वो फ़साना बन गई है…
तनहाई सुनाया करती है
कुछ बीते दिनों का अफ़साना
‘पाकीज़ा’ (1972) कमाल अमरोही का लिखा गीत जो फिल्म में इस्तेमाल नहीं हुआ
साहेब जानः सलीम, तुम जहाँ कहीं भी मुझे ले जाओगे, मेरी बदनामी मुझे ढूंढ़ ही लेगी, मेरा यह दुश्मन आसमान कहीं खत्म नहीं होगा… तुम मुझे कहाँ छिपाने लिए जा रहे हो?
सलीमः वहाँ… जहाँ तुम्हारा आसमान खत्म होता है…
‘पाकीज़ा’ (1972)
वे जिद्दी थे, अहंकारी और सनकी कहलाए जाने की हद तक आत्ममुग्ध थे। मगर इस प्रतिभावान और विवादित शख़्सियत ने 1945 के बाद की हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री को न सिर्फ भारतीय सिनेमा को असाधारण लोकप्रियता वाली फिल्में दीं, बल्कि उन्हें कला की ऊंचाइयों तक भी पहुंचाया और फिल्म मेकिंग की एक बिल्कुल नई शैली को सामने रखा। असाधारण रूप से मौलिक प्रतिभा वाले यह फिल्मकार थे सैयद अमीर हैदर कमाल नक़वी उर्फ कमाल अमरोही उर्फ चंदन। दुर्भाग्य से उनके निर्देशन की इस नितांत मौलिक शैली का अनुसरण करने वाले फिल्मकार उस तरह नहीं मिले, जैसे विमल राय, राजकपूर और गुरुदत्त को मिले थे। इसके पीछे कई वजहें हो सकती हैं, जिनमें उनका निजी जीवन भी शामिल है, जो खासा विवादित रहा। मीना कुमारी के साथ रिश्तों में आई कड़वाहट के चलते आम लोगों के बीच उनकी जो छवि बनी, उसमें निर्देशक कमाल अमरोही कहीं बहुत पीछे छूट गया। मगर यह जानना दिलचस्प होगा कि अपनी पूरी ज़िंदगी में महज चार फिल्मों का निर्देशन और कुछ फिल्मों की कथा-पटकथा लिखने वाला एक इनसान कैसे अपने समय का मुहावरा बन जाता है। यहां उल्लेखनीय है कि यह मुहावरे वाली बात एक इंटरव्यू के दौरान उनके बेटे ताजदार अमरोही ने बताई थी कि कमाल अमरोही का जिक्र आश्चर्यजनक रूप से फिल्मों में भी आया है। फिल्म ‘खूबसूरत’ में एक जगह संवाद ‘कला में तो तुम कमाल अमरोही हो’ आता है, तो ‘हुकूमत’ फिल्म का एक चरित्र होटल के बारे में बताते हुए कहता है कि यहां कमाल अमरोही ठहरे थे।
राजकपूर और विमल राय पर पश्चिम के सिनेमा; खासतौर पर इटैलियन नवयथार्थवाद का स्पष्ट प्रभाव देखने को मिलता है। राजकपूर ने तो अपनी शैली में चार्ली चैपलिन के असर को मुखर होकर इस्तेमाल किया और स्वीकार भी किया है। आत्मा से भारतीय होते हुए भी इन सभी निर्देशकों के फिल्मांकन की शैली अपने पूरे परफेक्शन में यूरोप और अमरीका की बेहतरीन फिल्मों के करीब जाकर खड़ी होती है, मगर कमाल अमरोही आश्चर्यजनक ढंग से परफेक्शन की बनी-बनाई अवधारणाओं को तोड़ते नजर आते हैं। उनकी पहली फिल्म ‘महल’ का वातावरण और कैमरा वर्क जर्मनी की अभिव्यंजनावादी और गॉथिक फिल्मों ‘द कैबिनेट आफ डॉक्टर कैलीगरी’, ’नॉस्फेरातू’ और ‘फॉउस्ट’ के बहुत