू और हिंदी के ताल्लुक़ पर बात करते हुए कहते थे कि हिंदी और उर्दू में गोश्त और नाखून का रिश्ता है जिसे कभी भी जुदा नहीं किया जा सकता।
इन्तिज़ार हुसैन साहब नारंग साहब के बारे में बात करते हुए कहते हैं – “नारंग साहब पाकिस्तान में जब भी आते थे और ख़िताब करते थे तो ऐसा लगता था कि पाकिस्तान से पूरा हिंदुस्तान ख़िताब कर रहा है। हिंदुस्तान से सिर्फ नारंग साहब ही ऐसी शख़्सियत थे जिसके बारे में यह कहा जा सकता है।”
कुर्रतुल ऐन हैदर उनके बारे में कहती थीं कि यूरोप में साहिबे नज़र लोगों को रेनेसां-मेन कहा जाता है। प्रोफेसर गोपीचंद नारंग हमारे रेनेसां-मेन हैं।
हिंदी के बड़े फिक्शन राइटर कमलेश्वर ने प्रोफेसर गोपीचंद नारंग के बारे में क्या तारीख़ी जुमला कहा “हिंदुस्तान की हर ज़बान को एक गोपीचंद नारंग चाहिए।”
गुलज़ार ने उनके बारे में कहा कि नारंग साहब का हाथ और उनकी उंगली उर्दू के साथ-साथ हिंदुस्तान की हर ज़बान की नब्ज़ पर हमेशा रहती है और वर्ल्ड लिटरेचर भी उनमें बहता हुआ महसूस होता है। इसी का सबब है कि उनका पर्सपेक्टिव इतना बड़ा है।
11 फरवरी 1931 को बलूचिस्तान के दुक्की में पैदा हुए गोपीचंद नारंग साहब की शुरुआती तालीम वहीं हुई, हाई स्कूल तक उनके पास साइंस थी। उनके वालिद साहब, धर्मचंद नारंग, जो खुद एक अच्छे अदीब थे, नहीं चाहते थे वो साइंस की पढ़ाई को छोड़ें। लेकिन उस वक़्त तक नारंग साहब उर्दू ज़बान-ओ-अदब में रम चुके थे। आज़ादी के बाद दिल्ली आकर उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी से एम. ए. उर्दू की डिग्री हासिल की। 1958 में अपनी पीएचडी की डिग्री मुकम्मल करने के बाद उन्होंने दो बरस सेंट स्टीफन कॉलेज में पढ़ाया। उसके बाद दिल्ली यूनिवर्सिटी में रीडर हो गए। दो बरस उन्होंने अमेरिका की विस्कंसिन यूनिवर्सिटी में पढ़ाने का काम किया और फिर वापस आकर जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में उर्दू के प्रोफेसर मुकर्रर हुए। इसके कुछ बरस बाद दोबारा दिल्ली यूनिवर्सिटी ज्वाइन की। यूनिवर्सिटी ने उन्हें प्रोफेसर एमिरेट्स मुक़र्रर किया।
नारंग साहब ने कितना लिखा और क्या-क्या लिखा इस पर भी कई किताबें लिखी जा सकती हैं। उनके अहम कामों में शुरुआत में उन्होंने एनसीईआरटी के लिए 12 किताबें निसाब की उन्होंने तैयार कीं। नेशनल काउंसिल फार प्रोमोशन आफ उर्दू लेंग्वेज के लिए चार किताबें जिसमें दो अंग्रेजी की ‘लेट्स लर्न उर्दू’ और दो हिन्दी की ‘उर्दू कैसे सीखें’ तैयार कीं। नारंग साहब की पांच दर्जन से ज़ायद किताबों में जो सबसे ज़्यादा तीन अहम किताबें हैं उनमें ‘हिंदुस्तानी किस्सों से माख़ूज़ उर्दू मसनवियां, उर्दू ग़ज़ल और हिंदुस्तानी ज़हनो-तहज़ीब, जो नारंग साहब का बहुत अहम काम है जिसमें उन्होंने यह बात साबित की कि उर्दू ग़ज़ल में जो हुस्न का तसव्वुर है वो किसी बाहरी कल्चर या बाहरी ज़बान से नहीं लिया गया है बल्कि उसकी जड़ें हिंदुस्तान में ही यहां की मिट्टी