Irfan Siddiqi

नई शायरी करनी हो तो इनके बारे में जानना ज़रूरी होगा

आख़िर-ए-शब हुई आग़ाज़ कहानी अपनी
हम ने पाया भी तो इक उम्र गँवा कर उस को

इरफ़ान सिद्दीक़ी के इस अकेले शे’र में उनकी ज़िन्दगी की पूरी कहानी छुपी हुई है। उर्दू ज़बान के बेहतरीन शाइ’रों में से एक होने के बावजूद, वो मक़बूलियत और पज़ीराई उनके लिए बहुत देर से आई, जिसके वो हक़दार थे। इरफ़ान सिद्दीक़ी आधुनिक उर्दू ग़ज़ल के एक ट्रेंडसेटर के रूप में भी जाने जाते हैं, जिन्होंने अपनी समझ और तर्कशक्ति को शाइ’री में ढालने की हिम्मत की, और उर्दू शाइ’री के कैनवस पर एक ख़ूबसूरत पेंटिंग बनाई। कल्पना के बजाय, इरफ़ान की शायरी सीधे उनकी मेधा, उनकी समझ से निकलती है और हमें हर बयान के पीछे उनके तर्क से आश्वस्त होने के लिए मजबूर कर देती है। शे’र देखिए:

तू ने मिट्टी से उलझने का नतीजा देखा
डाल दी मेरे बदन ने तिरी तलवार पे ख़ाक

अब ये शे’र सुनने में अजीब लग सकता है, लेकिन तथ्यात्मक रूप से यह कितना सही और दोष-रहित शे’र है, बिना तर्कवाद की गहरी समझ के कोई व्यक्ति इस तरह के विचार के साथ नहीं आ सकता है। और इसके माध्यम से, इरफ़ान सिद्दीक़ी उन छोटी-छोटी कोशिशों के बारे में हमारी धारणा बदल देते हैं जो किसी बड़ी घटना के सामने किसी का ध्यान नहीं खींच पाती हैं, नज़रंदाज़ हो जाती हैं । वो चाहते हैं कि हम छोटी-छोटी चीज़ों की सफलता में भी वही सकारात्मकता देखें, जो हम आ’मतौर पर किसी बड़े मक़सद के लिए करते हैं।

अपनी तर्क करने की बेजोड़ क्षमता के माध्यम से, इरफ़ान हमें जीवन के तन्त्र (mechanism of life) की व्याख्या करते हैं; और वह भी एक बहुत ही दिलचस्प तरीक़े से।

डुबो दिया है तो अब इस का क्या गिला कीजे
यही बहाव सफ़ीने रवाँ भी रखता था

अब जरा इस पर ग़ौर करें! यह कैसा तार्किक शे’र है! हम ज़िन्दा हैं क्योंकि हम लगातार साँस लेते हैं लेकिन हमें लगता है कि साँस लेने की इस प्रक्रिया से हमारी उम्र बढ़ने लगती है और लगातार उ’म्र बढ़ने से हम अपने जीवन के अंत की तरफ़ पहुँच जाते हैं। हम सब उस ग़ुब्बारे की तरह हैं, जिसमें कोई लगातार हवा भर रहा है। इस लगातार हवा भरने के कारण, ग़ुब्बारे के आकार में वृद्धि होती है जिसे हम growth कहते हैं। लेकिन हमारे उदय के लिए ज़िम्मेदार घटना ही हमारे पतन का कारण भी हो सकती है क्योंकि लगातार हवा भरने की इस प्रक्रिया के कारण ग़ुब्बारा एक मक़ाम पे आकर फट जाता है। लेकिन, क्यों मैं अभी इसके बारे में बात कर रहा हूँ और क्यों इरफ़ान साहब पे अपनी राय व्यक्त करने के लिए ये शे’र ही चुना? चीज़ों और कार्यों के पीछे के mechanism को explain करके, इरफ़ान सिद्दीक़ी नहीं चाहते कि हम आपके आसपास हो रही सकारात्मक चीज़ों के बारे में भी दुखी होना शुरू’ कर दें। इसके बजाय, वो चाहते हैं कि हम undesired incidents के बारे में depressive महसूस न करें और इसे सहजता से स्वीकार करना सीखें क्योंकि life के cycle को बनाए रखने के लिए ये भी ज़रूरी हैं।

Irfan Siddiqi

यहाँ तक कि अपने ज़ाती जज़्बात के साथ, इरफ़ान साहब यह स्वीकार करने के लिए हमेशा तैयार थे कि उनके भीतर क्या चल रहा है। और यही वजह है, उन्होंने खुले तौर पर इस तरह का शे’र कहने की हिम्मत की है:

मैं झपटने के लिए ढूँढ रहा हूँ मौक़ा
और वो शोख़ समझता है कि शरमाता हूँ

इस शे’र के माध्यम से, इरफ़ान सिद्दीक़ी हमें उस विडंबना से परिचित कराते हैं जिसे हम जी रहे हैं लेकिन स्वीकार करने में संकोच करते हैं। हम हमेशा विनम्र, भावनात्मक और निस्वार्थ होने का दावा करते हैं, लेकिन हम एक ही समय में समान रूप से practical, calculative और self-centred होते हैं। उपरोक्त शे’र में, जब इरफ़ान कहते हैं कि वह वासना का आदमी है और प्यार से बहुत कम संबंध रखता है, वह वास्तव में उन अधिकांश लोगों के बारे में बात करता है जो एक ऐसे रिश्ते की तलाश करते हैं जहाँ वो किन्ही तरीक़ों से लाभान्वित हो सके। लेकिन इरफ़ान सिद्दीक़ी हम सबसे इसलिए अलग हैं कि हममें से ज़्यादातर लोग कभी भी अपने इरादों को इतना खुलकर स्वीकार करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं।