करीब लगती हैं। मगर बाद में भी भय और रहस्य की थीम से इतर दूसरे विषयों पर बनी उनकी फिल्मों में भी लंबे सीन, ठहराव, लंबे क्लोजअप, एडीटिंग की ऐसी शैली जो कहानी को दर्शकों के नहीं बल्कि निर्देशक की सोच के साथ प्रस्तुत करती है और दृश्यों को फ्रेम में लेने का तरीका दरअसल बने-बनाए नियमों को तोड़ता-सा लगता है। साधारण समझ के लिए यह अपरिपक्व और उबाऊ भी लग सकता है मगर कामर्शियल ताने-बाने में, बड़ी पूंजी लगाकर फिल्म का निर्माण करने वाले कमाल अमरोही ने जोखिम मोल लेते हुए भी अपनी मौलिकता और विशिष्ट सोच के साथ समझौता नहीं किया। कमाल को शोहरत तो मिली मगर ‘महल’, ‘दायरा’ और ‘पाकीज़ा’ में उनकी अनूठी शैली और कलात्मकता को कभी पहचाना नहीं गया।
कमाल अमरोही का ज़िक्र एक रूमानी और परफेक्शनिस्ट निर्देशक के रूप में होता है। बतौर लेखक उन्होंने ‘पुकार’, ‘मुग़ल-ए-आज़म’ और ‘पाकीज़ा’ जैसी फिल्मों के लिए उर्दू में यादगार संवाद लिखे। ये संवाद हिन्दी सिनेमा में उस दौर के चलन से बिल्कुल अलग थे, जिसमें पारसी थिएटर का गहरा प्रभाव था। अमरोही ने उस प्रभाव से मुक्त होकर सिनेमा के संवादों को शायरी की ऊंचाइयां दीं। दरअसल अमरोही अपने पूरे अप्रोच में ही कविता के बहुत करीब नजर आते हैं। अगर आपने अंग्रेजी के रोमांटिक कवियों शेली, वर्ड्सवर्थ, कीट्स और टेनिसन और यूरोप के गॉथिक नावेल पढ़े हैं तो बतौर निर्देशक अमरोही को ज्यादा बेहतर समझ सकते हैं। अपनी गहरी रूमानियत और फिल्मांकन की मौलिक शैली का इस्तेमाल करते हुए वे अपने समय के महान निर्देशकों के बरअक्स किसी भी तरह के विदेशी प्रभाव से मुक्त रहकर भी सिनेमा का ऐसा मुहावरा गढ़ रहे थे, जिसने न सिर्फ कलात्मक ऊंचाइयों को छुआ बल्कि पॉपुलर कल्चर का अहम हिस्सा भी बना। ‘महल’ को कौन भूल सकता है, जिसे देखकर सहसा एडगर एलन पो की दुःस्वप्न से भरी कहानियां याद आने लगती हैं। या फिर ‘पाकीज़ा’, जो लगभग क्लासिक की हद तक ब्यूटी और परफेक्शन को छूती फिल्म है। कमाल अमरोही शायद अपनी कला के सबसे करीब ‘महल’ और उसके बाद आई ‘दायरा’ में थे। ‘दायरा’ अपने वक्त से आगे की फिल्म थी, अगर यह फिल्म सफल होती तो शायद भारतीय सिनेमा को कमाल अमरोही का कोई और ही रुप देखने को मिलता, लेकिन फायदे नुकसान के इस व्यवसाय की परिणति हमें ‘रज़िया सुल्तान’ के कमाल अमरोही तक ले जाती है।