में ही हैं। उनकी इस तहक़ीक के बाद उर्दू ग़ज़ल को देखने का नज़रिया ही पूरी तरह तब्दील हो गया। तीसरी अहम किताब ‘हिंदुस्तान की तहरीक-ए-आज़ादी और उर्दू शायरी’ में उन्होंने तहरीक-ए-आज़ादी में उर्दू जबान और उर्दू शायरी का जो रोल है, उसको बहुत वज़ाहत से बयान किया है। नारंग साहब के दूसरी अहम किताबों में इमला नामा, इकबाल का फ़न, पुराणों की कहानियां, अनीस-शनासी, उसलूबियाते-मीर, उर्दू अफसाना- रिवायत और मसाईल, सानिहा-ए-करबला बतौर शेरी इस्तिआरा, अमीर ख़ुसरो का हिंदवी कलाम, अदबी तन्क़ीद और उसलूबियात, साख़्तियात पस-साख़्तियात और मशरिक़ी शेरियात (इस किताब पर नारंग साहब को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला), तरक़्क़ी पसंदी जदीदियत माबादे-जदीदियत, अनीस और दबीर, उर्दू ज़बान और लिसानियात, फ़िराक़ गोरखपुरी: शायर नक़्क़ाद दानिशवर। इनके अलावा अंग्रेजी और हिंदी में भी कमो-बेश दो दर्जन किताबें हैं।
नारंग साहब को उनके अदबी कारनामों के एतराफ़ में जाने कितने ऐज़ाज़ात से नवाज़ा गया। उनमें से कुछ मख़सूस एज़ाज़ात में पद्म भूषण, साहित्य अकादमी एवार्ड, मीर एवार्ड, राजीव गांधी अवॉर्ड बराए सेकुलरिज़्म, दिल्ली उर्दू अकैडमी एवॉर्ड, ग़ालिब एवॉर्ड के अलावा हैदराबाद यूनिवर्सिटी, अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी और मौलाना आज़ाद युनिवर्सिटी से ऑनारेरी डी०लिट०, दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर एमिरेट्स तक़र्रुर के साथ दर्जन भर मुल्कों से मिले एहम एवार्ड्स शामिल हैं।
नारंग साहब की शख़्सियत और उनकी अदबी ख़िदमात पर लगभग दर्जन भर मेयारी किताबें शाया हो चुकी हैं। नारंग साहब एहद-साज़ और नज़रिया-साज़ नक़्क़ाद हैं। उनका तन्क़ीदी तसव्वुर इतना वसीअ है कि यह एहद नारंग साहब का ही एहद है। उनकी तन्क़ीद की रोशनी में ही उनके बाद के नाक़दीन ने अपने रास्ते तलाश किए और अपनी राहें हमवार कीं।
नई पीढ़ी जो कि किताबों से धीरे-धीरे दूर होती जा रही है उसको नारंग साहब और उनके कारनामों से रूशनास कराने का एहम काम रेख़्ता ने अपने सेमिनारों, अपने फेस्टिवल्स और अपने स्टूडियो में नारंग साहब को मदऊ कराकर और उनके लाइव लेक्चर्स, चाहे वो अमीर ख़ुसरो पर हों, मीर पर हों, ग़ालिब, फ़ैज़, फ़िराक़ पर हों या ज़बानो-अदब पर हों, से इस पीढ़ी की जैसी तरबियत कराई वो वाक़ई क़ाबिले-सताइश है।
नारंग साहब जैसी सादा लोह शख़्सियात अब नहीं होंगी। ऐसे उर्दू के दीवाने और उर्दू ज़बान और अदब पर एहसान करने वाले, उर्दू ज़बान और अदब के लिए अपनी पूरी जिंदगी सर्फ़ करने वाले ऐसे लोग आगे मिलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन नजर आता है। खुशनसीब हैं हम लोग कि हमने एक मुजाहिद-ए-उर्दू और मोहसिने-उर्दू के एहद में अपनी ज़िन्दगी बसर की और उर्दू का जादू अपनी आंखों से देखा। उनके जाने से हम ही नहीं उर्दू भी उदास है।
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