कमज़ोरी या लाचारी को स्वीकार करना हमारी सबसे बड़ी ताक़त में से एक है और यह एक ऐसी बात है जो हमें इरफ़ान के इस ख़ूबसूरत शे’र के वजूद में आने के बा’द हमें पता चली है।

देखते हैं तो लहू जैसे रगें तोड़ता है
हम तो मर जाएँगे सीने से लगा कर उस को

और

वो थकन है कि बदन रेत की दीवार सा है
दुश्मन-ए-जाँ है वो पछुआ हो कि पुरवार्ई हो

और ये शेर:

हम कौन शनावर थे कि यूँ पार उतरते
सूखे हुए होंटों की दुआ ले गई हम को

इन अशआ’र के ज़रीए इरफ़ान सिद्दीक़ी ये साबित करते हैं कि हमारी बेचारगी भी किसी पल को ख़ूबसूरत बना सकती है और उस पल को खुलकर जीने के लिए प्रेरित कर सकती है।

Irfan Siddiqi

इरफ़ान यह भी अच्छी तरह जानते थे कि किसी के सामने अपनी बात को कैसे साबित किया जाए और इस शे’र के माध्यम से, वह अपने महबूब को बड़ी कामयाबी से ये यक़ीन दिला जाते हैं कि दोनों के बीच इस मुहब्बत का खेल तो वही जीतेंगे चाहे कुछ भी हो जाए, शे’र देखिए:

खेल ये है कि किसे कौन सिवा चाहता है
जीत जाओगे तो जाँ नज़्र गुज़ारेंगे तुम्हें

उनके निजी जीवन के बारे में बात करें तो, इरफ़ान सिद्दीक़ी का जन्म उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले में 11 मार्च, 1939 को हुआ और उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय के बरेली कॉलेज से अपनी शिक्षा पूरी की। 1962 में, वह नई दिल्ली स्थित सूचना और प्रसारण मंत्रालय के तहत केंद्रीय सूचना सेवा से जुड़े। वो रोज़गार के उद्देश्य से दिल्ली और लखनऊ आते रहे और अपने जीवन के बा’द के वर्षों तक लखनऊ में रहे।

एक मैं हूँ कि इस आशोब-ए-नवा में चुप हूँ
वर्ना दुनिया मिरे ज़ख़्मों की ज़बाँ बोलती है

हालाँकि, इरफ़ान यहाँ अभिव्यक्ति के संकट के बारे में बात करते हैं, लेकिन उन्होंने हमेशा अपने विचारों को ख़ूबसूरती से व्यक्त करने का एक तरीक़ा निकाला और इसीलिए वे शाइ’री के कुल पाँच मज्मूए, दो तर्जुमे की’ किताबें और संचार और प्रसारण से संबंधित विषयों पर दो-तीन किताबों को क़लमबंद कर सके। उनका पहला शाइ’री संग्रह ‘कैन्वस’ 1978 में प्रकाशित हुआ जिसके बा’द शब-दर्मियाँ (1984), सात समावात (1992), इ’श्क़-नामा (1997) और हवा-ए-दश्त-ए-मारिया (1998) का प्रकाशन हुआ। उनके दो कुल्लियात (संग्रह) में से ‘दरिया’ 1999 इस्लामाबाद से और ‘शह्र-ए-मलाल’ 2016 में देहली से प्रकाशित हुआ। उनकी अन्य किताबों में ‘अ’वामी तर्सील’ (1977) और ‘राब्ता-ए-आ’म्मा’, (1984) ‘रुत-सिंघार’ (कालिदास के नाटक ऋतु संघारम का उर्दू अनुवाद), मालविका अग्नि मित्रम (कालिदास के नाटक ‘मालविकाग्निमित्रम्‘ का उर्दू अनुवाद) और ‘रोटी की ख़ातिर’ (अरबी उपन्यास का उर्दू अनुवाद) शामिल हैं। उन्हें उर्दू अकादमी उत्तर प्रदेश और ग़ालिब इंस्टीट्यूट, देहली के सम्मान प्राप्त हुए। अपनी अनूठी काव्य-शैली के लिए इरफ़ान पाकिस्तान में भी उतने ही लोकप्रिय थे। यह पाकिस्तान में उनकी मक़बूलियत का ही सुबूत है कि इरफ़ान की सभी पाँच पुस्तकों को संकलित करने के लिए पाकिस्तान से एक प्रकाशन संस्थान आगे आया और उन्हें ‘दरिया ’नाम से प्रकाशित किया।

Irfan Siddiqi

अब आ गई है सहर अपना घर सँभालने को
चलूँ कि जागा हुआ रात भर का मैं भी हूँ

जैसे हर किसी को एक दिन इस फ़ानी दुनिया को छोड़ कर रुख़सत होना पड़ता है, इरफ़ान सिद्दीक़ी भी 15 अप्रैल 2004 को इस फ़ानी दुनिया को छोड़ कर चले गए। ये उर्दू ज़बान और अदब के लिए एक नाक़ाबिल-ए-तलाफ़ी नुक़सान था, क्योंकि हम शायद ही उनके जैसा शाइ’र फिर से देख पाएँगे। फिर भी, मैं इरफ़ान सिद्दीक़ी द्वारा दी गई उम्मीद के साथ अपने शब्दों को विराम दे रहा हूँ कि:

ख़ुदा करे सफ़-ए-सरदादगाँ न हो ख़ाली
जो मैं गिरूँ तो कोई दूसरा निकल आए