कमाल के फिल्मांकन में एक किस्म का ग्रैंड नैरेटिव था, जिसे हम हिन्दी में महाआख्यान कह सकते हैं। दिलचस्प बात यह है कि अगर हम ‘रज़िया सुल्तान’ को छोड़ दें तो उनके ये महाआख्यान साधारण लोगों के हैं। वे जीवन को एक ‘एपिक’ के स्तर पर महसूस करते हैं। ‘पाकीज़ा’ में साधारण की यह भव्यता उन्हें डेविड लीन और मार्टिन स्कार्सिस जैसे निर्देशकों के करीब ले जाती है, जहां भव्य त्रासदी की सारी खूबियां होती हैं। यह एक साधारण तवायफ के जीवन की कहानी थी, मगर कमाल अमरोही इसे किसी एपिक फिल्म की तरह बनाना चाहते थे। जब इस फिल्म की शूटिंग आरंभ हुई तभी कहा जाने लगा कि कमाल मीना कुमारी के लिए फिल्म नहीं एक ताजमहल बनाना चाहते हैं। कमाल अमरोही अपनी फिल्मों की भव्यता सिर्फ कथानक के माध्यम से नहीं, बल्कि उसको प्रस्तुत करने के तरीके और उन बेहद सूक्ष्म संकेतों से रचते थे, जो उनकी फिल्मों को बार-बार देखने से पकड़ में आती हैं।
हर बड़े फिल्मकार की तरह कमाल के यहां भी कुछ दुहराव मिलते हैं, जिनकी रोशनी में कमाल अमरोही की पूरी रचनात्मकता को समझा जा सकता है। कमाल की फिल्मों में प्रेम हमेशा सामाजिक तौर पर प्रतिबंधित होता है। ‘महल’ के अशोक कुमार जब रहस्यमयी मधुबाला के आकर्षण में खिंचते लगते हैं तो वे कामिनी कौशल के साथ शादीशुदा होते हैं। दायरा में नासिर हुसैन एक विवाहित युवती से मन ही मन प्रेम करने लगते हैं। ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ में जब तक राजकुमार और मीना कुमारी के मन में एक-दूसरे के प्रति कोमल भावनाओं का अंकुरण होता है, राजकुमार की शादी नादिरा से हो जाती है। वहीं ‘पाकीज़ा’ में राजकुमार को एक कोठे पर नाचने वाली लड़की से प्रेम हो जाता है, जिसके लिए उन्हें परिवार का विरोध और जिल्लत झेलनी पड़ती है। शंकर हुसैन में भाई की तरह साथ रहने वाले दोनों हिन्दू और मुसलिम नायकों को पता चलता है कि जिस अलग-अलग लड़की से वे प्रेम करते हैं वो दरअसल एक ही है। इसी तरह ‘रज़िया सुल्तान’ में दिल्ली सल्तनत पर राज करने वाली एक महिला अपने दरबार के गैर तुर्क गुलाम से प्यार कर बैठती है। उनके किरदारों में सतह के बहुत नीचे, धीमे-धीमे सुलगता हुआ विद्रोह पूरी फिल्म के तानेबाने में तनाव रचने का काम करता है, और अक्सर पात्रों के सूक्ष्म मनोभावों में परिलक्षित होता है। कमाल जब अपने चरित्रों की मनोवैज्ञानिक गहराइयों में बढ़ रहे होते हैं तो वह दार्शनिकता का रूप ले लेती हैं, जो मृत्यु और अकेलेपन से जुड़ा होता है। ‘महल’ फिल्म कहानी सचमुच में पुर्नजन्म के अंधविश्वास से जुड़ी नहीं है मगर दो प्रेमियों की नियति उस प्रेम को जीवन-मृत्यु के परे ले जाती है। ‘दायरा’ में अपनी अवसाद भरी नियति और मृत्यु की तरफ बढ़ते प्रेमी पूरी फिल्म में एक-दूसरे से बात तक नहीं करते, बस अपनी छतों से एक-दूसरे को देख भर पाते हैं। ‘पाकीज़ा’ में ट्रेन के सफर में मिला किसी अनजान शख़्स का ख़त मीना कुमारी की पूरी जिंदगी बदल देता है।
To be continue….
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